Friday, May 22, 2015

वह रहस्यमयी फ़क़ीर

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लोदी गार्डन में सिकंदर लोदी का मकबरा 

कहते हैं कि अपने इल्म,रूप,सौंदर्य पर कभी इतराना नहीं चाहिए,यही कभी आपकी मुसीबत का वाइस बन सकता है.इतिहास के अनेक पन्ने इस तरह की गाथाओं से भरे पड़े हैं.दिल्ली के 90 एकड़ में फैले लोदी गार्डन में मोहम्मद शाह का मकबरा,शीश गुंबद और बड़ा गुंबद है जिसे आर्कियोलोजिकल सोसायटी ऑफ़ इंडिया द्वारा संरक्षित किया गया है.इसी में एक अजीम सुल्तान का मकबरा है जो अपने अप्रतिम सौंदर्य के लिए विख्यात था.

सुल्तान सिकंदर लोदी अपने अद्वितीय सौंदर्य के लिए बहुत प्रसिद्ध था.जो भी उसे देखता,उसके रूप पर मुग्ध हो जाता.उन्हीं दिनों एक फ़क़ीर शेख हसन भी अपनी मस्ती में घूमा करता.वह प्रसिद्ध फ़क़ीर अबुलाला का पोता था.अबुलाला एक पहुंचा हुआ पीर था.उसकी मजार पर हर धर्म के लोग मन्नत मांगने आया करते थे.

एक दिन अचानक शेख हसन ने सिकंदर लोदी को देख लिया.उस दिन के बाद से हर समय शेख हसन सिकंदर लोदी की याद में खोया रहता.खुदा को याद करने के बदले वह हर समय सिकंदर लोदी को याद करता  और सुल्तान का प्रारंभिक नाम निजाम खां बार-बार दोहराता.

एक बार शेख हसन निजाम खां से मिलने चल ही पड़ा.पहरेदारों ने शेख हसन को बहुत अदब के साथ रास्ता दे दिया.सर्दियों के दिन थे.सुल्तान अपने निजी कमरे में बैठा हुआ था.वह सुल्तान को अपलक निहारने लगा,अचानक सुल्तान की नजर उस पर पड़ी.

सुल्तान ने हैरानी से पुछा,’कौन हो तुम? इतने पहरेदारों के रहते तुम यहां कैसे पहुंच गए?’

फ़क़ीर बोला’मैं तुम्हारा आशिक हूं.तुम्हारी खूबसूरती देखने आ गया हूं.’ अच्छा ! तो तुम मुझसे इश्क करते हो ?’  सुलतान ने क्रूरता से पूछा.

‘हां मैं तुमसे इश्क करता हूं और खुद को रोक नहीं पाया हूं.’

‘तो थोड़ा आगे आ जाओ.’

फ़क़ीर के आगे आते ही सुल्तान ने उसके सिर पर हाथ रख उसके सिर को पास सुलगती हुई अंगीठी पर झुकाकर टिका दिया.इतने में वहां एक अमीर मुबारक खां लोहानी आ गया.उसने शेख हसन को पहचान लिया और सुल्तान से बोला, ”आपको खुदा का डर नहीं है क्या? इतने पवित्र आदमी से ऐसा व्यवहार कर रहे हैं.’

सुल्तान क्रूरता से बोला,’यह अपने आपको मेरा आशिक कहता है.’ मुबारक खान बोला,’फिर तो आपको अपनी खुशकिस्मती समझना चाहिए कि ऐसा पवित्र आदमी तुम्हें खूबसूरत मानता है.अब उठाओ इसका सर आग से.’

शेख हसन का चेहरा देखते ही सभी लोग आश्चर्य चकित रह गए.आग की लपटों ने उसके चेहरों या बालों पर कुछ भी असर नहीं किया था.

सुल्तान को अब भी चैन नहीं आया था.उसने शेख हसन को जंजीरों में जकड़ कर तहखाने में डलवा दिया.एक हफ्ते बाद सुल्तान को खबर मिली कि फ़क़ीर तो बाजार में नाच रहा है.सुल्तान ने स्वयं इस बात की जांच की.जब कुछ भी समझ नहीं आया तो उसने शेख हसन को बुलवाया और पूछा कि तुम काल कोठरी से बाहर कैसे निकल गए?

