आर.के. लक्ष्मण का कार्टून |
पिछले दिनों फ्रांसीसी
व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली हेब्दो’ के संपादक और कार्टूनिस्ट की हत्या ने एक नई बहस
छेड़ दी है कि अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा क्या हो? लोकतंत्र में ही कार्टूनतंत्र फलता-फूलता
है. लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और हर किसी को अपनी बात कहने का हक़
है भले ही माध्यम अलग-अलग क्यों न हो.लेकिन जहाँ धर्म का मसला आता है वहां सभी
मुद्दे गौण हो जाते हैं.
आज की पत्र-पत्रिकाओं में मुद्रित
कार्टूनों को देखकर पाठकों के होठों पर एक पल के लिए मुस्कान बिखर जाती है.मगर आज
से लगभग दो सौ वर्षों पूर्व यह स्थिति नहीं थी.क्योंकि,उस समय पत्र-पत्रिकाओं में कार्टूनों
का नामोनिशान नहीं होता था.
कहा जाता है कि कार्टूनों
का जन्म अमेरिका के स्वाधीनता-संग्राम के दौरान हुआ था और औद्योगिक क्रांति के समय
यूरोप में परवान चढ़ा.गुलाम अमरीकियों में राजनीतिक चेतना जगाने के लिए पॉल रिवेरी
नामक चित्रकार द्वारा प्रवर्तित यह कला आज दुनियां भर के लोगों में
राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना जगाने में व्यस्त
है.
आर. के. लक्ष्मण का कार्टून |
इटली में पहले-पहल इन
चित्रों को ‘केरिकेतुरा’ कहा गया.अंग्रेजों ने इन्हें ‘केरिकेचर’ तथा अमरीकियों ने
‘कार्टून’ कहा.उन दिनों ये कार्टून मोटे पेपर पर छपकर,बिना पत्र-पत्रिकाओं के
माध्यम के,स्वयं ही जनता के बीच लोकप्रिय होते रहे.इसके अनेक वर्षों के बाद
कार्टून ‘न्यूयार्क टाइम्स’ तथा ‘हार्वर्स वीकली’ जैसे पत्रों में छपने लगे.
पहले,इन कार्टूनों में
सामाजिक बुराइयों को ही प्रमुखता मिली.ऐसा मानने का ठोस आधार यह है कि कार्टून कला
की उत्पत्ति हुए जहाँ दो शताब्दियाँ गुजर गई हैं,वहां राजनीतिक कार्टून सिर्फ सौ
वर्ष पुराने ही मिलते हैं.’स्ट्रिप कार्टूनों’ की उम्र तो अभी मात्र ८५ वर्ष मानी
गई है.
कार्टून की पहली और अंतिम
शर्त हास्य-व्यंग्य ही होती है.जिस चित्ताकर्षक चित्र का शीर्षक एक वाक्य का
हो,उसे ही ‘कार्टून’ कह सकते हैं.इस कसौटी पर देखा जाय,तो आज जो कार्टून के नाम पर
छापा जा रहा है,उसमें अधिकांश को कार्टून माना ही नहीं जा सकता.जिस कार्टून को
देखते ही हंसी आ जाती हो,जिसे शीर्षक या ‘डायलॉग’ देने की जरूरत नहीं पड़ती हो ,उसे
उत्कृष्ट श्रेणी का कार्टून माना जाता है.अधिकांश कार्टूनों में यह भी देखा जा रहा
है कि पाठकगण कार्टून को नजरंदाज कर सिर्फ शीर्षक पढ़कर हास्य-व्यंग्य का मजा लेते हैं.मगर इस तरह के चुटकुले ‘कार्टून’ नहीं हुआ करते.चित्र एवं शीर्षक के बीच
अटूट संबध होना चाहिए.
कार्टून दो प्रकार के होते
हैं-राजनीतिक अवं सामाजिक.इन दोनों प्रकारों
के कार्टूनों में जो व्यंग्य प्रयुक्त किया जाता है,वह भी मुख्यतः दो तरह का होता
है- श्रृंगारमिश्रित व्यंग्य तथा करूणामिश्रित व्यंग्य.राजनीतिक कार्टून प्रायः तीखे व्यंग्य
से सने होते हैं.इसे कार्टून विधा की तीसरी श्रेणी कह सकते हैं.
दैनिक समाचार
पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर छपने वाले ऐसे राजनीतिक कार्टून उन पत्रों के नीतिगत
प्रवक्ता भी होते हैं.इसलिए राजनीतिक कार्टूनकारों में एक संपादक के जितनी
राजनीतिक सूझबूझ एवं पत्रकारिता की उत्कृष्ट जानकारी पायी जाती है.शंकर,अबू,आर.के.
लक्ष्मण,सुधीर जैसे कार्टूनकारों को मिली लोकप्रियता इसका प्रमाण है.
