Thursday, March 27, 2014

सिनेमा,सांप और भ्रांतियां











सांप को लेकर कई भ्रांतियां और मिथक लोगों में है.सांप को देखते ही भय इस कदर व्याप्त हो जाता है कि इसे मारना ही श्रेयस्कर समझते हैं.इसका कारण अतीत में सर्पदंश से हुई मौतें और जनमानस के जेहन में समाया हुआ डर भी है.यह धारणा भी लोगों में बनी हुई है कि सांप बदला लेते हैं.इस कारण न केवल गाँव,देहातों में बल्कि शहरों में भी लोग सांप को मारने के बाद उसके फन को कुचलते और आँख फोड़ देते हैं क्योंकि यह भ्रांतियां फैली हुई हैं कि सांप की आँखों में मारने वाले की छवि अंकित हो जाती है.

सांप के संबंध में कई विश्वास प्रचलित हैं.इनमें कुछ का तो खंडन हो चुका है और कुछ अभी भी बरकरार है.जैसे, सांप के संबंध में प्रचलित इस विश्वास का खंडन हो चुका है कि सर्पों में सम्मोहन शक्ति होती है.इसी तरह यह विश्वास भी मिथ्या सिद्ध हो चुका है कि सर्प स्त्रियों पर कभी हमला नहीं करते.सांप के बीन की धुन पर झूमने वाली बात में भी कोई सत्यता नज़र नहीं आती क्योंकि विशेषज्ञों के अनुसार सांप बहरा होता है और हवा द्वारा ले जाई गई ध्वनि को नहीं सुन सकता.यह जमीन पर कंपन,तरंग या सुगंध के अहसास से अपना काम चलाता है.

सांप को लेकर न केवल हिंदी सिनेमा बल्कि हॉलीवुड में भी कई हिट फ़िल्में बनी हैं.सांप के प्रति लोगों के भय,अंधविश्वास और श्रद्धा को फिल्मकारों ने खूब भुनाया है.हिंदी फिल्मों में सांप के ‘बदले की थीम’ को लेकर बनी कई सुपर हिट फ़िल्मों में दिखाया गया कि किस तरह एक नागिन अपने जोड़े की मौत का बदला लेती है.इसी तरह एक अंग्रेजी फिल्म ‘द कल्ट ऑफ़ कोबरा’ भी साँपों के बदला लेने से संबंधित है.

‘द कल्ट ऑफ़ कोबरा’ में दिखाया जाता है कि विश्वयुद्ध के समय कुछ यूरोपीय सिपाही मिस्त्र के एक नगर में सैर-सपाटे के लिये जाते हैं.वहां उन्हें एक ऐसे गुप्त संप्रदाय का पता चलता है,जो सर्पों की पूजा करते हैं.उन्हें पता चलता है कि एक विशेष दिन होने वाले समारोह में एक सर्प एक विशाल घड़े के चरों ओर नृत्य करने वाली नर्तकी के पास आता है और फिर वह धीरे-धीरे मानवाकृति धारण कर लेता है.वे चारों-पांचों सिपाही वेश बदलकर उस स्थान पर पहुँचते हैं.वहां वे सब देखते हैं जो उन्हें बताया गया था.उनमें से एक सिपाही इस अद्भुत दृश्य का फोटो लेना चाहता है.फ़्लैश का प्रकाश होते ही वहां एकत्र लोगों में खलबली मच जाती है.वे उसे पकड़ने के लिए दौड़ते हैं.भीड़-भाड़ में सिपाही किसी तरह बच निकलते हैं,लेकिन सांप उन्हें नहीं छोड़ते.उनमें से प्रत्येक को एक-एक कर सर्पों के कारण मरना पड़ता है.

रामोना और डेसमंड मॉरिस की प्रसिद्द पुस्तक ‘मैन एंड स्नेक्स’ में अनायास ही ‘डान्ह-ग्बी’ नामक एक सर्प देवता के बारे में पढ़ने को मिलता है.’डान्ह-ग्बी’ की पूजा में सुंदर स्त्रियों का विशेष स्थान था.कभी-कभी यह सर्प देवता सुंदर स्त्रियों के सम्मुख प्रकट होकर उन्हें सम्मोहित कर देता.फलतः वे उसकी सेवा में तैनात हो जातीं.उनकी विभिन्न सेवाओं में एक सेवा विशाल घड़े के चारों ओर नृत्य करने की भी होती.बाद में नरबलि भी दी जाती.

लेकिन क्या सर्प बदला लेते हैं? क्या वे रूप भी बदल सकते हैं? सर्प-विशेषज्ञों की खोज जारी है.सर्प-विशेषज्ञ यूनान के एक द्वीप में प्रतिवर्ष घटने वाली एक घटना का रहस्य अभी तक नहीं समझ पाए हैं.इस द्वीप का नाम है सेफालोनिया.पहाड़ों से भरे द्वीप में दो छोटे-छोटे चर्च भी हैं.प्रति वर्ष 6 अगस्त से 15 अगस्त के बीच सैकड़ों छोटे-बड़े विषैले सर्प पहाड़ियों में बने अपने बिलों से निकलते हैं और चर्चों की ओर बढ़ते हैं.यूनानी पंचांग के अनुसार 6 अगस्त ईसा मसीह का दिन है,और 15 अगस्त वर्जिन मेरी का.