शेख हसन बोला,मुझे मेरे दादा की रूह कैदखाने से बाहर निकाल लायी.इसके बाद सुलतान ने शेख हसन का बहुत सम्मान किया और अल्लाह का शुक्र अदा किया कि उससे ज्यादा गलत काम नहीं हुआ.

सिकंदर लोदी ने अंत तक दाढ़ी नहीं रखी.दरअसल उसकी दाढ़ी उगती ही नहीं थी.एक बार हाजी अब्दुल बहाब ने सिकंदर लोदी से दाढ़ी नहीं रखने की वजह पूछा.सुल्तान ने वजह बताया तो पहुंचे हुए फ़क़ीर हाजी ने कहा,लाओ अपना चेहरा.मेरे हाथ घुमाते ही तुम्हारे चेहरे पर इतनी अच्छी दाढ़ी उग आएगी कि सारी दुनियां की दाढ़ियां तुम्हें सलाम ठोकेंगी.

सिकंदर लोदी तिलमिला कर रह गया.हाजी के जाते ही उसने हाजी के बारे में काफी अपमानजनक शब्द कहे.किसी ने यह बात हाजी तक पहुंचा दी.हाजी ने सिकंदर लोदी को श्राप दिया,उसके मेरे प्रति अपमानजनक शब्द अपने ही गले में चिपक जाएंगे.

और सचमुच उसी दिन से सिकंदर लोदी को गले का रोग हो गया.उसका अंत भी इसी रोग से हुआ. 

Thursday, May 14, 2015

एक मंदिर ऐसा भी

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महाभारत का सबसे उपेक्षित,लांछित और बदनाम पात्र दुर्योधन है.उसे खलनायक कहा गया है.किंतु सत्य तो यही है कि महाभारत की संपूर्ण कथा के केंद्र में जितना वह है,उतना कोई अन्य पात्र नहीं.यदि उसे कथा से निकाल दिया जाय तो महाभारत का आधार ही नष्ट हो जाता है.

हमारे काव्यशास्त्र की ही नहीं,मानव स्वभाव की यही प्रवृत्ति है कि स्तुति-गान विजेता का हो,पराजित का नहीं.और फिर विजेता को नायक बनाकर धीरोदात्तता के जितने काव्यशास्त्रीय लक्षण हैं,वे उस पर आरोपित कर दिए जाएं.वरना ‘यतो धर्मस्ततो जयः’ के स्थान पर संसार की गति तो यही है कि जहां जय है वहीँ धर्म है.इसी न्याय के अनुसार पांडवों को धर्म का पक्षधर और कौरवों को अधर्म का पक्षधर माना जाता है.

दुर्योधन का अर्थ है – बड़ा कठिन योद्धा.’दुः’ उपसर्ग का इसी अर्थ में प्रयोग दुर्गम,दुर्लभ,दुरारोह आदि शब्दों में होता है.महाभारत में दुर्योधन की भूमिका और उसके कृत्य के कारण वह हिकारत का पात्र ही रहा है.उसकी पूजा- स्थली के बारे में सोचना भी आश्चर्यजनक लगता है.

लेकिन हमारे देश में एक ऐसा भी स्थान है जहां पर महाभारत के खल-पुरुष दुर्योधन का मंदिर है.वहां उसकी भगवान के रूप में बड़ी भक्ति-भाव से पूजा भी की जाती है.महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के करजत तहसील के अंतर्गत दुरगांव एक छोटा सा गांव है.इसी गांव के एक छोर पर एक मंदिर है,जिसे दुर्योधन भगवान का मंदिर कहा जाता है.इस क्षेत्र के लोगों की भगवान दुर्योधन के प्रति अटूट आस्था है.उनका विश्वास है कि वे उनकी मनोकामनाएं बहुत ही जल्दी पूर्ण करते हैं.

