Thursday, August 28, 2014

कि मैं झूठ बोलिया

मिथ्याभाषी या झूठा कहलाना कोई पसंद नहीं करता,पर वास्तविकता यह है कि हम-सभी दिन में शायद,एक बार नहीं,कई बार झूठ बोलते हैं.एक विशेषज्ञ की राय है,’एक औसत व्यक्ति वर्ष में लगभग एक हजार बार झूठ बोलता है.’एक अन्य विशेषज्ञ की राय इससे कुछ भिन्न है.उनका कहना है कि ‘एक वयस्क व्यक्ति दिन में दो सौ बार और वर्ष में लगभग तिहत्तर हजार बार झूठ बोलता है.’

एक अन्य विशेषज्ञ फरमाते हैं कि स्त्रियों और पुरुषों में झूठ बोलने की दर में अंतर है,पर सबसे अधिक झूठ बोलने की दौड़ में राजनीतिज्ञ हमेशा सबसे आगे रहते हैं.वे हमेशा झूठे वायदे किया करते हैं.इसके बाद सेल्समैनों,और अभिनेताओं की बारी आती है.कभी-कभी डॉक्टरों को भी रोगी का मन रखने के लिए झूठ बोलना पड़ता है.

कम झूठ बोलने वालों में वैज्ञानिकों,स्थापत्यकारों और इंजीनियरों को शुमार किया गया है,क्योंकि वे जानते हैं कि उनके मिथ्याभाषण को आसानी से पकड़ा जा सकता है.

न्यूयार्क के एक मनोवैज्ञानिक डॉ. रॉबर्ट गोल्डस्टिन का कहना है कि झूठ बोलना हमेशा बुरा नहीं होता.आप झूठ भी बोल सकते हैं और भले भी बने रह सकते हैं.कारण,अक्सर आम आदमी हानि न पहुंचानेवाली झूठी बातें ही किया करता है.डॉ. गोल्डस्टीन ने ऐसे झूठ को ‘सफ़ेद झूठ’ कहा है.वह उदहारण देते हुए कहते हैं,मान लीजिए,कोई पति अपनी पत्नी से कहता है,तुम बेहद सुंदर लग रही हो’.अब हो सकता है वह जानता हो कि उसकी पत्नी कतई सुंदर नहीं है.फिर भी वह ऐसा झूठ,सफ़ेद झूठ कहता है.अब ऐसे झूठ से किसी को क्या नुकसान.

डॉ. गोल्डस्टिन ऐसे झूठ को ‘रचनात्मक झूठ की संज्ञा देते हैं.ऐसा रचनात्मक झूठ औरों को प्रसन्न करता है.दक्षिणी केलिफोर्निया के मनोविज्ञान के प्रोफ़ेसर गेराल्ड जेलीसन ने झूठ को लेकर एक सर्वेक्षण किया था.सर्वेक्षण में पता चला कि एक वयस्क व्यक्ति दिन में दो सौ बार झूठ बोलता है.
डॉ. जेलीसन के अनुसार ये झूठ अक्सर बहाने ही होते हैं और व्यक्ति उन्हें अपने आप तत्काल गढ़ लेते हैं.इसी सर्वेक्षण में पता चला कि यदि कोई पुरुष तीन बार ‘सफ़ेद झूठ’ बोलता है तो महिला चार बार !

सर्वेक्षण के दौरान यह भी पता चला कि पुरुषों के बनिस्पत महिलाएं ज्यादा अच्छी तरह झूठ बोल लेती हैं.उनके झूठ ज्यादा सत्य और विश्वसनीय लगते हैं.जब कोई व्यक्ति झूठ बोलता है तो अनायास ही उसके व्यवहार में कुछ अंतर आ जाता है.जैसे-गला रुंध जाना,आवाज बदल जाना,दिल की गति का बढ़ जाना,रक्तचाप बढ़ जाना और शायद पसीना भी आने लगे.