इन सर्पों के बारे में एक और विचित्र बात कही जाती है कि प्रत्येक सर्प के सर पर क्रॉस बना हुआ होता है.चर्चों में पहुँचने वाले इन सर्पों के बारे में एक किवदंती भी प्रचलित है.कहते हैं,वर्षों पहले समुद्री डाकू सेफालोनिया पहुंचा करते थे और द्वीप पर बसे दो गांवों मार्कोपोडलो और अर्जेनिया के मध्य रहने वाली ननों को परेशान किया करते थे.समुद्री डाकुओं के व्यवहार से ननें बेहद परेशान थीं.एक दिन मंदर सुपरियर ने ईश्वर से प्रार्थना की कि अगली बार जब समुद्री डाकू आएं, तो वह हमें सर्प बना दें.और कहते हैं,जब समुद्री डाकू अगली बार आए,तब उन्हें कान्वेंट में ननों की बजाय चौबीस सर्प दिखाई दिए.

ग्रामीणों का विश्वास है कि ईश्वर के प्रति उनकी आस्था पुष्ट करने के लिए हर वर्ष 6 से 15 अगस्त के मध्य सर्प पहाड़ियों से उतारकर चर्चों में पहुँचते हैं.कई लोगों ने दोनों पर्वों के बाद इन क्रॉस धारी सर्पों को खोजने की कोशिश की लेकिन उन्हें एक भी सर्प दिखाई नहीं दिए.6 अगस्त को गाँव वाले चर्च में एकत्र होते हैं और उसकी घंटी बजते ही सर्प अपने बिलों से निकलकर चर्चों की ओर रेंगने लगते हैं.सर्पों की संख्या का भी महत्व है.जिस वर्ष बड़ी संख्या में सर्प आते हैं,गाँव वाले संतुष्ट होते हैं,क्योंकि उन्हें लगता है कि उस वर्ष उन्होंने अपने धर्म का पालन अच्छी तरह किया है.जिस वर्ष कम संख्या में सर्प आते हैं,गाँव वाले सोचते हैं कि उस वर्ष उन्होंने धर्म-पालन में कोताही बरती है.

डेसमंड ने अर्जेनिया के मेयर बाल्लास के हवाले से लिखा है कि वर्ष में पूरे द्वीप में कहीं सर्प दिखाई नहीं देते,चर्च की बात तो दूर है.यह चमत्कार सैकड़ों वर्षों से होता आया है,और अब तो दोनों पर्वों पर अन्य देशों के लोग भी यहाँ पहुँचने लगे हैं.

एथेंस के एक पत्रकार डेविड बारिट ने स्वयं इन द्वीपों में सर्पों के इस रहस्यमय आगमन को देखा है.इन सर्पों के संबंध में एक और उल्लेखनीय बात है कि ये सर्प विषैले होते हुए भी किसी को डसते नहीं.

यह भी कहा जा सकता है कि शायद पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए ही यह पूरा किस्सा गढ़ा गया हो.लेकिन इस बारे में कुछ भी कहना कठिन है.

डेसमंड मॉरिस का कहना है कि ‘इतिहास के उदय काल से ही सर्प को देवता के रूप में पूजा जाता रहा है.नाग आरंभिक द्रविड़ों का प्रतीक चिन्ह था और जब कबीले के प्रमुख की मृत्यु हो जाती थी,उसे अर्द्ध-देवता मान लिया जाता था.लोगों का विश्वास था कि दिवंगत प्रभुत्व कभी-कभी सर्प की आकृति धरकर प्रकट भी होता है.’ डेसमंड ने अपनी पुस्तक में नागपंचमी का भी जिक्र किया है.
                         
                                (जनवाणी - रविवाणी में दिनांक :- 30.03.2013 को प्रकाशित)

Thursday, March 20, 2014

कुछ कहते हैं दरवाजे















दरवाजे कुछ न बोलते हुए भी उस गली से गुजरनेवाले राहगीरों से बहुत कुछ कह जाते हैं.द्वार को घर का दर्पण कहना अनुचित नहीं होगा क्योंकि ये दरवाजे अपनी सुरक्षात्मक उपयोगिता से कहीं आगे बढ़कर कला,भावना,वैभव और संस्कृति की रचनात्मक व्याख्या करते हुए या निवास करने वाले की रुचि का परिचय देते हैं.

किसी भी द्वार का किसी इमारत या किसी क्षेत्र के साथ ठीक वैसा ही संबंध होता है जैसा कि चेहरे का रिश्ता शरीर के साथ होता है.भारतीय इतिहास के प्राचीन हिंदू युग में नगरों के वैजयंतद्वार नगर की शान-शौकत के,दुर्गों के सिंहद्वार किले की मजबूती के,भवनों के प्रवेशद्वार महलों की सुंदरता के और देव स्थानों के गोपुरम मंदिर के वैभव के परिचायक माने जाते थे.शहरों के प्रवेशद्वार शाहदरे कहलाते थे तो मकानों के प्रधान द्वार को सदर दरवाजे की संज्ञा दी जाती थी.यहाँ तक कि किसी साधारण स्तर के गृहस्थ का दरवाजा भी उसकी हैसियत का आईना समझा जाता रहा है.

