Thursday, March 26, 2015

बिन रस सब सून

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दुनियां में जिधर देखें,रस ही रस मिलता है.पृथ्वी के तीन चौथाई भाग में रस भरा हुआ है,शेष भाग में भी रस की कमी नहीं.सब तरफ रस की सरसता देखी जा सकती है.जल तो रस है ही काव्य के दस रसों के अलावा और भी अनेक रस होते हैं.आयुर्वेद में भी हेमगर्भ रस,अभृक रस,महामृत्युंजय रस आदि होते हैं.

रस लिया जाता है और दिया भी जाता है.हम सब लोग अच्छे काम,अच्छी बात में रस लेते हैं.विद्यापति की नायिका कहती है “कतमुख मोरि,अधर रस लेल”. भौरा अपनी जान की बाजी लगाकर भी रस पीता है.रसपान की तीव्रता ऐसी होती ही है –

“रसमति मालती पुनि पुनि देखि
पिबए वाह मधु जीव उपेरिव”

नायक,नायिका के मिलन रस में विद्यापति कल्पना कर लिखते हैं कि - नायक,नायिका के संयोग श्रृंगार में ‘औंधा चांद कमल का रसपान कर रहा है’.

रस आता है और रस जाता भी है.हम सब बातचीत में अक्सर कहते हैं कि उस व्यक्ति को बड़ा रस आता है या उसका रस चला गया.रस लगता है और जब किसी बात का रस लग जाता है तो बड़ा रस आता है.रस के बीच विघ्न आने पर रिस उत्पन्न होता है और रस चला जाता है.नयन तो रस से भरे ही रहते हैं,अतः कहा जाता है – “नैन सुधा रस पीजै.”

भौंरे रस के बड़े लोभी होते हैं और फूलों का रस चूसते हैं,रस पीते हैं,रस चुराते हैं.रस बरसता भी है.रस निकलता है और निकाला भी जाता है.कहते हैं कि शरद पूर्णिमा को रस बरसता है,इसलिए खीर से भरे बर्तन को खुले आकाश में रखा जाता है ताकि रस खीर में समा जाए. फलों का रस निकलता है और निकाला भी जाता है.आदमी का भी रस निकल जाता है,किसी का रस निचुड़ जाता है.किसी की आँखों में रस बरसता है,किसी की बातों में रस बरसता है.

सावन और फागुन में रस बरसता है.कवियों ने इस लिए कहा है......

रस बरसाता सावन आया,रस रंगराता फागुन आया

रस रिसता है और रस झरता है.बातों से और आँखों से रस झरता है.रस से भरे फल,रस से भरे यौवन,रसीले नेत्र,रसीले अधर रसीले नृत्य,रसीली अदाएं,रसीले छैल अच्छे लगते हैं.रस की फाग होती है तो आदमी विभोर हो जाता है......

“रंग सों माचि रही रस फाग
पूरी गलियां त्यों गुलाल उलीच में“

रस से अनेक शब्द बने हैं जो बड़े सरस हैं.रस से रसवंती बना है,जो नदी के लिए प्रयुक्त होता है.रस में परिपूर्ण होने से नारियों को भी रसवंती कहते हैं.रस से रसनिधि शब्द बना है जो समुद्र के लिए प्रयुक्त होता है –

“रसनिधि तरंगीन विराजति उगचि”.

रस रंग भी एक शब्द है.रस रंग में बड़ा आनंद आता है.खाद्य सामग्री को रसद कहते हैं.’रसभरा’ एक पौधा होता है जो ईख के खेत में होता है....

“बीच उखारी रस भरा,रस काहे न होय”

जो रस से परिपूर्ण हो उसे भी रसभरा या रसभरी कहते हैं.रस से भरी होने पर जीभ को रसना कहते हैं.’रस हाल’ का अर्थ प्रसन्न या सुखी होना है.रस से ही रसीन बना है जिसका अर्थ है आभा या चमक.रसाल आम को कहते हैं.रसौ या रसा का अर्थ पृथ्वी है.रसा से ही रसातल शब्द बना है.रसराज श्रृंगार रस को कहा जाता है.रसधार जल की धारा को कहा गया है.