लेकिन क्या किसी व्यक्ति को झूठ बोलते पहचाना जा सकता है? विशेषज्ञों ने कुछ नुस्खे सुझाए हैं....
*झूठ बोलने वाला व्यक्ति झूठ बोलते वक्त अक्सर अपने मुंह को या गर्दन को छूता है.
*झूठ बोलते वक्त वह अक्सर हिचकिचाता भी है.
*कभी - कभी वह अनावश्यक रूप से मुस्कुराने लगता है.(ऐसी मुस्कराहट से बचने की जरूरत है.)
*कभी - कभी झूठ बोलते वक्त व्यक्ति का गला रुंध जाता है.
*झूठ बोलने वाले व्यक्ति अक्सर आँखें मिलाकर बात नहीं करते.यदि कोई आँखें ‘चुराए’ तो सावधानी की जरूरत है.
*यदि कोई व्यक्ति बातें करते वक्त बेवजह कंधे उचकाता है, तो सावधान हो जाएं.हो सकता है अपने ही झूठ से वह परेशान हो रहा हो.
*झूठ बोलते वक्त व्यक्ति अनजाने में आपसे परे हट जाता है.
*झूठ बोलते वक्त आवाज भी जरा तेज हो जाती है.कुछ लोग एक झूठ को कई बार दोहराते हैं,शायद हिटलर के प्रचारक गोयबल्स के इस कथन पर विश्वास कर कि एक झूठ को यदि सौ बार बोला जाय तो वह सच हो जाता है.

यों झूठ बोलने वाले व्यक्ति अपने चेहरे पर काबू रखते हैं,पर उनके शरीर की अन्य हरकतें उनकी कलई खोल जाती हैं.

क्या झूठ बोलना पाप है,अपराध है? यह स्थितियों पर निर्भर करता है.संस्कृत में सत्य के बारे में एक श्लोक है – ‘सत्यं ब्रूयात,प्रियं ब्रूयात,मा ब्रूयात सत्यं अप्रियम्.
अर्थात् सत्य बोलिए.प्रिय बोलिए.अप्रिय सत्य न बोलिए.

Thursday, August 21, 2014

बदलता तकनीक और हम









तकनीक कितनी जल्दी बदल जाते हैं,और कितनी जल्दी हम नई तकनीक से सामंजस्य बिठा लेते हैं,इसका आभास हम सब को अक्सर होता रहा है.कई पुरानी तकनीकों पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि इसका हमारी जिंदगी में कितना अहम् स्थान था.

ऑडियो कैसेट ने संगीत को कितना सुगम बनाया था.कितनी ही ग़ज़लें और फ़नकारों को हम सब ने इसी कैसेट के माध्यम से सुना था.राज कुमार रिजवी-इन्द्राणी रिजवी,राजेंद्र मेहता-नीना मेहता,जगजीत सिंह-चित्रा सिंह,भूपेन्द्र-मिताली मुखर्जी,अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन,पीनाज मसानी,चन्दन दास,सतीश बब्बर  जैसे गजल नवीसों को पहली मर्तबा इन्हीं कैसेटों के माध्यम से तो सुना था.धीरे-धीरे ये कब हमारी जिंदगी से दूर होते गए और एम.पी.3 ने जगह बना ली,पता ही नहीं चला.किफ़ायती और एक सौ से दो सौ गानों का संग्रह एक ही डिस्क में, काफी सुविधाजनक  होता है न.अब तो शायद दुकानों में भी ये कैसेट न मिलते हों.

कई सालों से ढेर सारे ऑडियो कैसेट एक कार्टून में बंद पड़े हैं.पिछले दिनों ऑडियो कैसेट वाले कार्टून को खोला तो 200 के करीब कैसेट मिले और कुछ तो नायाब.कितने शौक से कलकत्ते से इम्पोर्टेड वी. सी. पी. प्लेयर मंगवाया था,कस्टम ड्यूटी पेड करके,उन दिनों.कितनी ही पुरानी फिल्मों को इसी से देख डाला था.पर अब,पिछले दस सालों से आलमीरा के एक कोने में छिपा पड़ा है.कई बार सोचा,कोई एक्सचेंज ऑफर निकल जाए तो बदल डालें,पर कुछ हुआ नहीं.सी. डी. और डी.वी.डी. प्लेयर ने इसे कब रिप्लेस कर दिया पता ही नहीं चला.अब तो इससे भी उन्नत तकनीक ब्लू रे डिस्क प्लेयर आ गया है.