दरवाजों में अपने समय तथा संस्कृति की परंपरा के स्पष्ट प्रभाव पाए जाते हैं और उनके स्वरूप के साथ ही उनके ऐश्वर्य की कहानी भी जुड़ी है.राजपूत काल को दरवाजों की सजावट और कलात्मक उत्कर्ष का काल माना जाता है.राजस्थान में सदर द्वार पोल कहलाते हैं.आमेर महल का ‘गणेश पोल’ प्रसिद्द है.’गणेश पोल’ के ऊपर गणपति का सुंदर चित्रांकन है और साथ ही दरवाजा चारों तरफ से रंगबिरंगे फूलबूटों से सजा हुआ है.इसी तरह सूरज पोल और चाँद पोल जैसे दरवाजे भी लोकप्रिय हैं.

महल चाहे जितने मजबूत पत्थर या ईट चूने से बने हुए हों उनके दरवाजे हमेशा लकड़ी से बनाये जाते थे.दरवाजे के उपयोग और लकड़ी की क्षमताएं परस्पर पूरक होते हैं.अच्छे दरवाजों में उत्तम कोटि की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है.

चंदन की लकड़ी के दरवाजे मंदिरों में लगे हुए आज भी देखे जाते हैं.सागौन,देवदार,शीशम के दरवाजे भी काफी कीमती समझे जाते हैं,जबकि मामूली दरवाजों के लिए साखू की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है.अखरोट की लकड़ी पर कलात्मक नमूने बहुत खूबसूरती से उकेरे जाते हैं लेकिन ये चौखटों में नहीं लगती.

कामदार चौखट और किवाड़ वाले दरवाजे मध्ययुग में तो अत्यंत लोकप्रिय रहे ही हैं बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक प्रभाव में रहे हैं.धीरे-धीरे दरवाजे सादे होते गए और बाद में प्लाईवुड की तख्तों की सूरत में रह गए.नक्श निगारीवाले दरवाजे अक्सर ऊंचे और बड़ी चौखटों वाले होते थे.उनके दिलहे और पल्ले भी वैसे ही नक्काशीदार होते थे जैसे कि चारों तरफ की चौखट होती थी.कभी-कभी तो इसी चौखट में ऊपर गणेश की प्रतिमा काष्ठ शिल्प में ही बनी रहती थी.इन दरवाजों की सजावट में मछलियाँ,गजमुख,शंख,पक्षी भी कहीं-कहीं बने हुए पाए जाते थे.लेकिन फल बूटों का काम सर्वाधिक लोकप्रिय था और जो धातु या पत्थर पर की गई पच्चीकारी की तरह बेहतरीन और गढ़े हुए गहने जैसा हसीन लगता था.

द्वारों की भव्यता बढ़ाने के लिए कभी-कभी इन पर सोने चांदी की चादरें चढ़ा दी जाती थीं या फिर गंगा जमुनी काम बना दिया जाता था.मंदिरों के संदर्भ में ऐसा अब भी मिलता है.चांदी से मढ़े हुए ये दरवाजे अब कहीं-कहीं सादे भी नज़र आते हैं,लेकिन पहले सुंदर पच्चीकारी से सजे होते थे.अयोध्या के सुप्रसिद्ध कनक भवन मंदिर में रजत किवाड़ पर दशावतार का सुंदर चित्रण दर्शनीय है.

सोमनाथ,मथुरा और थानेश्वर के मंदिरों के दरवाजे सच्चे सोने से जड़े मढ़े थे.जिन पर रत्नों से बेल बूटे बने थे और यवन लुटेरों के लालच का निशाना बने थे.कालांतर में सोने की जगह पीतल के गिलाफ चढ़ाए जाने लगे.धातु का प्रयोग केवल सजावट के लिए करने की गरज से लकड़ी के दरवाजों पर पीतल की मीनाकारी की जाने लगी.ऐसे दरवाजे कील फूलवाले दरवाजे कहे जाते हैं.
दरवाजों के आसपास भित्ति चित्रों की सजावट राजस्थानी कला-रुचि का परिचय देती हैं लेकिन इसका प्रभाव हरियाणा,गुजरात,,मालवा और उत्तर प्रदेश में भी पर्याप्त रूप से पाया जाता है.बुंदेलखंड से वाराणसी तक ऐसे द्वारों की भरमार है.

प्राचीन आख्यानों में वर्णित पत्थर के दरवाजे पाषाण युग की देन कहे जाते हैं. लेकिन बाद में भी कहीं न कहीं अस्तित्व में जरूर रहे हैं.लोक गीतों में वज्र किवाड़ का जिक्र मिलता है.पत्थर के दरवाजे अब पुराने किलों में या किसी ऐतिहासिक इमारत में मुश्किल से देखने को मिलते हैं.

पुराने मंदिरों की परंपरा में मंदिरों के शिखर चाहे जितने भी ऊँचे रहते थे उनके द्वार छोटे और नीचे ही रखे जाते थे.शायद प्रवेशार्थी को नत मस्तक होकर प्रवेश करने देने के लिए ही ऐसा प्रयोग रहा हो.परंतु अध्यात्म के गूढ़ अर्थों में इनकी विवेचना बहुत महत्व रखती है.पुरी का जगन्नाथ मंदिर इसका उदाहरण है.

हिंदू रजवाड़ों और मुस्लिम नवाबों के महलों के दरवाजों में जो स्पष्ट अंतर रहा है वो बाद तक हिंदू रईसों और मुसलमान अमीरों के घरों के दरवाजों की पहचान बना रहा.हिंदू सम्राटों या राज्य शासकों के बनवाए हुए द्वार विनायक प्रतिमा,सूर्य,चंद्र यक्ष द्वारपाल जैसे मंगल प्रतीकों या गजकमल,मत्स्य,शंख,चक्र,त्रिशूल, तोरण जैसे शुभ चिन्हों से सजे होते हैं.कलात्मकता की दृष्टि से भी इन द्वारों में उच्चकोटि का शिल्प मिलता है.