गौरस का अर्थ दूध,दही आदि के लिए प्रयुक्त होता है.रामरस नमक कहलाता है जिसमे बिना सब रस नीरस लगते हैं.रस से भींगे,रस में पगे,रससिक्त या रसपगे कहलाते हैं.’पनरस’ लाल रंग का एक कपड़ा होता है जिससे विवाह में गठबंधन होता है.रसगुल्ले और रसमलाई में रस भरा होता है जिसे खाने में रस आता है.रस से ‘रसज्ञ’ बना है जिसका अर्थ है ज्ञाता.

रसविभोर होकर प्राचीन काल में देवतागण सोमरस पिया करते थे.गोपियाँ कृष्ण के रस में रसमग्न हो जाया करती थीं.रसिक जन ही रस का सच्चा आनंद ले पाते हैं.रस का संचार होता है और रस की अनुभूति होती है.

मंगल अवसरों पर रस से भरे कलश सजाए जाते हैं.स्नेह भी एक रस है.दीपक की ज्योति में भी रस होता है.कभी किसी काम में रस आता है तो कभी रस फीका होता है.अनुराग को भी रस कहते हैं.युवतियों के नेत्रों में श्रृंगार रस या प्रेम रस भरा होता है.....

रस श्रृंगार मज्जन किए,कंचन भंजन दैन
अंजन रंजन हूं बिना,खंजन गंजन नैन

रस से अनेक चीजें बनती हैं जिनका रसिकजन आनंद उठाते हैं.आम से आमरस,गन्ने के रस से रसखीर या रसिया,फलों के रस से अनेक द्रव्य बनते हैं.अंगूर के रस से द्राक्षासव,फूलों के रस से इत्र बनता है.फूलों का रस और रंग रंगाई के काम आता है.जिसमें रस हो उसे सरस और बिना रस की चीज को नीरस कहा जाता है.समीर रस से वृक्ष आच्छादित होते हैं.....

“पी पीकर समीर रस तट पर एक वृक्ष है झूल रहा”

रस सरसता भी है और रस में भी रस सरसता है.........

“हंसी करत में रस गए,रस में रस सरसाय”

जीवन में जब तक रस है तभी तक उल्लास,उमंग है.रसीले बोल बोलिए,रसीली मुस्कान बिखेरिये,रसीली चितवन से बचिए और जीवन की रस धारा में डूबते उतराते रहिए.

Thursday, March 19, 2015

शब्दों की तलवार

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आप बोलचाल में अक्सर किस तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं? अगर आप कम बोलते हैं तो नपा-तुला बोलते हैं.यदि आप बातूनी हैं तो शब्दों की तलवार भी चलाते रहते हैं.दरअसल बोलचाल में प्रयुक्त किये  जाने वाले शब्द आपके व्यक्तित्व को भी उजागर करते हैं.विभिन्न क्षेत्रों में बोलचाल का लहजा भी भिन्न-भिन्न होता है.

कई लोग शब्दों की तलवार चलाने में बड़े माहिर समझे जाते हैं.बात-बात में ही ऐसी बात कह देते हैं कि आप मन मसोसकर रह जाते हैं.उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप पर क्या बीत रही होती है.कहते भी न हैं कि उनकी जुबान कैंची की तरह चलती है.

कन्फ्यूशियस इस नतीजे पर पहुंचा है कि जो शब्दों की तलवार चलाने की आदत से लाचार हैं,उन्हें उसके घावों को सहने की क्षमता भी प्राप्त कर लेनी चाहिए,क्योंकि अक्सर उस तलवार से उनका ही अंगच्छेद होता है.अपनी ही शेखी से चोट खाए इंसान मूर्खतावश इन चोटों के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है.

