हर शहर की अपनी कुछ अलग विशेषता है.मुंबई जैसे महानगर की भी अपनी ही चाल
है.जीवन में ठहराव नहीं है.शायद, गति ही जीवन है,को इसने आत्मसात कर लिया है.अगर
शोर की बात की जाय तो शोर का यहाँ अलग ही संगीत है जिससे राबता रखना सबके के वश का
नहीं.
कई बार मुंबई आने पर एक ही
समस्या से दो चार होना पड़ा है – वह है शोर.कमरे में फाईबर वाली स्लाइडिंग खिड़कियाँ
हैं,जिसे खुला रखने पर गाड़ियों के शोर से रात भर नींद नहीं आती.हालांकि मुख्य सड़क
से हटकर चंद कदमों की दूरी पर यह बिल्डिंग है.लेकिन सामने की सड़क पर भी रात भर
गाड़ियों का शोर रहता है.अपने शहर में तो खिड़कियाँ खोलकर सोने की आदत है,क्योंकि
बंद कमरे में दम घुटने लगता है,लेकिन यहाँ शोर का आतंक है.
बुनी पास्तरनाक की पंक्तियाँ
याद आती हैं........
हवा में समुद्र की गंध
और धूप चढ़ रही है
कमरे की सीढ़ियों
पर,धीमे-धीमे
रोशनदान रंगों
में खुलते हैं !
लेकिन महानगरों के कमरों
में रोशनदान कहां मिलते हैं.पुराने शहरों और गांवों में बने पहले के बने मकानों
में अभी भी रोशनदान या वेंटिलेटर दिखाई दे जाते हैं.यहाँ सर्दियों में बंद दरवाजों
और खिड़कियों के बावजूद सुबह-सुबह रोशनदान से झांकती सूर्य की सतरंगी किरणें उल्लासित
कर जाती हैं.लेकिन अब बनने वाले मकानों से रोशनदान गायब हो गए हैं.
गांव में रोशनदान पर बैठी
कोई गोरैया जैसी छोटी चिड़िया यदा-कदा ध्यान आकृष्ट कर लेती थी,पर अब तो गांवों में भी बनने वाले मकानों में
फैब्रिकेटेड अल्युमिनियम की खिड़कियाँ लग रही हैं.एक बार खिड़कियाँ बंद हो जाएं तो न
तो धूप और न हवा के आने की गुंजाइश.बंद कमरों में पकते ख्याली पुलाव की गंध भी
पड़ोसियों को नहीं लगती.पहले आस-पास सटे घरों में बनने वाली सब्जियों के छौंक से
अंदाजा हो जाता था कि पड़ोस में क्या पक रहा है.
पर,अब निजता और गोपनीयता की
बात होती है.अपने घर के दूसरे कमरे में होने वाली घटनाओं का अंदाजा नहीं होता.बदलते
सामाजिक परिवेश में बहुत कुछ रीत गया है.अपने-पराये का भेद ज्यादा बड़ा हो गया
है.मतभेद और मनभेद में बहुत बारीक़ सी रेखा है.अक्सर इनमें भेद का पता नहीं चलता.संबंधों के छीज जाने का सरलता से अंदाजा लगाया जा सकता है क्या?
रोशनदान,धूप और हवा के आपसी
संबंध क्या कुछ नहीं कह जाते हैं?
अपने-पराये का भेद ज्यादा बड़ा हो गया है.मतभेद और मनभेद में बहुत बारीक़ सी रेखा है.अक्सर इनमें भेद का पता नहीं चलता.संबंधों के छीज जाने का सरलता से अंदाजा लगाया जा सकता है क्या?
ReplyDeleteमहानगरों में रहने वाले लोग अपने ही रिश्तेदारों से मिल नहीं पाते पड़ोसियों की कौन कहे..हवा और धूप इन्सान को स्वस्थ रखने के लिए कितने आवश्यक हैं यह कौन नहीं जानता पर...
एसी के जमाने में अब खिड़कियों का अस्तित्व खतरे में है.
ReplyDeleteसटीक वर्णन आज के हालात के
ReplyDeleteसुंदर आलेख , राजीव भाई धन्यवाद !
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Nice Post..
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आभार.
ReplyDeletebahut badhiya alekh ....ateet aur vartman ke beech hindole leta hua ...
ReplyDeleteआभार ! आशीष भाई.
ReplyDeleteक्योंकि हम हवा से भी डरने लगे हैं.
ReplyDeleteवो रातें,वो बातें वो खिडकियों से झांकते चांद-सूरज के
इशारे----अब कहां?
वाह! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. समय की बयार में काफी कुछ बदल गया. आपको स्वतंत्रता दिवस मुबारक!
ReplyDeleteसच शहर की देखा देखी से गांव भी बदलने लगे हैं जिन्हें देख दिल में एक मूक वेदना जाग उठती है ..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया चिंतन
सुन्दर बहुत बढ़िया चिंतन
ReplyDeleteवन्दे मातरम्
दलते सामाजिक परिवेश में बहुत कुछ रीत गया है.अपने-पराये का भेद ज्यादा बड़ा हो गया है.मतभेद और मनभेद में बहुत बारीक़ सी रेखा है.अक्सर इनमें भेद का पता नहीं ..
ReplyDeleteप्रिय राजीव भाई ..
बिलकुल सटीक ..आज के हालत को बयान करता आप का सुन्दर लेख..काश लोग दिली प्रेम को बढ़ावा दें रिश्ते प्राथमिक हो जाएँ तो आनंद और आये
जन्माष्टमी की हार्दिक शुभ कामनाएं
भ्रमर ५
bahut badhiya...
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