गणपति की प्रतिमा प्रायः इन द्वारों के मुकुट पर काठ पर कढ़ी हुई मिलती है,नहीं तो अलग से आला बनाया जाता है जिसमें गणेश की मूर्ति रखी जाती है.दरवाजे के अगल-बगल पर भित्ति चित्र विभिन्न  रंगों से सजे हुए देखे जाते हैं.पुरानी प्रथा में रंग भरने के लिए अबरक,संखिया,हरा कसीस,पीत प्रभा जैसे प्राकृतिक रसायनों का प्रयोग होता था.मुस्लिम दरवाजों में लंबे-लंबे कमानदार फाटक या चौड़ी चौखट में जड़े बड़े-बड़े दरवाजे मिलते हैं.वहां सादगी और मजबूती ही उनका मतलब है.

दरवाजे संकेत के साथ घर के वातावरण,मांगलिक अवसर या ऋतु पर्वों की बात भी करते हैं.द्वार शीर्ष पर विराजे हुए गणेश को पूजा अर्चना देने के लिए ही विवाह में द्वारार्चन की प्रथा है जिसे द्वार पूजा,द्वाराचार या गणेश पूजन कहते हैं.गणेश वंदना के बाद ही दामाद ससुर की ड्योढ़ी में प्रवेश करता है.ठीक इसी तरह बहू अपने ससुराल के आँगन में आने से पहले घर का दरवाजा पूजती है.पंचदेव स्मरण करके उनका प्रतीक ऐपन की थाप से स्थापित किया जाता है.

कहीं-कहीं दरवाजे पर पानी या सरसों का तेल भी गिराया जाता है.नवरात्र में देवी के नाम से कलश में जल भरकर लौंग का जोड़ा और पान के पत्ते डालकर घर के दरवाजे पर दाएं बाएं कुमारिकाएं ढरकौना देती हैं.इसी तरह विवाह के बाद,संतान को जन्म देने के बाद या अष्टमी को देवी पूजन करके आयी हुई औरतें दरवाजे पर ऐपन सिंदूर से पूजा जरूर करती हैं.

दरवाजे पर मीनाकारी की जगमग करती हुई बंदनवार,केले के स्तंभ या मंगलघट इस बात की सूचना देते हैं कि इस घर में अभी-अभी जल्दी ही विवाह,मुंडन या यज्ञोपवीत जैसा कोई शुभ काम हुआ है.विवाह में जब घर के भीतर लोक आलेखन में एक कक्ष में मैहर देवी की स्थापना करके ‘कोहबर’ बनाया जाता है तो देवी के द्वारपाल दरवाजे पर उसी समय एक विशेष आलेखन में अंकित किये जाते हैं.

आम के पल्लवों का बंधा हुआ तोरण द्वार घर में हुए किसी धार्मिक आयोजन,पूजन या हवन आदि का संकेत करता है.दरवाजे के कोने पर टंगी हुई अमलतास की पत्तियां, दीपावली के त्यौहार का समाचार देती हैं.दरवाजे के पास रखा हुआ गोबरधन और चिराग घर में हुई अन्नकूट की पूजा का विवरण प्रस्तुत करता है.रक्षाबंधन पर्व की सूचना द्वार पर दोनों तरफ लिखे गए राम-राम के आलेख से भी मिलती है.पर्वतीय अंचल में द्वार पर सजे फूल और बंगाल में दरवाजे पर सजी अल्पना, पर्व की पहचान है.दक्षिण भारत में हर दिन दरवाजे पर रंगोली डालने की परंपरा है.

शुभ घड़ी शुभ मुहूर्त देखकर दरवाजा बड़े विधान के साथ रखा जाता है.इसके लिए पंडित बुलाए जाते हैं जिनके द्वारा पीली पोटली में चावल,हल्दी,सुपारी और लोहे का छल्ला बांधकर चौखट को आमंत्रित किया जाता है,राजमिस्त्री उसे यथास्थान लगते हैं.इसे देहरी रखना भी कहते हैं.इसका आशय यही है कि ये घर और द्वार घरवालों को शुभ हो.

दरवाजे को लेकर और भी मधुर भावना घरवालों के मन से जुड़ी रहती हैं.विवाहित बेटियों में मायके के मोह की बहुत कुछ संवेदनाएं बाबुल की देहरी से जनम भर जुड़ी रहती हैं.सबसे गले मिलकर नव विवाहिता अपने गंतव्य की ओर बढ़ती हैं.विवाह के लाल जोड़े में पिता के घर से निकलने वाली ये भी जानती हैं कि उसके और उस घर के द्वार के बीच अब कितने फासले हो गए हैं...........

अंगना तो परबत भयो
देहरी भई बिदेस
ले बाबुल घर आपना मैं चली पिया के देस.....  

Thursday, March 13, 2014

होली : अतीत से वर्तमान तक











मानव के सांस्कृतिक उन्नयन का इतिहास संभवतः कृषि के विकास का इतिहास है.आखेट की खोज में भटकते हुए मानव को धरती की भरण क्षमता का ज्ञान ही उसके सांस्कृतिक अभ्युदय का प्रथम सोपान है.यही कारण है कि भारतीय त्यौहार कृषि तथा ऋतुओं से संबंधित रहे हैं.