श्रीमद्भागवत में इस प्रकार के व्यवहार पर प्रश्न है......

जिह्वां क्रचित्
संदशति स्वदविद्भः
तद्वेद्नाया कत
माय कुप्यते |

(अपने ही दांतों से अक्सर अपनी जीभ के काट लेने पर जो पीड़ा होती है,उसके लिए काटनेवाला आखिर किस पर क्रोध करेगा)

सत्ता का नशा जब सर पर चढ़कर बोलने लगता है तो शब्दों की तलवार अक्सर चलते देखे जाते हैं.राजनीतिज्ञ शब्दों की तलवार चलाने में बड़े माहिर होते हैं. हम प्रायः ही राजनीतिज्ञों को शब्दों की तलवार चलाते देखते सुनते रहते हैं- जब कोई राजनीतिज्ञ शब्दों की तलवार चलाते हुए कहता है कि हम केंद्र को घुटने टेकने पर मजबूर कर देंगे.

कवि फिरदौसी ने बड़े व्यंग्य से ऐसे लोगों के लिए लिखा है कि तलवारें म्यान से बाहर निकालना तो अनाड़ियों के लिए भी आसान है,किन्तु उन्हें शत्रु की गर्दन तक पहुंचाना मौत और जिंदगी के सारे फासले को तय करने की कुव्वत दिखलाना है.

खलील जिब्रान की एक बोध कथा शायद ऐसे ही लोगों के लिए है.......

पुराने नगर अंताकिया में आसी नाम की नदी अंताकिया नगर को दो भागों में बाँटती थी.राजा सरबाओ ने आसी नदी पर एक पुल बनाकर नगर के दोनों भागों को जोड़ दिया.जब पुल बनकर तैयार हुआ तो उस पर इस इबारत का एक शिलालेख भी लगा दिया गया कि – “यह पुल अंताकिया नरेश सरबाओ ने प्रजा की सुख-सुविधा के लिए बनवाया है.”

कई बरसों तक इस पुल पर मुसाफिर आते-जाते रहे.इस पुल के जरिये अन्ताकिया नगर के दिल ही नहीं एक हो गये बल्कि नगर का कारोबार भी काफी बढ़ गया.लोग मुक्तकंठ से राजा के दयालु ह्रदय की प्रशंसा करने लगे.

एक दिन एक अस्त-व्यस्त सा युवक इस पुल पर से गुजरा.शिलालेख को देखकर वह रुक गया.उसने इस शिलालेख को उखाड़कर फेंक दिया और उस स्थान पर लिख दिया – “इस पुल को बनाने में जो पत्थर इस्तेमाल किये गए हैं उन्हें पहाड़ों से खच्चर ढोकर लाये हैं.अतः इस पुल पर यात्रा करते समय आप अंताकिया शहर के उन खच्चरों की पीठ पर चलते हैं जो इस पुल के वास्तविक निर्माता हैं.”

पुल पर सफ़र करने वाले लोगों ने इस इबारत को पढ़ा तो कुछ को हंसी आ गयी,कुछ को इस दूर की सूझ पर आश्चर्य हुआ,कुछ और भी गहराई में गए,उन्हें दार्शनिकता का पुट मिला.कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने कहा – “यह किसी खफ्ती के दिमाग का फितूर है.उसके दिमाग के पेंच ढीले हो गाए हैं,नहीं तो इस प्रकार की बेवकूफी के क्या मतलब हैं?”