इन दोनों का बखूबी काम अब लैपटॉप और डेस्कटॉप कर रहा है.डी. टी. एच के आने के बाद अब तो डी.वी.डी. प्लेयर का भी महत्व कम हो गया है.चौबीसों घंटे चलने वाले मनोरंजन और फ़िल्मी चैनलों के सामने यह फीका ही लगता है. 

डी. टी. एच का कंसेप्ट जब नया ही था,तभी इसे लगवाया था.कोई आठ हजार रूपये खर्च करने पड़े.ऑपरेटर भी सिर्फ एक डिश टी.वी. और चैनल भी सिर्फ एक ही ग्रुप के.धीरे-धीरे कई ऑपरेटर आए और यह सस्ता होता गया,ढेर सारे चैनलों के साथ.अब तो रिकॉर्डिंग सहित कई सुविधाएं मिल रही हैं.

कीपैड वाले मोबाइल से सामंजस्य बैठा ही था कि टचस्क्रीन वाले मोबाइल आ गए.वी.डी.ओ रिकॉर्डिंग वाले मोबाइल फोन का जो क्रेज उन दिनों नोकिया 6600 जैसे फोन का था,वही क्रेज अब बड़ी स्क्रीन वाले स्मार्टफोन के प्रति है.फिल्म लोड कर तस्वीर लेने वाले कैमरे की बात ही अलग थी.फिल्म लगाने और समेटकर निकलने वाले की क्या पूछ थी.फिर फिल्म को धुलवाना,प्रिंट लाकर सबों को दिखाना,कई दशक पुरानी बात लगती है.डिजिटल कैमरे की तकनीक ने काफी कुछ पीछे छोड़ दिया है.

कई ऐसी तकनीकें हैं जो कब हमारी जिंदगी का हिस्सा बनते गए,कहा नहीं जा सकता.कोई एक दशक पहले पानी को फ़िल्टर कर पीने का परंपरागत तरीका एक्वा और आर. ओ. में परिणत हो गया है.अब तो एक दिन भी इस तरह के मशीन के खराब हो जाने पर पानी गले नहीं उतरता.
तकनीक के सरल और सुविधाजनक होने के साथ ज्यों–ज्यों हम इसके अभ्यस्त होते जाते हैं,वैसे ही हमारा मानसिक तनाव भी बढ़ता जाता है.                        

Thursday, August 14, 2014

एक खिड़की शहर में खुलती है

हर शहर की अपनी कुछ अलग विशेषता है.मुंबई जैसे महानगर की भी अपनी ही चाल है.जीवन में ठहराव नहीं है.शायद, गति ही जीवन है,को इसने आत्मसात कर लिया है.अगर शोर की बात की जाय तो शोर का यहाँ अलग ही संगीत है जिससे राबता रखना सबके के वश का नहीं.

कई बार मुंबई आने पर एक ही समस्या से दो चार होना पड़ा है – वह है शोर.कमरे में फाईबर वाली स्लाइडिंग खिड़कियाँ हैं,जिसे खुला रखने पर गाड़ियों के शोर से रात भर नींद नहीं आती.हालांकि मुख्य सड़क से हटकर चंद कदमों की दूरी पर यह बिल्डिंग है.लेकिन सामने की सड़क पर भी रात भर गाड़ियों का शोर रहता है.अपने शहर में तो खिड़कियाँ खोलकर सोने की आदत है,क्योंकि बंद कमरे में दम घुटने लगता है,लेकिन यहाँ शोर का आतंक है.

बुनी पास्तरनाक की पंक्तियाँ याद आती हैं........

हवा में समुद्र की गंध
और धूप चढ़ रही है
कमरे की सीढ़ियों पर,धीमे-धीमे
रोशनदान रंगों में खुलते हैं !

लेकिन महानगरों के कमरों में रोशनदान कहां मिलते हैं.पुराने शहरों और गांवों में बने पहले के बने मकानों में अभी भी रोशनदान या वेंटिलेटर दिखाई दे जाते हैं.यहाँ सर्दियों में बंद दरवाजों और खिड़कियों के बावजूद सुबह-सुबह रोशनदान से झांकती सूर्य की सतरंगी किरणें उल्लासित कर जाती हैं.लेकिन अब बनने वाले मकानों से रोशनदान गायब हो गए हैं.

