साहित्य में रूपक या प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कहने की शैली पाई जाती है.साहित्य में जिसे रूपक या प्रतीक कहा जाता है,वही आदिम लोक-साहित्य में समानांतर बिंब प्रस्तुत करते हुए मिथक के नाम से प्रसिद्द रहे हैं. यह भी एक आश्चर्यजनक संयोग की बात है कि मिथक में जो कल्पनाएँ संजोयी गयी हैं, वे ही प्रतीकात्मक स्वरूप में ऋग्वेद में पायी जाती हैं,और बाद में उन्हीं का रोचक स्वरूप पुराण में मिलता है.
मिथक एक ऐसी कथा है जिसमें अनेक प्रतीक एवं बिंब एकसाथ जुड़े हैं.यह मनुष्य की आदिम कल्पनाओं का मूर्त रूप है.कहानी और गल्प कथाओं का संभवतः इसी से सृजन हुआ होगा.
आदिकाल का आदि मानव जब घनघोर अंधेरी रात में,सुनसान जंगल में,भयंकर तूफ़ान
वर्षा से घिर जाता तो बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की चमक उसमें भय जगाती थी.उसमें
उसे दैवी प्रकोप का आभास होता था.चंद्रमा का घटता-बढ़ता स्वरूप,ग्रहण लगने तथा
छूटने की प्रक्रिया,बिना अवलंबन का टिका इन्द्रधनुष और सूर्योदय और सूर्यास्त का
दृश्य भी उसके लिए रहस्य का विषय रहा होगा.
जैसे-जैसे वह प्रकृति के निकट संपर्क में आता गया,भय का स्थान पूजा-भावनाओं ने
ले लिया और तब उसने चाँद,सूरज,बादल,बिजली,अग्नि और जल आदि प्रकृति के समस्त
उपादानों का मानवीयकरण कर,उनके संबंध में ऐसी मनोरम रंगीन कल्पनाएँ बनीं जो जीवंत
होकर बोलने-बतियाने सी लगीं.मनुष्य की व्यक्तिगत कल्पनाओं ने जब समष्टिगत आस्था का
रूप लिया तो वे मिथक बनकर जनमानस में छा गयीं.
इन मिथकों को मानव की अविकसित बुद्धि में कल्पना की उपज या आदिम लोक-कथाओं के
संसार के रूप में देखा जा सकता है.प्रख्यात फ्रांसीसी विचारक और दार्शनिक कॉम्ट ने
भी मानवीय बुद्धि के विकास क्रम के तीन स्तरों का उल्लेख किया है-आध्यात्मिक,तात्विक
और प्रत्यक्ष या वैज्ञानिक स्तर.इन मिथकों को मानवीय बुद्धि के इन्हीं विकास क्रम के सन्दर्भ में समझा जा सकता है.
आदिमानव ने जब आकाश से पानी को बरसते और आग को लकड़ी में पैदा होकर उसी में छिप जाते देखा,तो उसके मन में प्रश्न उत्पन्न हुआ,’ऐसा क्यों होता है.’यह क्यों ही मिथक का जनक रहा है.
पानी बरसने के संबंध में ‘अका’ जनजाति का एक मिथक इस प्रकार है कि ‘पहले पानी नहीं था.
सभी प्राणी प्यास से तड़पते थे.एक दिन सबने विचार किया कि
पानी की खोज करनी चाहिए.सवाल उठा कि उसे कौन खोजे? सबने अपनी लाचारी जतायी.इतने
में एक नन्हीं चिड़िया ने कहा,’मुझे मालूम है कि पानी कहाँ है’.सबके चेहरे पर ख़ुशी
छा गयी और उन्होंने चिड़िया से पुछा,’वह कहाँ है.’उसने कहा,’जहाँ से सूरज उगता है, वहां
पानी का एक सरोवर है.सरोवर के चारों ओर एक बहुत बड़ा सांप कुंडली मारकर बैठा है.अगर
उसकी कुंडली खुलवा दी जाय तो पानी बह निकलेगा.सबने कहा कि यह काम तो कठिन है.उसने
कहा कि वह यह कार्य कर सकती है.वह उड़ती-उड़ती सरोवर के पास पहुंची और सांप को देखकर
पहले तो डरी,फिर रात होने की प्रतीक्षा करने लगी.जब रात हुई तो सांप सो गया.उसने
झपटकर उसकी आँखें नोंच लीं.सांप दर्द से तड़प उठा और उसकी कुंडली खुल गई.कहते
हैं,तभी से सरोवर का पानी नदी बनकर बह रहा है.
जितनी जनजातियाँ हैं पानी बरसने के संबंध में सबकी अलग-अलग मान्यताएं हैं.’मिरी’
नामक पहाड़ी जाति का कहना है कि – पानी का दुरूपयोग करने से ही पानी की कमी है.इसे
एक रोचक कथा के रूप में कहा गया है कि स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा आसमान में रहता
है.उनके घर में एक बड़ी सी टंकी है और एक नदी है जो जमीन से आसमान तक चली गई है.उसी
से यह टंकी भरती है.जब कभी यह टंकी बह निकलती है तभी धरती पर बरसात होती है.