प्रत्येक सात वर्ष के बाद आने वाले अधिक मास में यहां पर बहुत बड़ा मेला लगता है.संपूर्ण भारत में दुर्योधन की मूर्ति वाला यह एकमात्र मंदिर है.दुरगांव का पत्थरों द्वारा निर्मित यह मंदिर एक चबूतरे पर बना हुआ है.इस मंदिर की रचना हेमाड़पंथी मंदिरों के समान है.मंदिर के गर्भगृह में दो शिवलिंग हैं.एक शिवलिंग का आकर गोलाकार है तथा दूसरा शिवलिंग चौकोना है.

मंदिर के ऊपरवाले भाग में दुर्योधन की बैठी हुई अवस्था में मूर्ति विराजमान है.पत्थर की बनी यह मूर्ति दो फुट ऊँची है और इस मूर्ति पर चूना पुता हुआ है तथा वह तैल रंगों से रंगी हुई है.मूर्ति का मुंह पूर्व दक्षिण दिशा की ओर है तथा प्रवेश द्वार पूर्व की ओर है.इसका शिखर काफी ऊँचा है.अनुमान है कि इस मंदिर का निर्माण तेरहवीं शताब्दी में हुआ होगा.लेकिन यह मंदिर किसने बनवाया तथा क्यों बनवाया,इस बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है.

आमतौर पर देवी-देवताओं के मंदिरों के प्रवेश द्वार रात्रि में ही बंद रहते हैं,लेकिन इस मंदिर की परंपरा ही कुछ अलग है.इसका प्रवेश-द्वार बरसात के पूरे चार माह तक बंद रहता है.बरसात के प्रारंभ में ही यह प्रवेश-द्वार ईट-पत्थरों से बंद कर दिया जाता है और बरसात का मौसम समाप्त होने के बाद फिर से खोल दिया जाता है.इस तरह भगवान दुर्योधन चार माह कैद रहते हैं.

मंदिर के चार महीने इस प्रकार बंद रहने की परंपरा के बारे में मान्यता यह है कि युद्ध में पांडवों से पराजित होने के बाद दुर्योधन ने अपनी जान बचाने के लिए एक तालाब का आश्रय लिया था.लेकिन तालाब के जल ने दुर्योधन को आश्रय नहीं दिया.परिणामस्वरूप दुर्योधन को मजबूर होकर तालाब से बाहर आना पड़ा.तालाब के इस कृत्य पर दुर्योधन को बहुत गुस्सा आया,जो अभी तक नहीं उतरा है.जलवाहक बादलों को देखकर उन्हें आज भी क्रोध आ जाता है.उनकी क्रोधित आंखें देखकर जलवाहक बादल इस क्षेत्र में बिना बरसे ही भाग जाते हैं.दुर्योधन की दृष्टि इन बादलों पर न पड़े,इसलिए एक मंदिर का प्रवेश-द्वार बरसात के मौसम में बंद रखा जाता है,ताकि इस क्षेत्र में भरपूर वर्षा हो.

दुर्योधन का मंदिर यहां पर क्यूं बनवाया गया,जबकि ऐतिहासिक या पौराणिक दृष्टि से इस स्थान का दुर्योधन के साथ कोई संबंध नहीं है.यह भी कहा जाता है कि दुर्योधन ने इसी स्थान पर भगवान शंकर की आराधना की थी.भगवान शंकर ने दुर्योधन को जो वरदान दिया वह पार्वती को अच्छा नहीं लगा और वह अपने पति से रूठकर रासीन के जंगल में चली गयीं.आज भी वह इसी जंगल में यमाई देवी के नाम से विद्यमान हैं.

आगे चलकर दुर्योधन का पराभव हुआ और महाभारत के युद्ध में भीम के हाथों पूर्ण रूप से परास्त हुआ.उसने अपने अंतिम समय में भगवान शंकर का ध्यान किया.इसलिए भगवान ने दुर्योधन को अपने यहां शरण दी.यही कारण है कि भगवान शंकर के मंदिर में ही दुर्योधन को भी विराजमान किया गया.