पुल पर चलनेवाले मुसाफिरों की बातों को एक दिन वहां छाया में विश्राम करने वाले खच्चरों ने भी सुना तो एक दूसरे की तरफ़ गर्व और तृप्ति का आदान-प्रदान करते हुए वे आपस में कहने लगे - “इस शिलालेख में तो ठीक ही लिखा है.इस पुल के पत्थर तो हम ही ढो-ढोकर लाये हैं.राजा ने तो हुक्म भर दिया था,पुल का निर्माण तो हमारे ही जीवट से हुआ है.मगर इस दुनियां की तो रीत ही निराली है.यहाँ मेहनत की महिमा कोई नहीं गाता,सत्ता की महिमा ही सब गाते हैं.मगर इससे क्या होता है? एक न एक दिन तो खच्चरों की पैरवी करने वाला भी कोई पैदा होता है - हमारे लिए यही बहुत है.”

तो अगली बार जब आप शब्दों की तलवार चलाएं तो यह भी ध्यान रखें यह आपको भी घायल कर सकता है.

Keywords खोजशब्द : Sword of Words,Confucius,Khalil Gibran

Friday, March 13, 2015

सीनोरिटा बड़े बड़े लोगों में...

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इधर हाल में मल्लिका मैम की फिल्म फिर से देखने को मिली.पिछले कई सालों से बॉलीवुड से गायब थीं.हॉलीवुड में काम के नाम पर अमेरिका में इधर-उधर घूमने के बाद दुबारा जब से फिल्मों में सक्रिय हुई तो  फिर से वही पुराना रोल. उस तरह के रोल करने वालों की अब एक नई पौध तैयार हो गई है इमरान हाशमी अब नई अभिनेत्रियों के साथ व्यस्त हो गए हैं.ले देकर अब ओमपुरी ही बचे हैं.

हिंदी फिल्मों का एक ट्रेंड बड़ा पुराना है.अभिनेता तो चिर जवां रहता है और 50-55 की उम्र होने पर भी फिल्मों में कॉलेज जाते हुए और रोमांस करते दिखता है जबकि अभिनेत्रियों को 30-35 पर पहुँचते ही चरित्र अभिनेत्रियों के रोल ऑफर होने लगते हैं.

कुछ साल पहले मल्लिका मैम(अरे! वही,अपनी मल्लिका सहरावत) ने बड़ा शिगूफ़ा छेड़ा था और किससिखाने का स्कूल खोलने वाली थी. बड़े जोर शोर से इसका प्रचार भी किया था.पता नहीं सीखने वाले नहीं मिले या इरादा बदल गया.भावी अभिनेता,अभिनेताओं को भी प्रशिक्षण मिल जाता तो अच्छा रहता ताकि फिल्मों में असहज महसूस नहीं करते.

वैसे ‘किस’ करने के मामले में भारतीय बड़े असहज महसूस करते हैं.इस तरह किस करते हैं,मानो सामने वाले को स्वाइन फ़्लू हो.इस संबंध में बराक ओबामा साहब से टिप्स लेना चाहिए था जो उस दिन हिंदी में कुछ बोलते बोलते रुक गए थे. शायद वे  कहना कहते थे सीनोरिटा बड़े बड़े लोगों में किस करने का अंदाज अलग होता है.ओबामा साहब भी किस के मामले में बड़े एक्सपर्ट हैं.इस तरह किस करते हैं मानो सामने वाले को सूंघ रहे हों कि कोई बीमारी-विमारी तो नहीं है.यकीं न हो टी.वी. देख लें.

मल्लिका जी का स्कूल चल जाता तो यह भी सीखने को मिलता कि किस-किस को किस करना है और कैसे करना है.चीन में किस के बहाने होठों के काट खाने की घटना हो चुकी है.सो इस विद्या का सोच समझ कर और देख- भाल कर प्रयोग किया जाना आवश्यक है.

कॉलेज के दिनों में तो हमने भी खूब फ्लाईंग किस के अभ्यास किये थे.हालत यह हो गई थी कि साँस लेने पर गले से सीटी की आवाज आती थी. पर होनी को कौन टाल सकता है.गलती से एक दिन फ्लाईंग किस अपनी सहपाठी की जगह मिस्ड कॉल की तरह साइकोलॉजी की मैडम घोष को जा लगी.उन्होंने बांग्ला मिश्रित हिन्दी में वो लंतरानियाँ भेजी कि वो दिन और आज का दिन, फिर कभी हथेली का धूल झाड़ने के लिए भी फूंक नहीं मारी.

