पिछले दिनों केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत बनाम जर्मन भाषा की पढ़ाई को लेकर काफी विवाद हुआ और मामला सर्वोच्च न्यायालय तक भी गया.वैकल्पिक भाषा जर्मन हो या संस्कृत एवं आज के संदर्भ में इसकी उपयोगिता एवं उपादेयता अपनी जगह है लेकिन अतीत में संस्कृत के उत्थान में विलायती पारखियों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है.
वारेन हेस्टिंग्स ऑक्सफ़ोर्ड
यूनिवर्सिटी का प्रोफ़ेसर बनना चाहता था,पूर्वी भाषाओँ का.वह अपनी अभिलाषाओं की आकृति
अपने मस्तिष्क में बनाता रहा लेकिन इतिहास ने उसे अपनी छेनी हथौड़ी से कुछ और ही
बना डाला.जब वह भारत में चालीस रूपये महीने का राइटर बनकर आया,तो क्लाइव ने उसे
मुर्शिदाबाद भेजा था,वहां के नवाब पर नजर रखने.वारेन हेस्टिंग्स को फ़ारसी का स्वाद
मुर्शिदाबाद में ही लगा और देखते ही देखते वह फ़ारसी भाषा तो क्या,फ़ारसी के शायरों
के कलाम की अंतरात्मा खखोलने लगा.जब वह वापस इंगलैंड वापस लौटा था तब वह अपने
मित्र डॉक्टर जॉनसन को घंटों फ़ारसी की कविता सुनाता और उसका तथ्य समझाता रहता.
अद्भुत कथाओं एवं दर्शन से
भरे हिंदुओं,बौद्धों,एवं जैनों के धर्मग्रन्थ,फ़ारसी कविता एवं इतिहास के हस्तलिखित
भंडार,विशाल धर्मस्थानों के स्मारक ,हेस्टिंग्स की रूचि के विषय थे.बाद में वही इन
भारतीय ग्रंथों का हिमायती बन बैठा.1631 से 1641 तक पुलीकर में डच पादरी रॉजर्स ने
सबसे पहले ‘भृतहरि शतक’ का डच भाषा में अनुवाद किया जिसे देखकर हेस्टिंग्स बहुत
प्रभावित हुआ था.
हेस्टिंग्स कलकत्ते में गवर्नर जनरल बनकर आया तो उसने नगर के ग्यारह विद्वान् ब्राह्मणों को बुलाकर हिंदुओं के धर्म और व्यवहार पर लिखने को कहा और जो भी तथ्य उन्होंने लिखकर दिए,उन्हें 1776 में इंगलैंड पहुंचा दिया.
1785 में ईस्ट इंडिया कंपनी
के सौदागर विलकिंस ने ‘भगवद्गीता’ का अंग्रेजी अनुवाद कर डाला और दो साल बाद ‘हितोपदेश
की कथाएँ’ सब तरफ फ़ैल गईं.1791 में जब फार्स्टर ने ‘शकुंतला’ का अनुवाद किया तो
हर्डर के हाथों होता हुआ जर्मन विद्वान् गेटे के पास पहुंचा.गेटे उसे पढ़कर
आत्मविभोर हो गया और उसने अपने पद में कह डाला ‘समस्त स्वर्ग और पृथ्वी के जादू
भरे आकर्षण का केंद्र बिंदु है तू, ओ शकुंतला.’
इसके बाद सर विलियम जोंस ने
भी शकुंतला का अनुवाद किया था.उधर एक विदेशी प्रकांड पंडित सहसा साहित्य के मंच पर
आ धमका - जर्मन पंडित – मैक्समूलर. ऋग्वेद के प्रकाशन के लिए ईस्ट इण्डिया कंपनी
के निदेशकों ने उसे आर्थिक सहायता दी और उसने छह खण्डों में ऋग्वेद का भाष्य लिख
डाला.
जर्मन विद्वान हंबोल्ट और
गेटे तो कालिदास के काव्य पर पहले से ही मुग्ध थे.पूरे यूरोप में संस्कृत ग्रंथों
के अनुवाद की होड़ शुरू हो गयी.सबने यही माना कि संस्कृत ही सब भाषाओँ की जननी
है.ग्रीक,लैटिन,फ़ारसी,केल्टिक,ट्युटॉनिक जैसी सभी भाषाओँ की.शूद्रक के ‘मृच्छकटिकम्’
ने तो जर्मनी में धूम ही मचा दी.इस नाटक को ‘मड कार्ट’ का नाम देकर पहले अंग्रेजी
मंच पर ही खेला गया और फिर जर्मन भाषा में ‘भौतलिंक’ बनकर यह रॉयल कोर्ट थियेटर
बर्लिन और कोर्ट थियेटर म्यूनिख में छा ही गया.’ लिट्रेरी हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ में
फ्रेजर लिखता है कि नाटक समाप्त होने पर नाटक के पात्रों को दर्शकों ने आठ बार
बुलवाया था.