यह भी कहा जाता है कि बिहार तथा उड़ीसा की कुछ जनजातियां दुर्योधन को भगवान मानती हैं.दुरगांव में किसी विशेष जाति के लोग भी नहीं रहते,मराठा तथा बंजारी जाति के लोग यहां पर रहते हैं,लेकिन इनमें दुर्योधन की पूजा प्रचलित नहीं है.

दुरगांव जैसे गांव में दुर्योधन का मंदिर पाया जाना तथा दुर्योधन को भगवान के रूप में स्वीकार करना अवश्य ही आश्चर्यजनक है.

Thursday, May 7, 2015

खींचता जाए है मुझे

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कई बार इंसान न चाहते हुए भी किसी ओर खिंचा चला जाता है. बकौल ग़ालिब के ..

खुदाया ! जज्बए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खींचता हूं और खिंचता जाए है मुझसे

बैठकबाजी के साथ भी यही बात है.आप जितना बैठकबाजी से दूर रहना चाहते हैं,यह उतनी ही तेजी से आपको अपनी ओर खींचती है.बैठकबाजी की महिमा अपरंपार है और जितने भी किस्म की बाजियां अपने देश में प्रचलित हैं,उन सबमें बैठकबाजी सर्वाधिक लोकप्रिय एवं श्रेष्ठ है.इसका अपना अलग ही आनंद है.

इस स्वर्गिक आनंद को वही समझ सकते हैं,जिन्होंने कभी इसका लुत्फ़ उठाया है.बाईबिल की भाषा में कहा जा सकता है – “वे धन्य हैं जिन्होंने बैठकबाजी की है.”और जिन्हें कभी बैठकबाजी का अवसर ही नसीब नहीं हुआ उनके लिए ‘तू क्या जाने वाइज कि तूने पी ही नहीं.’

अपने देश में बैठकबाजी की एक सुदीर्घ परंपरा है जो आदि काल से आज तक न केवल जीवित है,बल्कि निरंतर विकासशील है.बैठकबाजी वस्तुतः हमारी विरासत है,हमारी पहचान है.यह हमारी रग-रग में बसी है.औसत हिन्दुस्तानी स्वभाव से ही बैठकबाज होता है.जब तक वह दो-चार बैठकबाजी न कर ले उसका खाना नहीं पचता.

अपने देश का यह परम सौभाग्य है कि अपने यहां एक से एक इतिहास प्रसिद्ध बैठकबाज हुए हैं.आज भी देश में बैठकबाजों की कमी नहीं है.गांव की चौपालों से लेकर देश की संसद तक बैठकबाजों के एक से एक नायाब नमूने बिखरे पड़े हैं.कैसी भी समस्या हो,बैठकबाजी के बिना उसका कोई हल नहीं निकल सकता.बैठकबाजी हमारे सारे मुद्दों का इलाज है.

दुष्यंत कुमार सही फरमाते हैं.......

भूख है तो सब्र कर,रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल जेरे बहस,दिल्ली में है ये मुद्दआ

बैठकबाजी को विज्ञान माना जाय या कला इसके विषय में विद्वानों में मतभेद हैं.कुछ विद्वान इसे कला मानते हैं तो कुछ कला.इसके साथ ही एक वर्ग समन्यवादी विद्वानों का भी है जो इसे विज्ञान और कला दोनों मानते हैं.

बैठकबाजी की कई शैलियां हैं.इनमें सबसे महत्वपूर्ण है – बैठकबाजी की सरकारी शैली.इस शैली के  विकास में केंद्र और राज्य दोनों का बराबर का योगदान है.बैठकबाजी वस्तुतः सरकारी कार्यप्रणाली का एक अभिन्न अंग है.बिना बैठकों के सरकार का कोई काम आगे नहीं खिसकता.इसका दुहरा उपयोग है.काम को करने और न करने दोनों के लिए बैठकबाजी का इस्तेमाल किया जा सकता है.