गांव में रोशनदान पर बैठी कोई गोरैया जैसी छोटी चिड़िया यदा-कदा ध्यान आकृष्ट कर लेती थी,पर अब  तो गांवों में भी बनने वाले मकानों में फैब्रिकेटेड अल्युमिनियम की खिड़कियाँ लग रही हैं.एक बार खिड़कियाँ बंद हो जाएं तो न तो धूप और न हवा के आने की गुंजाइश.बंद कमरों में पकते ख्याली पुलाव की गंध भी पड़ोसियों को नहीं लगती.पहले आस-पास सटे घरों में बनने वाली सब्जियों के छौंक से अंदाजा हो जाता था कि पड़ोस में क्या पक रहा है.

पर,अब निजता और गोपनीयता की बात होती है.अपने घर के दूसरे कमरे में होने वाली घटनाओं का अंदाजा नहीं होता.बदलते सामाजिक परिवेश में बहुत कुछ रीत गया है.अपने-पराये का भेद ज्यादा बड़ा हो गया है.मतभेद और मनभेद में बहुत बारीक़ सी रेखा है.अक्सर इनमें भेद का पता नहीं चलता.संबंधों के छीज जाने का सरलता से अंदाजा लगाया जा सकता है क्या?

रोशनदान,धूप और हवा के आपसी संबंध क्या कुछ नहीं कह जाते हैं?

Thursday, August 7, 2014

आमि अपराजिता.....

किसी लेखक ने ठीक ही कहा है कि हम सभी दुनियां के रंगमंच पर अपनी भूमिका ही तो निभा रहे होते हैं,किसी की भूमिका अल्प तो किसी की दीर्घ होती है.

विश्वभारती में मेरा यह दूसरा साल था.ग्रीष्मावकाश में जर्मन की कक्षाओं के लिए मुझे भारतीय विद्या भवन की तरफ से भेजा गया था.शौकिया तौर पर जर्मन भाषा में किया स्नातकोत्तर डिप्लोमा मुझे विश्वभारती की ओर ले जाएगा,यह सोचा न था.अमूमन गर्मी की छुट्टियों में कैम्पस खाली हो जाता था और वही छात्र-छात्राएं यहाँ रुकते थे जिन्हें अवकाशकालीन कोई कोर्स करना होता था.पूरे एक महीने का शिड्यूल था मेरा.पहले ही दिन कक्षा से बाहर निकलकर सीढ़ियों के पास खड़ा था कि एक लड़की मेरी तरफ भागती हुई आती दिखाई दी. मैं डर गया था कि कहीं वह सीढ़ियों से नीचे न गिर पड़े.

आमि अपराजिता... अपराजिता भट्टाचार्य.आप आज तो नोट्स अपनी कक्षा में ही भूल आए.ये लीजिए. धन्यवाद ! मैंने कहा.तुम क्या जर्मन की कक्षा में हो ? मैंने तुम्हें देखा नहीं. हाँ, मैं पीछे की बेंच पर थी.उसमें कुछ बात थी जो मैं उससे बातचीत करने से अपने आप को नहीं रोक पाया.अच्छा ! तुम मुझे यहाँ के बारे में कुछ बता सकती हो ? विस्तार से विश्वभारती के अलग-अलग स्कूलों,छात्रावास आदि के बारे में उसी से पता चला था.

बातें करते-करते हम मौलश्री और हरसिंगार के घने पेड़ों की तरफ आ गए थे.तुम कुछ बांग्ला वाक्यों के बोलने में मेरी मदद कर सकती हो? उसने हामी भर ली और उसके सहयोग से कुछेक बांग्ला वाक्य भी बोलने लगा था.तुम रबींद्र संगीत कई साल से गाती आ रही हो शायद.उस दिन प्रेयर के बाद तुम्हें सुना था.हाँ,स्कूल के दिनों से ही,कुछ दोस्तों से सीखी हूँ,कुछ रेडियो सुनकर.