वैसे इस ‘किस’ स्कूल से भारतीय अर्थव्यवस्था को बड़ा लाभ होने वाला था.टूथपेस्ट बनाने वालों की बिक्री बढ़ जाती.दन्त चिकित्सकों की गाड़ी दौड़ने लगती.आखिर सुन्दर मोतियों से दांत का सवाल है.

अपना देश वैसे भी पान,गुटखा,किस्म-किस्म के पान मसालों, तम्बाकू,बीड़ी,सिगरेट आदि के लिए कुख्यात है. ‘किस स्कूल चालू हो जाता तो ये सब खुद ब खुद बंद हो जाते. स्वास्थ्य विभाग को गुटखा,पान-मसालों, सिगरेट के पैकेटों पर भूत प्रेत के चित्र लगाने से छुटकारा मिल जाता.किस स्कूल के फायदे ही फायदे हैं.

मल्लिका मैम तो वैसे भी आजकल फ्री हैं. हॉलीवुड-बॉलीवुड का चक्कर छोड़कर यदि फिर से इसी में ध्यान लगाएं तो कुछ ही दिनों में फ़ोर्ब्स की सूची में अपना नाम लिखवा सकती हैं.अपनी भी यही इच्छा है कि इस स्कूल से प्रशिक्षण ले लें तो क्या पता एक और भींगे होठ तेरेका सृजन हो जाये.

सो अब तो सोते जागते सिर्फ यही गुनगुनाने का का मन करता है कि…….

हम भी हैं,तुम भी हो
दोनों हैं आमने सामने
किस तरह किसदें
कि बदल जाएं प्यार के मायने.

Keywords खोजशब्द :- Art of Kiss,Kiss School,Humor

Monday, March 9, 2015

जाते हुए वसंत का बौरायापन


वसंत तो हर साल इतराता,इठलाता हुआ आता है.पर कभी जाते हुए वसंत का बौरायापन देखा है.हालांकि पिछले कई साल से पेड़,पौधों की जड़ों की बात तो दूर,ठीक-ठाक उनके शरीर पर भी पानी नहीं बरसा है,फिर भी यह जा रहा है.हर साल की अपेक्षा इस साल इसके ठाठ कुछ कम ही रहे हैं.शायद सूखे के कारण ऐसा हो.

वैसे वसंत बड़ा मनमौजी होता है.यह सबके पास नहीं आता,सब पर नहीं आता.कई पेड़ तो वसंत में फूलों से लदे-फदे दिखते हैं और कई टुकुर-टुकुर ताकते रहते हैं.वसंत सर्र से आता है और फर्र से चला जाता है.कई पेड़ तो आने की खबर मात्र से ही इतराने लगते हैं.गली,घाट,चौराहों पर पत्ते उतार कर ठूंठ बनकर प्रतीक्षा करते रहते हैं.उनकी शाखें और टहनियां लचकदार हो जाती हैं.

वसंत उन्हें देखकर मुस्कुराता है और उनकी ओर एक-एक मुठ्ठी फूल फेंक देता है.आम सरीखे कुछ वृक्ष अवश्य हैं,जो पत्तों सहित स्वाभिमान पूर्वक अमराई में डटे रहते हैं.वे अपनी हरीतिमा में और सघन हो उठते हैं.वसंत उनकी फुनगियों से फूटकर स्वयं गौरव पाता है.अधिकांश पेड़ों की तरफ वसंत ताकता भी नहीं.इतना अवश्य है कि वसंत आने के पूर्व पतझड़ इनके पीले पत्तों को तोड़ डालता है.