किसी मामले को लटकाने का सबसे बेहतरीन तरीका है उसे किसी समिति या आयोग के सुपुर्द कर दिया जाय.बैठकों पर बैठकें होती रहेंगी और मामला हिन्दुस्तानी अदालतों में फंसे मुकदमों की तरह बरसों खिंचता रहेगा और जब तक फैसला होगा तब तक मुद्दई और मुद्दालेह दोनों ही न रहेंगे.यानि मर गया सांप और लाठी भी न टूटी.

बैठकबाजी के लिए प्रसिद्ध एक राष्ट्रीय आयोग को हाल ही में भंग किया गया जो अपने कार्यों से ज्यादा महंगे शौचालय के निर्माण के लिए चर्चित रहा.इसके स्थान पर सरकार ने बैठकबाजी का एक और अड्डा बना दिया.पढ़े-लिखे विशेषज्ञ जमात की भी तो कुछ जरूरतें होती हैं.इनका भी ध्यान रखना जरूरी होता है.

बैठकबाजी से एक स्वस्थ राष्ट्रीय दृष्टिकोण के विकास में भी मदद मिलती है.परिपाटी के अनुसार देश के किसी एक छोर पर स्थित कार्यालय की किसी समिति की बैठक देश के किसी दूसरे छोर पर आयोजित की जाती है और हर बार बैठक का केंद्र बदलता रहता है.इससे सामान्य सदस्यों को देश भ्रमण के या यों कहें देश-दर्शन के अवसर प्राप्त होते रहते हैं,जिससे क्षेत्रीयता जैसी संकीर्ण भावना के उन्मूलन में मदद मिलती है.अब तो इस दिशा में विदेश भ्रमण का नया क्षितिज खुला है.इससे निश्चय ही अंतर्राष्ट्रीय समझ और भाईचारे के विकास में मदद मिलेगी.

बैठकबाजी में विमान कंपनियों और पंचतारा होटलों को बिजनेस मिलता है जो नागर विमानन और होटल व्यवसाय के विकास में सहायक है.यहां भारतीय रेल को मिलने वाले कारोबार का उल्लेख इसलिए नहीं किया जा रहा क्योंकि बैठकबाजी के लिए रेल यात्रा का प्रतिशत विमान यात्रा की तुलना में नगण्य है.

बैठकबाजी प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय बढ़ाने में भी सहायक है.बैठकों में भाग लेने वालों के लिए आने-जाने,खाने-पीने,ठहरने आदि की व्यवस्था तो सरकारी खर्च पर होती ही है,आयकर मुक्त यात्रा भत्ता और काल्पनिक टैक्सी बिलों का भुगतान अलग से होता है.कुछ लोगों ने यात्रा बिल तैयार करने में अच्छी-खासी विशेषज्ञता हासिल कर ली है.

बैठकें सामान्य सदस्यों के पारिवारिक जीवन की दृष्टि से भी उपयोगी हैं.साहब के साथ मेम साहब और बाबा लोगों का भी भ्रमण हो जाता है यानि उनके लिए यह सरकारी पिकनिक होती है.जरूरी शॉपिंग भी हो जाती है और हवा-पानी भी बदल जाता है.बैठकों का इंतजाम भी मौसम देखकर किया जाता है.गर्मियों में होने वाली बैठकें हिल स्टेशनों पर रखी जाती हैं.वैसे इस काम में फ्यूचर प्लानिंग भी बहुत जरूरी है.

बैठकबाजी में आदान-प्रदान की भी काफी गुंजाइश है.आप हमें अपनी कमिटी में रख लें,हम आपको रख लेते हैं.इससे आपसी भाईचारा बढ़ता है.बैठकबाजी का सरकार के लिए एक और उपयोग यह है कि विपक्ष का या अपनी ही पार्टी का जो विधायक या सांसद ज्यादा ‘पिटिर-पिटिर’ करता हो उसे उठाकर डाल दो किसी किसी समिति या उपसमिति में.बच्चू अपने टूर और भत्ते में मगन हो जाएंगे और आप अपना काम निर्विघ्न चलाते रहेंगे.

