दहकते अंगारों पर नंगे पैर चलकर अग्नि-परीक्षा देने का चलन दुनियां के बहुत से हिस्सों में सदियों से चला आ रहा है.भारत,स्पेन,बुल्गारिया और फिजी के अनेक संप्रदायों में यह धार्मिक क्रियाकलापों का एक अंग है.आत्मशुद्धि और व्याधियों के उपचार के तरीके और श्रद्धा के प्रतीक रूप में दहकते अंगारों पर नंगे पैर चलना सदियों से यूनान और दुनियां के कुछ अन्य देशों में देवताओं की पूजा के साथ जुड़ा है.
‘प्लिनी दि एल्डर’ ने लिखा
है कि रोम में कुछ परिवारों के सदस्य दहकते कोयलों पर नंगे पैर चलने का कमाल
दिखाते थे और इसके बदले में उन्हें शासकीय करों से मुक्त कर दिया जाता
था.मध्यकालीन यूरोप में फ्रांस के फ्लोरेंस नगर के एक साधू ने नंगे पैर अंगारों पर
चलने का प्रदर्शन किया था.इसके पुरस्कार-स्वरूप उसे ‘सेंट पीटर इग्नियस’ की उपाधि
से सम्मानित किया गया.
यूनान में आज भी देखने को
मिलता है,नंगे पाँव दहकते अंगारों पर चलने का यह करिश्मा.वहां आइया एलेनी ग्राम
में हर वर्ष संत कांस्टेटाइन और संत हेलेन के सम्मान में कई दिन तक चलने वाले
उत्सव का आयोजन होता है.समापन दिवस पर जब दिन डूब जाता है और अँधेरा घिर आता है तो
अंगारों पर चलने का क्रम आता है.
अंगारों पर चलने वाले करीब
दरजन भर स्त्री-पुरुष,जिन्हें वहां ‘अनास्ते नैराइड्स’ कहा जाता है,पहले कई घंटों
तक नाचते हैं,तीन तारों की थ्रेस की वीणा की धुनों पर.नाचते-नाचते उन्हें तंद्रा
सी आ जाती है.तब वे अपने हाथों में देवताओं की मूर्तियाँ उठाकर लाल-अंगारों से
दहकते लम्बे-चौड़े अलाव में कूद पड़ते हैं, एकदम नंगे पाँव.
हजारों दर्शक देखते रहते
हैं और वे भक्त दहकते अंगारों पर दौड़ते हैं,नाचते थिरकते हैं,चक्कर लगते हैं.जोश
के नशे में गला फाड़कर चिल्लाते रहते हैं.उस समय तक लगातार जारी रहता है,देवभक्तों
का अग्नि-नृत्य,जब तक दहकते अंगारे राख के ढेर में तब्दील नहीं हो जाते.
आश्चर्य की बात यह है कि ये
भक्त अपनी अग्नि-परीक्षा से बिल्कुल सही सलामत निकल आते हैं और कोई फफोला तक नहीं
पैरों में.वे कहते हैं कि संत कांस्टेटाइन की दैवी शक्ति उनकी रक्षा करती है.वे यह
भी मानते हैं कि यह शक्ति उन्हें रोगों से अच्छा करती है और उन्हें दूसरों को भी
रोगमुक्त करने की क्षमता प्रदान करती है.
शरीर के अग्नि-स्पर्शी कृत्यों
में अंगारों पर चलने के अलावा और भी बातें आती हैं.रामायण में सीता ने अपनी
अग्नि-परीक्षा लपटों में प्रवेश करके जहाँ स्वयं दी थी,वहीँ हनुमान की
अग्नि-परीक्षा रावण ने उनकी पूँछ में आग लगाकर ली थी और नतीजे में सोने की लंका
जलकर खाक हो गई थी.सुमात्रा में जिन लोगों पर ‘हाल’ आते हैं,वे अपने मुंह में
दहकते कोयले भर लेते हैं.मिस्त्र और अल्जीरिया के कई दरवेश दहकते अंगारों को
अंगूरों जैसे निगल जाते हैं.अल्जीरिया के फ़क़ीर तो अपना शरीर लोहे की दहकती–सलाखों
से दगवाते भी हैं.