यद्यपि दुःख,शोक एवं रोदन हमारे जीवन का स्पर्श अवश्य करते हैं फिर भी लय-ताल पर थिरकते उसके आनंद को वे विगलित नहीं कर पाते.गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने फागुनी सूर्य की आभा को प्रियालिंगन मधु-माधुर्य स्पर्श बताते हुए कहा है,”सहस्त्र मधु मादक स्पर्शी से आलिंगित कर रही सूरज की इन रश्मियों ने फागुन के इस बसंत प्रातः को सुगन्धित स्वर्ण में आह्लादित कर दिया है.यह देश हंसते-हंसाते मुस्कुराते चेहरों का देश है.”

होली मुक्त स्वच्छंद हास-परिहास का पर्व है.यह सम्पूर्ण भारत का मंगलोत्सव है.फागुन शुक्ल पूर्णिमा को आर्य लोग जौ की बालियों की आहुति यज्ञ में देकर अग्निहोत्र का आरंभ करते हैं,कर्मकांड में इसे ‘यवग्रयण’ यज्ञ का नाम दिया गया है.बसंत में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है.इसलिए होली के पर्व को ‘गवंतराम्भ’ भी कहा गया है.

क अत्यंत प्रसिद्द पौराणिक गाथा हिरणकश्यप द्वारा प्रह्लाद को होलिका में जलाने से संबंधित है.रत्नावली में हर्ष ने कौशाम्बी में रचित फाग का वर्णन इस प्रकार किया है---बसंतोत्सव के अनुरूप वस्त्र धारण किये हुए राजा से विदूषक कहता है कि मकरदोद्धान में मदनोत्सव की शोभा देखिए महाराज ! उन्मादोरत कामिनियाँ अपने कोमल हाथों से नागरिकों पर पिचकारी से कैसे रंग डाल रही हैं.पुरुष ढप-ढोल बजाकर नाच रहे हैं.अबीर गुलाल से दसों दिशाएं रंगीन हो गई हैं.

रत्नावली में वारविलासिनियों द्वारा भी फाग खेलने का अद्भुत वर्णन है.भागवत-पुराण में पिचकारियों की सुंदरता का वर्णन है.सींग के आकार की बनी होने के कारण उन्हें ‘श्रंगक’ कहा गया है.रघुवंश में रमणियाँ राजा कुश पर स्वर्ण की पिचकारी से रंग खेलते हुए संदर्भित हैं.

महाकवि वाणभट्ट ने कादंबरी में राजा तारापीड़ के फाग खेलने का अनूठा वर्णन किया है.भवभूति के मालतीमाधव नाटक में पुरवासी मदनोत्सव मनाते हैं.यहाँ एक स्थल पर नायक माधव सुलोचनामालतीके गुलाबी कपोलों पर लगे कुमकुम के फ़ैल जाने से बने सौंदर्य पर मुग्ध हो जाता है.राजशेखर ने अपनी काव्य-मीमांसा में मदनोत्सव पर झूला झूलने का भी उल्लेख किया है.

मुगलकाल में भी होली की खूब धूम रही.अकबर का रनिवास होली के अवसर पर रंग और गुलाल से भरा जाता था.रानियाँ तथा दासियाँ बादशाह अकबर को वहां बुलवाकर रंग से सराबोर कर देती थीं.जहाँगीर के शासन काल में होली खेलने का सविस्तार वर्णन ‘मुल्क-ए-जहाँगीर’ में हुआ है.अंतिम मुग़ल सम्राट बहदुर शाह जफ़र ने 1857 में होली का वर्णन करते हुए देश की स्थिति भी बतायी है......

हिन्द में कैसो फाग,मची जोरा-जोरी
फूल तख़्त हिन्द बना केसर की सी क्यारी
कैसे फूटे भाग हमारे लुट गयी दुनियां सारी
गोलन तें गुलाल बनायो,तोपन की पिचकारी

अवध,मगध,मध्य-प्रदेश,राजस्थान,मैसूर,गढ़वाल,कुमायूं,ब्रज सभी क्षेत्रों में होली की अत्यंत उल्लास औत उमंग देखने को मिलती है.ब्रज में इसे होली नहीं होराकहते हैं.बरसाना की लट्ठमार होली और दाऊजी का हुरंगा जनमानस पर अनूठी छाप छोड़ते हैं.

होली का यह पावन पर्व भारतीय संस्कृति में अनादिकाल से परस्पर संगठन का संदेश देता हुआ जीवन में उल्लास एवं उमंग भरता रहा है.

Thursday, March 6, 2014

पंचतंत्र बनाम ईसप की कथाएँ













'पंचतंत्र' एवं ईसप की कहानियां बच्चों में बहुत लोकप्रिय हैं.इनके अनेक भाग प्रकाशित होते रहे हैं.इसके अलावा बाल पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से पंचतंत्र एवं ईसप की नीति कथाएँ प्रकाशित होती रही हैं. 

विश्व के कथा साहित्य के उद्भव एवं विकास में नीति कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.हेरोडोटस,हिकेतियस जैसे ग्रीक लेखकों की रचनाओं में ऐसे स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध हो जाता है कि भारतीय नीति कथाएँ छठी शती ईसवी पूर्व तक यूनान पहुँच चुकी थीं.वहीँ से ये कालांतर में यूरोप के अन्य देशों में विभिन्न अनुवादों के माध्यम से पहुँचती रहीं.