कुछ लोग आजकल इसलिए ज्यादा आवाज उठाते हैं ताकि उन्हें किसी समिति में रख लिया जाय और कुछ तो इसी जुगाड़ में लगे रहते हैं कि कब और कैसे किसी समिति में अपना नाम फिट करवाया जाय.सो बैठकबाजी के फायदे ही फायदे हैं.यह भी ध्यान में रखना होगा कि बैठकों में किसी विषय या समस्या पर विशेषज्ञों की राय तो मिल ही जाती है और जो दूसरे लोग विशेषज्ञ नहीं भी होते हैं तो वे इन समितियों में शामिल होकर विशेषज्ञों की जमात में शामिल हो जाते हैं.इस प्रकार राष्ट्रव्यापी विशेषज्ञता का विस्तार और विकास होता है.

तो अगली बार जब आपको किसी समिति में शामिल होने का अवसर मिलता है तो इसके फायदे जरूर याद रखें.

Friday, May 1, 2015

सोप-ऑपेरा की दुनियां

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सोप-ऑपेरा  हमलोग का एक दृश्य 
भारत में ऑपेरा तमाशा,नाचा तथा पवाड़ा के रूप में सदियों से प्रचलित है.इस विधा में किसी नाटक या गाथा को गा-गाकर एवं अभिनय के साथ दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है.आज भी यह विधा उत्तर प्रदेश,महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश में खूब प्रचलित है.तत्कालीन प्रथा के परिप्रेक्ष्य में पांडवानी गायन भी इसका एक उदहारण है.हममें से अधिकांश ने तीजन बाई का नाम खूब सुना है और प्रत्यक्ष रूप से या टी.वी पर उन्हें लम्बे समय तक पांडवानी के रूप में महाभारत की कथा को एक नए अंदाज में प्रस्तुत करते और सराहे जाते देखा है.

एक अमेरिकी कंपनी ने अपने एक प्रोडक्ट,एक साबुन यानि सोप और पाउडर के प्रचार के लिए एक नाटकीय ढंग अपनाया और उसके विज्ञापन अमेरिकी टी.वी से प्रसारित किया.अमेरिका में उस समय महिलाएं दिन में घर में ही होती थीं.उसे देखने वाली महिलाएं इन विज्ञापनों से प्रभावित होतीं और इस कंपनी के प्रोडक्ट को घर-घर बेचा करती थीं.विज्ञापन का यह तरीका काफी सफल रहा.

इस सोप के प्रचार यानी सोप-ऑपेरा के दौरान अमेरिकी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्णधारों को कुछ नया करने को सूझा.चिकने संगीतमय प्रोडक्ट के विज्ञापन से प्रभावित होकर चिकने संगीतमय नाटक लिखे गए.कुछ ही वर्षों में अमेरिकी टी.वी द्वारा पंद्रह मिनट का धारावाहिक प्रसारित किया जाने लगा,और यह काफी लोकप्रिय हुआ.अमेरिका में औद्योगिक संस्कृति के पनपने के कारण लेखकों तथा कलाकारों के लिए विज्ञापनों के अलावा और कोई प्रगतिशील राह नहीं थी.फलतः वे लोग अमेरिका से पलायन करने लगे छठवें दशक के बाद औद्योगिक नीति में सुधार हुआ,जिससे लेखकों,पत्रकारों तथा कलाकारों को नया रचनात्मक कार्य मिलने लगा.

हले अमेरिका में सोप-ऑपेरा केवल महिलाओं तक सीमित था,किंतु अब यह पुरुषों के लिए भी काफी आकर्षक हो गया है.बंगाल में सत्यजीत रे ने ‘पाथेर-पांचाली’ में कुछ हद तक सोप-ऑपेरा का प्रयोग भी किया है.सत्यजित रे को ऑस्कर अवार्ड से भी नवाजा गया.

यदि हम अपने लोक-गाथाओं के कलाकारों पर विचार करें तो यह पता चलता है कि वे सोप-ऑपेरा शब्द को भी नहीं जानते,किन्तु वे उसकी अभिव्यक्ति लोकगाथाओं के माध्यम से गा-गाकर, नाचकर,नाटकीयता के साथ खूब अच्छी तरह से करते हैं.भारत में सोप-ऑपेरा का चलन सदियों पुराना है जो सुषुप्तावस्था में था और छठे-सातवें दशक में पुष्पित-पल्लवित होकर नए रूप में सामने आया है.