इस सिलसिले में कई तरह की
बातें सामने आई हैं.कभी-कभी कहा जाता है कि अंगारों पर चलने वाले मानसिक रूप से
तंद्रा की स्थिति में होते हैं,इसलिए दर्द का अहसास उन्हें नहीं होता.लेकिन,कई
मामलों में ऐसा नहीं लगता कि शरीर को कोई आघात नहीं पहुँचने के पीछे बस तंद्रा की
स्थिति है.यह भी कहा जाता है कि पैर के तलवों पर पसीने की परत बन जाती है जो
तापरोधक का काम करती है.कुछ लोगों के अनुसार यही काम राख करती है.
कहा जाता है कि फिजी में
अंगारों पर चलने के लिए लावा से बनी जो रंध्रदार पत्थर काम में आती है. वह ताप की
इतनी कमजोर प्रचालक है कि वहां के कबीलों के लिए डर का कोई कारण ही नहीं रहता. आग
से शरीर के सीधे संपर्क की इन धार्मिक क्रीड़ाओं के बारे में आमतौर पर यही धारणा है
कि यह सब धूर्तों का मायाजाल है और अग्नि-भक्त जब इसे दैवी चमत्कार कहते हैं तो
शंकालुओं की शंका और भी बढ़ जाती है.
इस चमत्कार का रहस्य खोजने
में लगे पश्चिमी जर्मनी के अनुभौतिकिविद फ्रेडबर्ट कारगर ने फिजी द्वीपों पर
अंगारों पर चलने वाले आदिवासियों के तलवों पर एक ऐसा रंग पोत दिया,जो बढ़ते तापमान
के साथ रंग बदलता जाता है.ये आदिवासी चार सेकेंड दहकते अंगारों पर चले और सात
सेकेंड उनपर खड़े रहे.कारगर ने अपने रंग का घोल अंगारों पर डाला तो 600 डिग्री
फॉरनहाईट का रंग आया.लेकिन आदिवासियों के पैरों पर कोई असर नहीं हुआ.अगरों पर राख
की परत भी नहीं आई थी.कारगर ने एक आदिवासी के तलुए से थोड़ी-सी पपड़ी निकालकर
अंगारों पर डाली तो वह जलकर कोयला बन गयी.
कारगर का कहना था कि बहुत
सी बातें हो सकती हैं.कोई न कोई अवरोधक शक्ति जरूर काम करती है और इस प्रक्रिया
में अग्नि-भक्त के शरीर का भार कम हो जाता है.स्वयं अग्नि-भक्त महसूस करते है कि
कोई शक्ति उन्हें ऊपर उठाए है.शायद भौतिक-शास्त्र में इसका समाधान नहीं.
शायद मनोविज्ञान इस पर कुछ
प्रकाश डाल सकता है.स्टीवन कैने ने इसी विषय पर कई प्रयोग कर अपने शोध पत्र में
बताया कि ये अग्नि-भक्त विनाशक और आग्नेय
प्रक्रियाओं पर विजय के परिचायक हैं.कैने के अनुसार कृत्य के समय ये लोग तंद्रा
जैसी स्थिति में होते हैं और ऐसी स्थिति में इन्हें गोली लग जाए तो भी पता नहीं
चले.
कैने ने अपने प्रयोग में
देखा कि सम्मोहन की स्थिति में व्यक्ति को आग के संसर्ग से जलन महसूस नहीं होती.जब
दूसरे के द्वारा किया गया सम्मोहन इतना असरकारी हो सकता है तो अग्नि-भक्त का अपना
सम्मोहन तो और भी रंग दिखा सकता है.लेकिन शरीर की कोशिकाओं को विनाश से रोकने की
केन्द्रीय स्नायु प्रणाली की क्षमता सीमित है.किसी अग्नि-भक्त ने अपने शरीर को एक
बार में लगातार दस-पंद्रह सेकेंड से ज्यादा आग के संपर्क में नहीं रखा.यही शरीर के
सहने की सीमा है.