अच्छा, तो कुछ मतलब भी पता है.हाँ, पता क्यों नहीं है.क्या मेरी डायरी में कुछ पंक्तियाँ लिखकर दे सकती हो?. उसने बांग्ला में कुछ पंक्तियाँ लिखीं.मैं तो बांग्ला जानता ही नहीं,अच्छा रोमन में लिख देती हूँ.उसने रोमन में लिखी रबीन्द्र संगीत की कुछ पंक्तियाँ......

मोने रोबे किना रोबे आमारे
से आमार मोने नइ मोने नइ
खोने खोने असि तोबे दुआरे
ओकारोने गान गाइ !

इस तरह बातों का सिलसिला चल पड़ा था.उसे आश्चर्य हुआ था कि मेरी बांग्ला साहित्य में भी रुचि थी.अपराजिता शायद बंगाल के उत्तरी परगना के छोटे से गाँव से आई थी और यहाँ विश्वभारती में स्नातक उत्तीर्ण हो चुकी थी.उसी ने बताया था कि उसके माँ-बाबा बचपन में ही गुजर गए थे और मातृ-पितृवंचिका को उसके मामा,मामी ने बड़े जतन से अपने संतान की भांति पाला था.मामा शिक्षक के पद से रिटायर हो चुके थे और गाँव में छोटे बच्चों को पढ़ाते थे.यहाँ से जाने के बाद वह भी किसी स्कूल में नौकरी करेगी और बच्चों को पढ़ायेगी.उसके इस सपने के पूरा होने में कोई बाधा नहीं दिखती थी.

कक्षा के समाप्त होते ही हरसिंगार के पेड़ों के नीचे कुछ देर बैठना और उससे बातें करना काफी अच्छा लगता था.एक दिन उन्हीं पेड़ों के नीचे बैठा ही था कि हरसिंगार के कुछ फूल गिरे.उसने झट से दो फूल चुनकर आँचल में बांध लिए.मैंने पुछा,यह क्या ? उसने कहा,इससे मन्नत पूरी होती है. अच्छा ! तुम्हारी कौन सी मन्नत है.ये बताया थोड़े न जाता है,उसने धीरे से कहा.

मेरी बांग्ला साहित्य में रूचि है,यह जानकर उसने पूछा था,अब तक किन लेखकों को पढ़ा है,ज्यादा तो नहीं,कुछ अनुवाद पढ़े हैं,विमल मित्र,समरेश बसु और मेरे पसंदीदा,बुद्धदेव बसु.उनकी कुछ पंक्तियाँ मुझे बहुत पसंद हैं.अच्छा....कौन सी पंक्तियाँ?

छोटटो घर खानी
मने की पड़े सुरंगमा
मने की पड़े, मने की पड़े
जालानाय नील आकाश झड़े
सारा दिन रात हावाय झड़े
सागर दोला .............
(उस छोटे से कमरे की याद है सुरंगमा ?
बोलो,क्या अब कभी उस कमरे की याद आती है ?
जहाँ कि खिड़की से नीलाकाश
बरसता कमरे में रेंग आता था
सारे दिन-रात तूफ़ान
समुद्र झकझोर जाता था)

गेस्ट हाउस के कमरे में अकेला रहता था,बूढ़े गांगुली काका देखभाल करने के लिए थे.सुबह-सुबह जब बरामदे में अख़बार पढ़ रहा होता तो अपराजिता फूलों का दोना लिए हुए आती,दोना मेरे हाथ में पकड़ाकर कमरे के अंदर जाती और किताबों को करीने से सजाकर,धूल झाड़कर बाहर आती,मेरे हाथ से फूलों का दोना लेते हुए गांगुली काका से रोष भरे स्वर में कहती-देख रही हूँ,आज कल तुम ठीक से सफाई नहीं करते.उसका यह रोज का क्रम था.

मैं गांगुली काका से फुसफुसाकर कहता,लगता है यह पिछले जन्म में मेरी माँ रही होगी और गांगुली काका हो हो कर हंसने लगते.किसी सुबह दिखाई नहीं देती तो गांगुली काका से पूछता – आज ! अम्मा दिखाई नहीं दे रही.जरूर वह पूजा के लिए माला बना रही होगी.गांगुली काका इधर-उधर देखकर कहते.