‘नीति कथा’ का नाम लेते ही दो व्यक्ति एकाएक उभर कर सामने आते हैं- ईसप तथा विष्णु शर्मा.ईसप के ‘फेब्लस ऑफ़ ईसप’ तथा विष्णु शर्मा रचित ‘पंचतंत्र’ सहज ही साकार हो उठते हैं.भले ही ईशप तथा विष्णु शर्मा दो व्यक्ति रहे हों,परन्तु उनके ग्रंथ एक ही व्यक्ति की रचना लगते हैं.दोनों ग्रंथों में एक सी कहानियां,एक से भाव,एक-से पात्र निश्चय ही एक विवादस्पद परन्तु रोचक स्थिति को जन्म देते हैं.

ईसप का जन्म कब और कहाँ हुआ,इस सन्दर्भ में प्रमाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता.कतिपय विद्वानों के अनुसार तो ईसप यूनानियों की उपज मात्र है.प्रसिद्द ग्रीक इतिहासकार हेरोडोटस की रचना ‘हिस्ट्रीज’ में निश्चय ही कुछ संकेत मिलते हैं.

हेरोडोटस के अनुसार ईसप एक कहानीकार था.वह छठी शती ई.पू. में हुआ.इतिहासकार ने कोई तिथि या स्थान नहीं दिया है.इसके बाद जेनोफोन,प्लेटो,अरस्तू,जैसे ग्रीक लेखकों की रचनाओं में भी ईसप का नाम मिलता है,लेकिन ऐसा कोई प्रमाण किसी भी लेखक के ग्रंथ में नहीं मिलता जिससे प्रमाणिक हो सके कि ईसप ने जो भी कथाएँ लिखी हैं, उनमें से कोई भी कथा उसने स्वयं लिपिबद्ध की हो या फिर उसके किसी समकालीन व्यक्ति ने ही ऐसा किया हो.ऐसी स्थिति में किसी भी कथा का नाम ईसप से जोड़ा जा सकता है.

यह भी उल्लेखनीय है कि ईसप खास यूनान का रहने वाला नहीं था अपितु,उसका जन्म स्थल एशिया-माइनर माना जाता है.यूनान में उसकी स्थिति दास की थी.उसकी मृत्यु के बारे में भी अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं.कहते हैं कि ईसप ने किसी मंदिर से एक सोने का कप चुरा लिया था.लोगों ने इसी अपराध के लिए उसे मार डाला.कुछ विद्वान इस गलत बताते हैं.उनके अनुसार शत्रुओं ने ही उसके सामान में सोने का कप स्वयं छिपाकर उस पर दोषारोपण करके उसे दंडित किया था.

ईसप का जीवन-चरित्र भले ही प्रमाणित न हो,परन्तु उसका नाम ‘नीति-कथा’ से सदा ही जुड़ा रहेगा.उसे शक्ल-सूरत से भद्दा,ठिगने कद का तथा बुद्धि-कौशल में अपूर्व बताया जाता है.यूनान में ईसप की टक्कर का कोई नाम सुनने में नहीं आता था.अतः कोई भी कथा कहीं से,किसी से भी चलती,वह अंततः ईसप की हो जाती.

ईसप की कथाओं का प्रथम संकलन ई. पूर्व 300 में एथेंस में दमित्रियस द्वारा रचित बताया जाता है.यह संकलन आज उपलब्ध नहीं है.न ही परवर्ती काल में इस का कोई अनुवाद किसी अन्य भाषा में मिलता है.ऐसी स्थिति में दमित्रियस द्वारा संकलित किय जाने की बात भी अनुमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है.

लैटिन में फैड्रस द्वारा रचित या संकलित कथाकृति ‘फेबुला’ को प्राचीनतम उपलब्ध कृति माना जाता है.इसमें फैड्रस ने कतिपय अपनी रचनाओं को भी ईसप के नाम पर संकलित कर दिया था.फैड्रस ने त्रिपदी छंद का प्रयोग किया है.ग्रीक भाषा में उपलब्ध प्राचीनतम संकलन बैब्रियस का है,जिसका रचना काल दूसरी शताब्दी है.ऐसा विश्वास करना तर्कसंगत प्रतीत होता है कि बैब्रियस का आधार फैड्रस की रचना रही होगी.फिर बैब्रियस के आधार पर रोम निवासी एवियेनस ने लैटिन में इन कथाओं को कविताबद्ध किया.पांचवीं शदाब्दी में फ्रेंच अनुवादों के माध्यम से अन्य यूरोपीय देशों में प्रचलित हो गए.आज तो विश्व की शायद ही ऐसी कोई भाषा हो,जिसमें ईसप की कथाएँ न प्रकाशित हुई हों.

अत्यंत प्राचीन काल से ही भारतीय साहित्य में नीति-शास्त्र की शिक्षा देने के लिए पशु-कथाओं का प्रयोग किया जाता रहा है.नीति-कथाओं का प्राम्भिक स्वरूप हमें ‘छान्द्ग्योपनिषद’ में मिलता है.आवागमन के सिद्धांत में भारतीय विश्वास ने इस प्रकार की पशु-कथाओं के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया होगा.जातक कथाओं में स्वयं बुद्ध विभिन्न प्रकार के पशुओं के रूप में प्रकट होते हैं.जातक कथाओं का समय ईसवी - पूर्व पांचवीं शताब्दी माना जाता है.