अमेरिकन सर्जन फेईन ने
दक्षिणी समुद्र के बोरा-बोरा द्वीप में अंगारों पर चलने का आयोजन देखा.वे भी
अग्नि-भक्त के साथ अग्निकुंड में आगे बढ़े.उन्हें पैरों के ऊपर तेज किंतु सही जा
सकने वाली गर्मी महसूस हुई और पैर में ठंढ लगी.वे साढ़े क़दमों से नीचे देखते हुए
बढ़ते रहे.अगरे सैंडपेपर जैसे लग रहे थे और पैरों में झुनझुनी थी,दिमाग सुन्न पड़
गया था.बाहर निकलने पर लगा कि वे सोते से जाग उठे हैं.
वैज्ञानिक पता लगाने में
लगे हैं कि ऐसा क्यों होता है.अब वे और संवेदशील उपकरण लेकर जाना चाहते हैं और पता
लगाना चाहते हैं कि तलुओं और अंगारों का तापमान किस तरह बदलता है और क्या शरीर के
भार में कमी होती है.
कुछ कुछ मिलता हुआ इससे हमारे यहाँ भी पाया जाता है । 'जागर' । जिसमें माना जाता है देवता अवतरित होते हैं उसके शरीर में जो जगरिया कहलाता है और वो भी इसी तरह आग से खेल जाता है ।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteislam ke shia firqe men aag ka matam bhi kuch isi tarah ki parampara hai.
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteसुन्दर लेखन व प्रस्तुति , आ. राजीव भाई धन्यवाद !
ReplyDeleteनवीन प्रकाशन - जिंदगी हँसने गाने के लिए है पल - दो पल !
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सादर धन्यवाद ! आशीष भाई. आभार.
Deleteबढ़िया और रोचक जानकारी।
ReplyDeleteउत्कृष्ट लेखन आपका। सादर धन्यवाद।।
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सादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteबढ़िया जानकारी ........
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteye man ko sadhne ki prkriya hi hai jahan par shreer par kuchh asar nahi hota .....sundar aur rochak jaankari ke liye aabhar
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteझारखण्ड में मंडा पर्व के मौके पर इस तरह दहकते अंगारों पर चलने की परंपरा है। उपासक धधकती आग पर नंगे पैर चलते हैं। जिस रात को यह त्योहार मनाते हैं,उस रात को ’जागरण‘ और आग पर चलने की क्रिया को ’फुलखुदी‘ कहते हैं।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteबढ़िया और रोचक जानकारी।धन्यवाद।।
ReplyDeleteअच्छी जानकारी ,आग पर चलने की परंपरा आस्था के नाम पर कहीं कहीं पर होती है
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (21-04-2014) को "गल्तियों से आपके पाठक रूठ जायेंगे" (चर्चा मंच-1589) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर धन्यवाद ! आभार.
Deletepta nahi kya karan hai par maine bhi dekha hai aag par chalne ke bad bhi jalne ka nishan nahi hota ..sundar lekh .......
ReplyDeleteविज्ञानं पर आस्था भारी, सुंदर आलेख.
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteअपना आत्मविश्वास अडिग हो तो क्या नही किया जा सकता।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteविज्ञानं और आस्था का द्वंद या परंपरा को संजो के रखने का प्रयास ..
ReplyDeleteरोचक आलेख ...
अर्वाचीन जानकारी समेटे लाते हैं आपके आलेख अतीत की परम्पराओं रिवाज़ों से मुखातिब कराते हैं।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आ. वीरेन्द्र जी. आभार.
Deleteराजस्थान में भी सिद्ध समाज के द्वारा इस प्रकार का अग्नि नर्त्य किया जाता है, विदेशी परयटकों के समक्ष उसकी प्रस्तुति देखने योग्य होती है
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! कई नई जानकारियों के साझा करने हेतु आभार.
Deleteवैज्ञानिकों के लिए यह एक अनुसंधान का विषय है. मानसिक अवस्था के कारण शारीरिक पीड़ा की अनुभूति नहीं हो सकती है लेकिन पाँव ज़ख़्मी नहीं होता यह आश्चर्य का विषय है.
ReplyDeleteआस्था और विज्ञान का द्वन्द...बहुत रोचक प्रस्तुति....
ReplyDeleteरोचक वर्णन किया है। आभार।
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