महाराष्ट्र में अक्षय तृतीया का त्यौहार बड़े तामझाम के साथ मनाया जाता है.इस त्यौहार में झूले डाले जाते हैं और महिलाएं झूला झूलते हुए कभी रोमांटिक,तो कभी ठिठोली भरे गीत गाती हैं.इसी तरह सावन में सारे भारत में झूले पड़ते हैं और प्रेम के रस से सराबोर गीत परवान चढ़ते है.आज औद्योगीकरण के कारण न तो शहरों में अक्षय तृतीया पर झूले पड़ते हैं और न सावन के महीने में.अक्षय तृतीया सिर्फ सोने-चांदी की खरीददारी तक सीमित होकर रह गयी है.

भारत में आधुनिक नाटकीय सोप-ऑपेरा लाने में तत्कालीन दूरदर्शन के वरिष्ठ अधिकारी मनोहर सिंह गिल का विशेष हाथ रहा है.अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने सोप-ऑपेरा से संबंधित जानकारी मनोहर श्याम जोशी को सौंपी थी.मनोहर श्याम जोशी को भारत में आधुनिक सोप-ऑपेरा का जनक माना जाता है. उनके लिखे हमलोग,बुनियाद तथा हमराही जैसे सफलतम सोप-ऑपेरा धारावाहिक रूप में दूरदर्शन से प्रसारित हुए और बेहद लोकप्रिय हुए.इनके कलाकार घर-घर में जाने-पहचाने हो गए और मोहल्ले,गली चौराहों पर इनकी चर्चा होने लगी.

सोप-ऑपेरा में वस्तुतः जीवन की सूक्ष्म भावनाओं का समावेश होता है.इसमें यथार्थ जीवन के सामाजिक परिवारों के सुख-दुःख की भाव प्रवणता,नाटकीय एवं अति-नाटकीयता  होती है.इसमें चिकनी चुपड़ी चापलूसी,प्रेमालाप को वास्तविकता का पुट दिया जाता है.जिस तरह सोप यानि साबुन में झाग होता है,उफ़ान होता है,चिकनाहट होती है.उसी तरह सोप-ऑपेरा में ऐसा ही सब कुछ होता है यानी वह रूपक है,चापलूसी,जी-हुजूरी,चिकनी-चुपड़ी बातों का.

जिन पारिवारिक रचनाओं में साबुन के झाग के सामान भावनाओं को उभारकर जो कड़ियां टी.वी द्वारा प्रसारित की जाती हैं,उसे सोप-ऑपेरा कह सकते हैं.ऑपेरा अर्थात संगीतमय नाटक,जिसमें वाद्य-यंत्रों के साथ दर्शकों के समक्ष नाटकीय प्रहसन का प्रस्तुतीकरण होता है.

सोप-ऑपेरा विधा में लेखक को काफी स्वतंत्रता मिल जाती है.पटकथा में वह अपने पात्रों का क्रिएशन विभिन्न रूप में कर सकता है.कोई भी नेगेटिव पात्र पॉजिटिव या हीरो पात्र की ओर लुढ़क सकता है.किस पात्र को प्राथमिकता दी जाए,उसके लिए भी पटकथा लेखक स्वतंत्र है. 

हंसना,रोना,झगड़ना,रूठना,मनाना आदि भावों को पात्रों में कूट-कूटकर भरा जा सकता है.यों कह सकते हैं कि सोप-ऑपेरा में थोड़ा रोना,थोड़ा हंसना,थोड़ी पारिवारिक     कलह,आदर्श,स्वार्थीपन,जोशिलापन,रसिकता,ताने और कुछ सस्पेंस भी होने चाहिए.

यह चौराहे पर लगे सार्वजानिक सूचना देने वाले होर्डिंग की तरह है जो चलते-फिरते लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है.