कभी-कभी टंकी में पानी कम हो जाता है तो पति-पत्नी झगड़ने लगते हैं.पति अपनी
पत्नी से कहता है,’तुम इतना पानी क्यों खर्च करती हो कि टंकी खाली हो जाए.’ पत्नी
कहती है-‘तुम्हीं तो चावल की शराब पीते हो और उसी को बनाने में सारा पानी खर्च हो
जाता है.’बात-बात में झगड़ा बढ़ जाता है और पत्नी गुस्से में अपने कपड़े उतर फेंककर
घर से भाग जाती है.उसका पति उसका पीछा करता है.दोनों में युद्ध ठन
जाता है.जिसे हम बिजली कहते हैं,वह बरसात में, उस सुंदर स्त्री की देह की चमक है और
जिसे हम बादलों की गरज कहते हैं,वह उसके पति की हुंकार है.दोनों का यह युद्ध आज भी
चल रहा है.
पृथ्वी और आकाश की रचना कैसे हुई इस संबंध में ‘खोआ’ मिथक में कहा गया है – कहते हैं,पहले न धरती थी न आकाश.तब भगवान अपने दो बेटों के साथ रहा करता था.एक दिन खेल-खेल में दोनों बेटों ने धरती और आकाश बना डाले.जब दोनों बन गए एक ने धरती पर आकाश का ढक्कन लगाना चाहा,लेकिन उसने देखा कि धरती इतनी बड़ी थी कि उस पर आकाश का ढक्कन लगता ही नहीं था.अतएव उसने दूसरे से कहा कि जरा अपनी धरती को छोटी कर दो ना. दूसरे ने मिटटी को दबाकर धरती को इतना छोटा कर दिया कि उस पर आकाश का ढक्कन लग गया.कहते हैं उसने जहाँ-जहाँ से मिट्टी को दबाया था,उसका उभरा हुआ हिस्सा पहाड़ कहलाया और दबा हुआ हिस्सा घाटियाँ एवं नदियाँ बनीं.
पृथ्वी और आकाश की रचना कैसे हुई इस संबंध में ‘खोआ’ मिथक में कहा गया है – कहते हैं,पहले न धरती थी न आकाश.तब भगवान अपने दो बेटों के साथ रहा करता था.एक दिन खेल-खेल में दोनों बेटों ने धरती और आकाश बना डाले.जब दोनों बन गए एक ने धरती पर आकाश का ढक्कन लगाना चाहा,लेकिन उसने देखा कि धरती इतनी बड़ी थी कि उस पर आकाश का ढक्कन लगता ही नहीं था.अतएव उसने दूसरे से कहा कि जरा अपनी धरती को छोटी कर दो ना. दूसरे ने मिटटी को दबाकर धरती को इतना छोटा कर दिया कि उस पर आकाश का ढक्कन लग गया.कहते हैं उसने जहाँ-जहाँ से मिट्टी को दबाया था,उसका उभरा हुआ हिस्सा पहाड़ कहलाया और दबा हुआ हिस्सा घाटियाँ एवं नदियाँ बनीं.
इस मिथक में भगवान के दो बेटों द्वारा खेल-खेल में धरती और आकाश बना डालने की
बात कही गई है.पृथ्वी चाहे जैसे बनी हो,लेकिन दोनों के पीछे मनुष्य की भव्य विराट
कला को देखा जा सकता है.
आकाश और पृथ्वी की इन्हीं कथाओं में से एक दिन ‘भारत-माता’ की कल्पना का जन्म
हुआ होगा.एक ‘आपातानी’ मिथक में पहली बार पृथ्वी कि कल्पना औरत के रूप में की गई
है.इसके अनुसार-‘पहले पृथ्वी एक औरत जैसी थी.उसका सिर था,हाथ-पाँव थे,और तोंद थी.जिस
पर मनुष्य जाति रहती थी.इसी से वह हमेशा लेटी रहती थी.उसने सोचा कि अगर मैं बड़ी
हुई तो मेरे सब बच्चे गिर कर मर जाएंगे.इस बात से वह इतना डरी कि आत्महत्या कर
ली.कहते हैं,उसके सिर से पहाड़ बने,हड्डी एवं पसलियों से पहाड़ियां बनी,गर्दन से
उत्तरी प्रदेश बना,पीठ से आसाम का हरा-भरा
मैदान बना और उसकी आँखों से चाँद और सूरज बने,जिसे उसने आकाश में चमकने को भेज
दिया है.’