‘पंचतंत्र’ एवं ‘हितोपदेश’ दो विश्वविख्यात भारतीय कथा ग्रंथ हैं,जिनमें पशु-पक्षियों की कथाओं के माध्यम से नीति-शास्त्र की शिक्षा दी गई है.डॉ. हर्टेल ने ‘पंचतंत्र’ का रचना-स्थल कश्मीर को तथा रचना – काल ईसवी पूर्व 200 माना है.’पंचतंत्र’ की विश्व-यात्रा अत्यंत रोचक है.इसकी अनेक समानांतर कथाएँ किंचित स्थानीय परिवर्तनों के साथ ईसप की कहानियों में मिलती हैं.

ये कहानियां बौद्ध-प्रचारकों,यात्रियों,आक्रमणकारियों,जिप्सियों आदि के माध्यम से समय-समय पर विभिन्न देशों में पहुंचती रहीं.तदनंतर अनुवादों के अनुवादों की परंपरा चल पड़ी.फारस के बादशाह अनुशेरवां के आदेश पर शाही हकीम बुर्जोए ने ‘पंचतंत्र’ का पहलवी भाषा में अनुवाद किया.इसके बाद अनुवादों का सिलसिला चल पड़ा.

‘पंचतंत्र’ एवं ‘फेब्लस ऑफ़ ईसप’ में अनेक समान कथाएँ मिलती हैं,जिनके तुलनात्मक विश्लेषण एवं अध्ययन से स्पष्ट निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकते हैं.इसी तरह की एक समान कथा ‘करालकेसर’ नामक शेर एवं ‘धूसरक’ नामक गीदड़ एवं ‘लम्बवर्ण’ नामक गधा की है. पंचतंत्र की इस कथा की सामानांतर कथा ‘फेब्लस ऑफ़ ईसप’ में ज्यों की त्यों मिलती है.अंतर केवल इतना है कि शेर का सेवक यहाँ गीदड़ न होकर लोमड़ी है.

इस कहानी का शेर भी लोमड़ी से अनुरोध करता है कि वह उसके लिए मृग को फांसकर लाए.लोमड़ी मृग को शेर का उत्तराधिकारी नियुक्त किये जाने की बात कह उसे फुसलाकर ले जाती है.पहली बार वह पंचतंत्र के गधे की भांति पंजा पड़ते ही भाग निकलता है,परन्तु दूसरी बार मारा जाता है.लोमड़ी मृग का दिल खा जाती है और शेर क्रुद्ध होता है.लोमड़ी प्रत्युत्तर में ऐसा कहकर शेर को शांत करती है कि “मृग का तो दिल था ही नहीं.क्योंकि उसके दिल होता तो वह मृत्यु-जाल में फंसता ही क्यों?"

पंचतंत्र की कहानी ईसप की कथा से घटनाओं,पात्रों,भाव,वातावरण आदि के चित्रण की दृष्टि से अधिक मनोवैज्ञानिक तथा अधिक स्वाभाविक एवं प्रभावशाली जान पड़ती है.इसी प्रकार दोनों में समान रूप से मिलने वाली कथाओं के अध्ययन एवं विश्लेषण से सामान्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं.

‘पंचतंत्र’ की कथाएँ ईसप की तथाकथित नीति-कथाओं से प्राचीनतर एवं पूर्ववर्ती सिद्ध होती है.पंचतंत्र की एक मूल कथा योजना है.ईसप की कथाएँ स्वतंत्र हैं.ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि विभिन्न लेखकों ने अपनी स्वतंत्र कथाओं को भी सहज ही ईसप की कथाओं में डाल दिया होगा.पंचतंत्र के संबंध में ऐसा जान नहीं पड़ता.

दोनों ग्रंथों में उपदेशात्मकता की प्रवृति तो समान रूप से मिलती है,परन्तु पंचतंत्र में कथा मुख्य एवं स्वाभाविक रूप से चलती है तथा उपदेश कथा में से निःसृत होता है,जबकि ईसप की कथाओं में प्रधानता उपदेशात्मक-सूत्र की रहती है,तथा कथा गौण हो जाती है.भारत में नीति-कथाओं के अनेक संग्रह मिलते हैं,जबकि ग्रीक भाषा में ईसप का एक ही कथा-संग्रह है.

निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ईसप की कथाएँ पंचतंत्र से प्रेरित,प्रभावित एवं उसी पर आधारित हैं.वास्तव में विष्णु शर्मा का पंचतंत्र ही ईसप की कहानियां हैं.

Saturday, March 1, 2014

आ गए मेहमां हमारे


उर्दू में कहावत है कि वह गृहस्थ धन्य है जिसके दस्तरख्वान पर कोई अतिथि भोजन ग्रहण करता है क्योंकि परमपिता परमात्मा उस गृहस्थ के ऊपर अनुग्रह कर उसे एक अतिथि की सेवा करने का अवसर प्रदान करते हैं.परन्तु आज के युग में अतिथि-सत्कार को लेकर कभी-कभी बड़ी कटु आलोचना होती है.अतिथि सत्कार के प्रति जो शाश्वत भावना होनी चाहिए उसके विपरीत ही होता है.समाज में भी लोग अतिथि को बहुत ऊँची दृष्टि से देखने को तैयार नहीं हैं,इसका कारण समझा जाता है आज की अर्थव्यवस्था को.वास्तव में इस मनोवृत्ति का कारण आज की अर्थव्यवस्था नहीं वरन आज के सोचने और जीने का ढंग है.