वसंत का आगमन कौन अपने जीवन में नहीं चाहता.सारी वनस्पति सहज भाव से मुस्कुराना चाहती है.फूलों की कलगी धरकर पेड़-पौधे नाचना चाहते हैं.चीथड़ों को उतारकर वासंती-वसन पहनना चाहते हैं.आखों में कलियों का जागरण चाहते हैं.साँसों में सुमनों की महक चाहते हैं.शिशिर की जकड़न से निजात पाकर,अंग-अंग में वसंत की ताजगी चाहते हैं.गति में ठुमक और वाणी में खनक चाहते हैं. दूसरे मौसमों की सूद दर सूद चली आती मार से छुटकारा चाहते हैं.पत्थरों की संधि में फंसी अपनी जड़ों में गीलापन चाहते हैं.लाल मिटटी वाली धरती पर सदानीरा पहाड़ी नदी चाहते हैं.अपनी वानस्पतिक गंध से वसंत को मौलिक सहजता देना चाहते हैं.

परंतु दुनियां में सबको मनचाही स्थिति नहीं मिलती.कोई चांदी का चम्मच लेकर पैदा होता है तो कोई दोनों हाथ खोले खड़ा रहता है,रात-दिन हड्डी-पसली एक करता रहता है फिर भी मुठ्ठी भर वसंत नहीं मिलता.कुछ पौधे ख़ास जरूर होते हैं जो क्यारी के गुलाब बनकर फलते-फूलते रहते हैं.बाकी तो सब पलाश हैं.ज्यादातर वृक्षों को सख्त पत्थर,सूखी मिट्टी,नुकीले कंकड़ और रेतीली ढलान वाली जमीन ही मिलती है.वर्षा उन्हें नहला जाती हैं और गर्मी सुखा जाती है.

कुछ पेड़ वसंत के पहले ही कट जाते हैं.लोहे के कल-पुर्जों पर लदे-फ़दे गायब हो जाते हैं.कुछ लोगों के अलावों में जलकर उनकी जकड़न दूर करते हैं,उनका जाड़ा भगाते हैं.यह बात अलग है कि अपने ही खलिहानों या दलानों के के पेड़ काटने के लिए वन विभाग के कर्मचारियों की जेब गर्म करनी पड़ती है,तभी आप उस लकड़ी से गर्मी महसूस कर सकते हैं.

कुछ अलाव की आंच में आँखों की कोर के टूटते तटों को देखते हैं और धू-धूकर जलते हैं.खुद जलकर लोगों के भीतर की आग सोख लेते हैं.कुछ अपनी आग से दूसरों के भीतर भी आग पैदा कर देते हैं.कुछ को जीवन में वसंत आने के पहले ही दूसरी जगह बसाने,रोपने के आश्वासन के साथ उजाड़ दिया जाता है.कभी बांध बहाना लेकर,कभी उद्योग लगाने का तर्क देकर आदिम वनों की बस्तियों के भूगोल से निकाल दिया जाता है.ये पुराने अरण्य वसंत को बिना देखे ही चुपचाप मिट जाते हैं.

कई बार तो इतनी तेज आंधियां चलती हैं कि छोटे-छोटे नये किशोर पौधे उखड़ जाते हैं.डालियाँ टूट जाती हैं,तने ठूंठ हो जाते हैं.कोयल,मोर पपीहा तोता कटे पंख,घायल शरीर लिए सकते में आ जाते हैं.दूर- दूर तक बूढ़े झाड़-झंखाड़ दिखते हैं.तब फिर वसंत मुआयना करने निकलता है.बूढ़ा वृक्ष हाथ जोड़े खड़ा रहता है.वसंत उन अनुभवी बूढ़े वृक्षों को आस बंधाता है,हम तुम्हारी नयी फसल उगाएंगे.नयी फसल उगाने और ठूंठ बने शेष पेड़ों की देखरेख का जिम्मा ‘ग्रीष्म’ को सौंप कर वसंत ओझल हो जाता है.विवश किंतु पानीदार आंखें उड़ती धूल देखती रह जाती हैं.