धरती की देवता आग छिप कर क्यों रहती है.इस संबंध में डाफला जनजाति में एक मिथक
बहुत प्रसिद्द है-कहते हैं एक बार आग और पानी में लड़ाई छिड़ गई.चूँकि पानी की सबको
जरूरत थी,इसलिए सब ने पानी का साथ दिया.लाचार आग अपनी जान बचाकर भागी.पानी ने
उसका पीछा किया.वह पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर पहुंची.पानी वहां भी बादल बनकर जा
पहुंचा.बचने के लिए आग कूदकर पत्थरों में समा गई.पत्थरों में जाने की शक्ति पानी
में नहीं थी.तब से आग छिपकर वहां बैठी है.जब आदमी को उसकी जरूरत पड़ती है वह दो
पत्थरों को रगड़कर उसे बुला लेता है.बाद में वह पुनः उसी में छिप जाती है.
चाहे वैदिक युग में ऋषियों द्वारा दो अरणियों को रगड़ने से उत्पन्न यज्ञ की
अग्नि हो या आदिम युग में शिकार के लिए पत्थर की रगड़ से उत्पन्न शिकार की आग,दोनों
में छिपकर रहने का इतिहास छिपा है.वह छिपकर क्यों रहती है.इसी को लेकर इस मिथक की
रचना हुई है.
आदिम जातियों के लिये सबसे बड़ा आश्चर्य चाँद और सूरज का ग्रहण लगना है.
इस
ग्रहण लगने की प्रक्रिया को अपनी गरीबी से जोड़कर उन्होंने ऐसा मिथक तैयार किया कि
उसके सामने समूचा कथा साहित्य फीका पड़ जाता है.कहते हैं-एक बार आदिवासियों के
इलाके में अकाल पड़ा.उन्होंने मदद के लिए भगवान से प्रार्थना की.भगवान ने कर्जे से
अनाज लाकर उनकी मदद की.दूसरे साल फिर अकाल पड़ा.भगवान ने फिर कर्जे से अनाज लाकर
उनकी मदद की. देखते-देखते कर्जा बढ़ता
गया.साहूकार को यह सहन नहीं हुआ.उसने अपने कर्जे की वसूली के लिए भगवान को पकड़
लिया.चाँद और सूरज से यह अन्याय देखा नहीं गया तो उन्होंने अपनी आँखें बंद कर
लीं.इसी को ग्रहण लगना कहते हैं.
इस तरह मिथक और पौराणिक कथाओं में न केवल वर्तमान बल्कि आने वाले जीवन की कल्पना की गई है जिसका संबंध मानवीय जगत से रहा है.
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteजनजातीय मिथक का अनोखा संसार. सुंदर आलेख.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteअनूठा लेख पढ़ कर प्रोफ़ेसर अली सय्यद याद आ गए ! मंगलकामनाएं भाई जी !!
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आ. सतीश जी. आभार.
Deleteसुन्दर ज्ञानवर्धन लेख राजीव भाई धन्यवाद !
ReplyDeleteInformation and solutions in Hindi ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
सादर धन्यवाद ! आशीष भाई. आभार.
Deleteअनोखा आलेख.....बहुत सुंदर ...
ReplyDeleteज्ञान वर्धक जानकारी...................हेतु आभार!
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! अनिल जी. आभार.
Deleteबढ़िया लेख सर। सादर धन्यवाद।।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
ReplyDeleteरोचक, दिलचस्प और ज्ञानवर्धक ...
ReplyDeleteवाह बेहद प्रभावी लेखनी
ReplyDeleteकविता से लेकर पौराणिकता और पौराणिकता से लेकर यथार्थ तक की यात्रा करती हुयी आपकी ये उत्कृष्ट लेखनी
हार्दिक बधाई
सादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteप्रतीक कथा ,मिथ और रूपक को आपने दन्त कथाओं के मार्फ़त समझा दिया। पुरातात्विक आलेख सा है आपका लेखन अन्वेषण पार्क सहज सुबोध भी।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आ. वीरेंन्द्र जी. आभार.
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteबहुत सुन्दर लेख ..
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteमिथक अक्सर सच से होने लगते हैं .. दूसरी दुनिया में ले जाते हैं .. जो समझ न आये वो तो वौसे ही मिथ है ...
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteबेहतरीन अन्वेषी लेखन
ReplyDeleteजैसे-जैसे वह प्रकृति के निकट संपर्क में आता गया,भय का स्थान पूजा-भावनाओं ने ले लिया और तब उसने चाँद,सूरज,बादल,बिजली,अग्नि और जल आदि प्रकृति के समस्त उपादानों का मानवीयकरण कर,उनके संबंध में ऐसी मनोरम रंगीन कल्पनाएँ बनीं जो जीवंत होकर बोलने-बतियाने सी लगीं.मनुष्य की व्यक्तिगत कल्पनाओं ने जब समष्टिगत आस्था का रूप लिया तो वे मिथक बनकर जनमानस में छा गयीं.
ReplyDeletebahut hi achha likha hai
shubhkamnayen
वाह... उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@भजन-जय जय जय हे दुर्गे देवी
सादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteबेहद उम्दा और सार्थक पोस्ट।।।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! अंकुर जी. आभार.
Delete