समय कितनी जल्दी बीत जाता है,आज पता चला.आज आखिरी कक्षा से बाहर आते हुए मन कुछ उदास है.सीढ़ियों पर अन्यमनस्क सा खड़ा हूँ,तभी अपराजिता आती हुई दिखाई देती है.आते ही मेरी हथेली में एक डिबियानुमा आकृति पकड़ा देती है.खोलकर देखता हूँ तो उसके इष्टदेव रामकृष्ण परमहंस की एक छोटी सी मूर्ति है.हमेशा अपने कमरे में रखना,मैं सिर हिलाता हूँ. नौकरी करने पर रबीन्द्र संगीत की एक किताब उपहार में दूँगी,धीरे से कहती है,अपराजिता.

कल वापस लौटने की तैयारी करनी है.छात्र-छात्राओं के दिये उपहार को कार्यालय कक्ष में ही छोड़ दिया है.अपराजिता भी दो दिन बाद वापस चली जाएगी,उसके मामा आएंगे लेने.क्या पता,अब कभी अपराजिता से भेंट हो पाए या नहीं.

विश्वभारती से भारी मन से वापस लौटा हूँ.अब वहां जाने में रुचि नहीं रह गई है.दो वर्ष बीत चुके हैं.इन दो वर्षों में फिर विश्वभारती नहीं गया.लगा कुछ पीछे छूट गया है.अपराजिता तो अब कलकत्ते के किसी स्कूल में बच्चों को पढ़ा रही होगी.लाईब्रेरियन घोष बाबू की दो चिठ्ठी आ चुकी है,इस बार नहीं आएँगे क्या? छात्रों को क्या जबाब दूं.

कितनी देर से खिड़की के पास खड़ा हूँ.काले बादलों का एक टुकड़ा इस ओर आकर लौट गया है,आकाश में लालिमा गहरा गई है.सोचता हूँ,हरसिंगार के फूल अब भी झरते होंगे,पर इन्हें अपने आँचल में समेटने के लिए कोई न होगा.कमरे के बाहर से कोई आवाज दे रहा है,बाहर निकलता हूँ तो पोस्टमैन तार लिए खड़ा है.विश्वभारती से घोष बाबू का तार है.कल सुबह तक आ सकेंगे. बहुत अर्जेंट है.मन किसी अनहोनी से घिर उठता है.रात के दस बजे ट्रेन है,सुबह तक विश्वभारती पहुँच जाऊँगा.

अहले सुबह विश्वभारती के गेस्ट हाउस के कमरे में पहुँचता हूँ तो गांगुली काका बरामदे पर मिल जाते हैं.कमरे के अंदर जाने पर देखता हूँ एक बुजुर्ग दीवाल की ओट लिए आराम कुर्सी पर लेटे हैं.मुझे देखते ही खड़े हो जाते हैं और एक झोला मेरी ओर बढ़ा देते हैं.गांगुली काका धीरे से कहते हैं,जिता(अपराजिता) के मामा हैं.जिता नहीं रही.सहसा विश्वास नहीं होता.मामा ने बताया,बारह दिन पूर्व स्कूल के बच्चों को पिकनिक पर ले जाने के क्रम में उसके स्कूली बस की  सामने से एक ट्रक से टक्कर हो गई.आगे की सीट पर बैठी अपराजिता और दो बच्चे गंभीर अवस्था में जीवन और मौत से दो दिनों तक जूझने के बाद चल बसे.

अपराजिता के पास यही झोला था जिसमें एक किताब और डायरी थी,इस पर आपका नाम लिखा था,इसलिए ले आया.किताब के पन्ने पलटता हूँ तो रबीन्द्र संगीत की किताब दिखाई पड़ती है,शायद मुझे उपहार में देने के लिए उसने रखी होंगी.डायरी के पहले पृष्ठ पर ही बुद्धदेव बसु की वही पंक्तियाँ लिखी हुई हैं,जिसे कभी मैंने सुनाया था.......
छोटटो घर खानी
मने की पड़े सुरंगमा
मने की पड़े, मने की पड़े