वसंत की एक खासियत और भी है.यह कभी-कभी सहयोगी नायक बनकर प्रकृति के रंगमंच पर आता है.यह उसकी बड़ी खतरनाक किस्म की भूमिका होती है.कामदेव इसे सखा के रूप में पाकर धनी हो जाता है.वसंत कामदेव को कुसुम बाण सप्लाई करता है और मदन है कि उसका दुरूपयोग करता रहता है. आम्र,अशोक,अरविंद,नीलोत्पल और नवमल्लिका के पंचबाणों से लैस होकर ऐंठा-ऐंठा घूमता रहता है.विवश,परित्यक्त और विरही जनों को व्यग्र करने में ही अपनी क्षमताओं की इतिश्री समझता है.

‘कुमारसंभवम्’ में इंद्र से कामदेव बड़े गुमान से कहता है :

तव प्रसादात् कुसुमायुधो पि, सहायमेकं मधुमेव लब्ध्या
कुयौ हरस्यापि पिनाकपाणेः धैर्यच्युतिं के ममःधन्विनो न्ये |

(आपकी कृपा से कुसुमायुच्छ होने पर भी एक मात्र वसंत को पाकर पिनाक पाणि शिव के भी धैर्य को च्युत कर दूं)

शिव की छेड़खानी वसंत को लेकर कामदेव कर रहा है.परिणामतः कामदेव को भस्म होना पड़ा.कामदेव के अंत के साथ ही वसंत की छवि भी धूमिल हो गयी.कहने को तो वसंत के आगमन की प्रतीक्षा में हर छोटा-बड़ा पौधा लालयित रहता है.दस महीनों में दूसरी ऋतुओं का बखेड़ा इसलिए सहते हैं कि वसंत के आने पर कुछ दिन तो फूल खिलेंगे.साँसों की गंध,सुगंध बनेगी.मौन टूटेगा,आखों के तट सूखेंगे,उषा अंगड़ाई लेगी और निराला की चिर-परिचित आकाश में उंची उठी.......

‘रूखी री यह डाल,वसन वासंती लेगी’

पर जाते-जाते वसंत के बौराएपन का क्या कहिए कि जाते हुए भी शरीर में सिहरन और ठिठुरन दिये जा रहा है.

Keywords खोजशब्द : Farewell to Spring,Madness of spring

Thursday, March 5, 2015

मी कांता बाई देशमुख आहे

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अहले सुबह सोकर उठा ही था कि मोबाईल की घंटी बजनी शुरू हो गई.फोन उठाया ही था कि मेरी आवाज सुने बिना ही उधर से आवाज आने लगी,’मी कांता बाई आहे.....’.मराठी में करीब तीन-चार मिनट की शिकायत भरे लहजे से आभास हुआ कि कोई कांता बाई देशमुख बोल रही थी और कह रही थी कि वह आज काम पर नहीं आएगी.लगा मोबाईल के क्रॉस कनेक्शन का मामला है.जिसके लिए फोन किया था,पता नहीं उस पर क्या बीती होगी.

साल में एक-दो बार मुंबई आने-जाने के क्रम में मराठी की दो-चार बातें भी समझ में आने लगी हैं.मुंबई फोन लगाओ तो व्यस्त टोन के साथ मराठी में रिकार्डेड पंक्तियाँ चलने लगती हैं.थक हारकर एक दिन उन पंक्तियों का मतलब भी कस्टमर केयर से पूछ लिया था.

लेकिन यहाँ तो मोबाईल के क्रॉस कनेक्सन का मामला था.हममें से अधिकतर को मोबाईल के क्रॉस कनेक्शन का सामना करना पड़ता है.न चाहते हुए भी दूसरों की बातें सुननी पड़ जाती हैं.जेहन में कल्पित व्यक्ति का अक्स उभरने लगता है.कल्पना के घोड़े तो यूँ ही बेलगाम दौड़ते रहते हैं.उस पर रोक कहाँ संभव है?