आज की व्यस्ततम एवं अर्थ प्रधान जिंदगी में लोगों के पास अपने परिवार के सदस्यों के लिए ही वक्त नहीं होता तो अतिथियों के सत्कार की बात ही अलग है.शहरों की जुदा जीवन शैली,पति-पत्नी की व्यस्ततम जीवन चर्या एवं सीमित आवास के कारण अतिथियों के आगमन पर कई नई 
समस्याओं को जन्म दे जाती है.

आज मनुष्य दिखावे का आदि बन गया है.हर बात में दिखावा,हर बात में आडंबर.यदि दिखावे और आडंबर को हम अतिथि सत्कार से निकल दें तो अतिथि सत्कार हमारा एक कर्तव्य बन जाए.हम यह क्यों भूलें किसी न किसी दिन सभी को अतिथि होना पड़ता है.

अतिथि-स्वागत दावते-शीराजी से करें.एक बार शीराज के निवासी का एक नबाब के यहाँ बड़ी उच्च कोटि का आतिथ्य हुआ.वह हमेशा ‘दावते शीराजी’ ही याद करता रहा.पूछने पर पता चला कि शीराज की दावत.किसी विशेष प्रकार की दावत नहीं थी.वहां की दावतों में अतिथि के साथ घर के अन्य सदस्यों की तरह से व्यवहार होता था और जैसा खाना-पीना रोज घर के लोग करते वैसा ही मेहमान को भी खिलाते थे.इस तरह मेहमाननवाजी करने वाले को किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं होती,मेहमान को भी संकोच नहीं होता था.कौन नहीं जानता कि भगवान राम का तो भीलनी ने अपने जूठे बेरों से ही स्वागत किया था.

हितोपदेश में तो यहाँ तक कहा गया है कि आपके पास कुछ भी न हो तो मीठा बोलकर ही अतिथि-सत्कार करें.यदि आप सच्चाईपूर्वक अतिथि के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं तो अतिथि आपकी सीमाओं को समझ सकेगा तथा आपके प्रति उसमें कोई अविश्वास की भावना नहीं जागेगी.

इमर्सन कहा करते थे कि अतिथि-सत्कार से इंकार करना सबसे बड़ी दरिद्रता है.आतिथ्य के उच्च कोटि का आदर्श कबीर की जीवनी से भी मिलता है.

जयशंकर प्रसाद के अतिथि का रूप तो विलक्षण ही है.वह बिना कोई पूर्व सूचना दिये ही आ जाता है  और उनके ह्रदय–रुपी सूने घर को बसा देता है........

ह्रदय गुफा थी शून्य रहा घर सूना
इसे बसाऊँ शीघ्र बढ़ा मन दूना
अतिथि आ गया एक नहीं पहचाना
हुए नहीं पद शब्द न मैंने जाना

विनोबा भावे का कहना है कि अतिथि आपको एक अवसर प्रदान करते हैं कि आप उनकी सेवा कर सकें.उन्होंने कहा है कि अगर किसी को भूख-प्यास न लगे तो आपको अतिथि-सत्कार का अवसर ही कैसे प्राप्त होगा? अथर्ववेद के अनुसार तो आप अतिथि सत्कार द्वारा अपने पापों का प्रायश्चित भी कर सकते हैं.

अतिथि वास्तव में वह है जो बिना किसी तिथि या सूचना दिये या पहले से बिना किसी जानकारी के आपके पास आ जाए.महामना पंडित मदन मोहन मालवीय तो कभी-कभी अतिथि के कारण अपना आवश्यक ‘अपॉइंटमेंट’ भी छोड़ देते थे.उनका कहना था कि यह काम ईश्वर ने पहले करने के लिए भेजा है,इस कारण पहले इसको पूरा करूंगा,बाद में दूसरा.उन्हें अतिथि को खाली हाथ लौटाने में बड़ा कष्ट होता था.

कहते है कि नामदेव की कुटिया में सड़क वाला आ जाए तो उसे अतिथि मानते थे.बाइबिल ने तो प्राणी-मात्र को परमात्मा का अतिथि स्वीकार किया है.बाइबिल के अनुसार परमपिता परमेश्वर अपने अतिथियों की सारी इच्छाएं पूर्ण करता है.बाइबिल के शब्दों में यही संकेत है.जब ईश्वर स्वयं अतिथि-सत्कार करता है,तब मानव इस पुनीत कार्य में क्यों पीछे रहे.

वास्तव में मानव की शारीरिक भूख-प्यास के साथ-साथ एक मानसिक भूख भी है जो केवल एक दूसरे के व्यवहार से ही तृप्त हो सकती है.पश्चिमी देशों से लौटे हुए कई लोगों का वर्णन है कि जैसा व्यवहार उन्हें वहां मिला उसे कभी नहीं भुला सकते.

गोस्वामी तुलसीदास ने आतिथ्य स्वीकार करनेवालों को कुछ चेतावनी भी दी है.उनका कहना है कि जिसके यहाँ आप जा रहे हैं उसके नेत्रों में आपके लिए प्यार भरी दृष्टि न हो तो वहां पर चाहे सम्पूर्ण प्रकार की सुविधाएं क्यों न हों,वहां जाना श्रेयस्कर नहीं है.उन्होंने कहा है........

आवत हिय हरषे नहिं, नयनन नाहीं सनेह
तुलसी तहां न जाइए कांचन बरसे मेह |