1791 में बनारस के रेजिडेंट
डंकन ने सर्वप्रथम संस्कृत कॉलेज की नींव रखी और उनके प्रोत्साहन से ही सैकड़ों
वर्ष बाद वाराणसी का शिवमय वातावरण स्रोतों और मन्त्रों से गूंज उठा.कोलरिज जब
1781 में कंपनी की सेवा में बंगाल आया तो उसने एशियाटिक सोसायटी को और भी
संवारा.1784 में उसने सती प्रथा का अध्ययन कर एक पुस्तक लिखी ‘निष्ठावान हिन्दू
विधवा’,फिर ‘हिन्दू कानून का नीति-संग्रह’.
जर्मन विद्वानों ने जी भर
कर भारतीय साहित्य,वेद,उपनिषद,शास्त्र के मर्म को समझा और उनके अनुवाद कर
डाले.जर्मन विद्वान् जोजफ ने ‘डॉस महाभारत’ बर्लिन में 1892 में छापा और ड्युसन ने
‘डॉस सिस्टम डैस वेदाज’ छापकर वेदों को विलायती पंडितों के सामने रखा.लुडविग ने ‘ऋग्वेद’
और मैक्समूलर ने ‘प्राचीन साहित्य का इतिहास’ लिखकर यूरोप में धूम मचा दी.
पादरी स्टीवेंसन ने ‘सामवेद’,डेवीज ने भगवद्गीता,ग्रिफिथ ने सामवेद, गार्ब ने ‘सांख्य दर्शन’,विल्सन ने ‘विष्णु पुराण’ प्रस्तुत करके स्वयं भारतवासियों को ही चकित कर दिया.यहाँ तक कि बुलंदशहर के कलक्टर ग्राउज ने ‘तुलसीकृत रामायण’ का अनुवाद कर डाला.ई.ट्रम्प ने सिखों के गुरुमुखी ग्रंथ ‘आदि ग्रंथ’ का अनुवाद कर दिखाया.अंग्रेजों की हिंदी और संस्कृत पर पकड़ अद्भुत ही हो गई थी.1803 में जब लल्लूलाल जी ने ‘प्रेमसागर’ लिखा तो उन्होने आवश्यक परामर्श जॉन गिलक्राइस्टर से लिया,जिसने उनकी पुस्तक की भूमिका हिंदी में लिखी है.
बंगाल के सशक्त उपन्यासों
ने अंग्रेजों को इस प्रकार आकृष्ट किया कि वे उनका अनुवाद करने पर बाध्य हो गये.जेम्स
टाड ने ‘राजस्थान की प्राचीन पूर्व कथा’ लिखकर
इतनी ख्याति पायी कि आज भी राजपूत परिवार विवाह संबंध से पूर्व इस विदेशी
की पुस्तक से अपने वंश-वृक्ष और गोत्र आदि की पुष्टि करते हैं.
Keywords खोजशब्द :- Sanskrit vs German,German Philosophers,Maxmuller
सुंदर आलेख. नव बर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाए ! २०१५ आपके लिए सुख , शांति एवं समृधि लाये !
ReplyDeleteएक अति महत्वपूर्ण आलेख श्री राजीव झा जी ! हिंदी और संस्कृत के विशेष विद्वानों के विषय में बहुत कुछ अलग और विशिष्ट जाना , समझा ! नव वर्ष की हार्दिक मंगल कामनाएं
ReplyDeleteसुंदर आलेख. नव बर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाए
ReplyDeleteबहुत सुंदर सार्थक आलेख ।
ReplyDeleteप्रासंगिक प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुन्दर और जानकारी पूर्ण सार्थक आलेख। सादर।। आपको सपरिवार नववर्ष 2015 की हार्दिक शुभकामनाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ :- इंटरनेट और हमारी हिन्दी
दिसम्बर माह के महत्वपूर्ण दिवस और तिथियाँ
सुंदर और सार्थक आलेख... संस्कृत बनाम जर्मन के विवाद को परे रख के देखें तो संस्कृत अपनी वैज्ञानिकता के कारण पश्चिम के वैज्ञानिको और भाषाविदों की पहली पसंद है. विश्व की सबसे प्राचीन भाषा, समस्त भारतीय भाषाओं और अनेक यूरोपीय भाषा की जननी संस्कृत को महत्व मिलना ही चाहिए.
ReplyDeleteआभार. बिलकुल सही कहा आपने, आ. श्याम जी.
Deleteसामयिक और महत्वपूर्ण आलेख। संस्कृत और जर्मन दोनो ही हो तो क्या मुश्किल है।
ReplyDeleteआभार ! आ. आशा जी. भाषा कोई भी हो,अभ्यास करने पर आसान ही लगने लगती है.
Deleteसुंदर और सार्थक आलेख, आपको सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ
ReplyDeleteअफ़सोस की आज अपने देश में इतनी उपयोगिता या खोज या चलन नहीं नार आता अपने ही साहित्य का ... पर जिसने ज्ञान लेना है उसे कौन रोक राका है ... बहुत ही अच्छा लगा लेख पढ़ कर ...
ReplyDeleteSaarthak aalekh...bahut saari rochak jaankari....
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