कुछ साल पहले जब मोबाईल का नया नया कनेक्शन लिया था तब भी क्रॉस 
कनेक्शन आते थे.एक बार किसी ने फोन कर रहा कि लालू जी से बात करवाइए न! शायद पूर्व मुख्यमंत्री लालू जी के पी.ए. का क्रॉस कनेक्सन लग गया था.कई दिनों तक सोचता रहा कि आखिर हममें समानता क्या है?.मेरा उनकी पार्टी से दूर दूर तक नाता नहीं रहा है.

कुछ साल पहले खबर आई थी कि कर्नाटक के रायचूर जिले के वीरेश का फोन क्रॉस कनेक्शन के चक्कर में तत्कालीन पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी खारसे जा लगा था.अब वीरेश ने मोहतरमा से क्या बातें की होंगी.दो-चार इश्को-मोहब्बत की बातें तो आजकल इन मौकों पर हो ही जाती हैं. बन्दे ने यह तो न पूछा होगा कि आप कौन सी कंपनी का बैग इस्तेमाल करती हैं,या कितने हजार डॉलर में टोरंटो या मनीला से खरीदीं.यह भी न पूछा होगा कि आप कौन सा परफ्यूम इस्तेमाल करती हैं.

जाहिर है ऐसे मौकों का इस्तेमाल करना यहाँ के युवक बखूबी जानते हैं.शान में वो सब कशीदे पढ़ने लगते हैं कि शीरी-फरहाद भी बगलें झाँकने लगें. नाहक ही आईबी और आई.एस.आई वाले पीछे पड़ गए.


वैसे हिना रब्बानी जब भारत आईं थीं तब मीडिया वाले भी इसी तरह पीछे पड़े थे.उनके चेहरे और बैग पर ही ज्यादा फोकस रहता था.टी.वी. एंकर घंटों इस बात को दिखाते रहे थे कि उनका बैग किस कंपनी का है, कौन सा परफ्यूम इस्तेमाल करती हैं,वगैरावगैरा.

क्रॉस कनेक्शन आजकल आम बात हो गई है.इसकी वजह से ही कई जोड़ियाँ बन गईं.कई लोगों की जिंदगियां बदल गई हैं,कईयों को तो लाईफ पार्टनर तक मिल गए हैं.एक बार क्रॉस कनेक्शन होते ही सीधे कनेक्शन का सिलसिला चल पड़ता है.साथ-साथ जीने मरने की कसमें खाई जाने लगती हैं,बंदा एक नए ताजमहल के सृजन का सपना देखने लगता है और मुग़ल बादशाह को कोसने से बाज नहीं आता………

किसी शहंशाह ने बनाकर खूबसूरत ताजमहल
हम ग़रीबों के मुहब्बत का मजाक उड़ाया है


लेकिन यह नामुराद क्रॉस कनेक्शन भी तो सबके भाग्य में नहीं लिखा होता.हमें तो ईर्ष्या हो रही है वीरेश से.काश ! अपना ही क्रॉस कनेक्शन लग जाता हिना रब्बानी जी से तो दिल का हाल खोल कर रख पाते या नहीं,नहीं मालूम. अक्सर ऐसे मौकों पर अपनी आवाज दगा दे जाती है और मन की बात मन में ही रह जाती है.

अब तो यही ख़यालात दिल को बेचैन कर देता है कि………

अपने मन को जाहिर करने का
दुनियां में बहुत बहाना
किन्तु किसी में माहिर होना
हाय! न मैंने अब तक जाना
जब-जब मेरे उर में सुर में
द्वन्द हुआ है,मैंने देखा
उर विजयी होता,
सुर के सिर हार मढ़ी ही रह जाती है’.

(हरिवंश राय बच्चन की कविता से साभार)

Keywords खोजशब्द :- Mobile,Cross-Connection,Humor