ज्वलंत समस्याओं पर आम आदमी
को केंद्रित कर बनाया गया कार्टून जहाँ करूणामिश्रित हास्य-व्यंग्य उत्पन्न करता
है ,वहीँ श्रृंगार रस के कार्टून मुख्यतः प्रेमी-प्रेमिकाओं तथा पति-पत्नी के
संबंधों पर बनाये जाते हैं.
स्ट्रिप-कार्टूनों के
क्षेत्र में हम अब भी पिछड़े हैं.अधिकांश पत्र-पत्रिकाएं स्ट्रिप-कार्टूनों के लिए
धन खर्च करने की स्थिति में नहीं होती.आर्थिक रूप से सुदृढ़ बड़े प्रकाशन समूहों की
पत्र-पत्रिकाओं में भारतीय की जगह विदेशी फीचर्स सिंडिकेटों की ‘ब्लांडी’,’मट एंड
जेफ़’ एवं बीटल जैसी कार्टून-स्ट्रिप छापती हैं.फीचर्स सिंडिकेटों से प्राप्त स्ट्रिप
कार्टूनों में उत्कृष्टता नहीं होती.’यंग एंड रेमंड’ की ‘ब्लांडी’ अब तक लगभग
विश्व की 1300 से भी अधिक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी है.इस दिशा में भारत को भी
अपना योगदान देना चाहिए.
यहाँ कार्टूनकारों के समक्ष
एक मुख्य समस्या आर्थिक भी है.कुछ बड़े पत्रों को छोड़कर हिंदी के अधिकांश पत्रों में
न कोई कार्टूनकार फ्रीलांसिंग कर आर्थिक स्थिति को बेहतर कर सकता है और न ‘स्टाफर’
होकर ही.अधिकतर हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में कार्टूनों का उपयोग ‘फिलर’ के तौर पर
किया जाता है.
अतः कार्टूनों का स्तर
उठाने के लिए यह जरूरी है कि एक स्वतंत्र तथा विकसित विधा के रूप में ही इसका
उपयोग हो.कार्टूनकारों को पर्याप्त पारिश्रमिक भी मिलना चाहिए.
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ReplyDeletesundar vishleshan
ReplyDeleteकब और किसने छेड़ी यह बहस... ? :) जिस पत्रिका ने वह कार्टून छापा था उसने उस घटना के उपरांत पुनः वैसा ही कार्टून छापा, निर्भीक रहकर और उसकी तीस लाख प्रतियाँ हाथों हाथ बिक गयी ..... तो उनकी नीति और नियत तो स्पष्ट है फिर यह बहस छेड़ी किसने ..... आपने या भारतीय मीडिया ने...... यह भारतीय मीडिया तब क्यों नहीं छेड़ती है बहस जब दुर्गा माता के अश्लील चित्र बनाए जाते हैं , जब भारत माता को नंगा दिखाया जाता है.... तब तो सब कुछ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के भीतर दिखता है .... जिसके लोग मारे गए उन्होने कोई बहस नहीं छेड़ी इसलिए हमे इसपर बहस छेडने का अधिकार है क्या ???
ReplyDeleteनीरज जी,यह पोस्ट किसी धर्म विशेष के कार्टून पर नहीं है,कार्टून कला पर है.वैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल सभी देशों में हो रहे हैं.खुद फ़्रांस ने भी शार्ली आब्दो पर सवाल उठाए थे.वैसे पश्चिमी देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कड़े मापदंड हैं और कोर्ट भी इनमें हस्तकक्षेप नहीं करती.
Deleteनीरज जी ने बहुत कुछ साफ़ कर तौर पर लिखा है ! और बहुत कुछ लिखा है ! ये बहस तब क्यों नहीं होती जब दुर्गा माता के कार्टून बनाये जाते हैं या भारत माता को गलत दिखाया जाता है ! लेकिन इसके साथ राजीव जी आपकी पोस्ट में जो नयी जानकारियां छिपी हुई हैं , बहुत ही दमदार और निश्चित रूप से प्रशंसनीय हैं !
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (18-01-2015) को "सियासत क्यों जीती?" (चर्चा - 1862) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर धन्यवाद ! आ. शास्त्री जी. आभार.
Deleteकार्टून कला और उसके विकास का पूरा लेखा जोखा लिख दिया आपने ... बहुत ही रोचक सफ़र है कार्टून की विकास का ... पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के माप-दंड जरूर तय होने चाहियें और सामान रूप से ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.....
ReplyDeleteसुंदर आलेख...कार्टून कला अभिव्यक्ति की सबसे कठिन लेकिन दिलचस्प विधा है... अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ -साथ कुछ दायित्व भी तय होने चाहिए...
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख है| www.happyhindi.com
ReplyDeleteसुंदर आलेख
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