किसी भी धार्मिक,पौराणिक कथानक को कई खण्डों में बांटकर क्रमबद्ध रूप में
काष्ठ फलकों पर वांछित पारंपरिक रंग – शैली में चित्रण का लौकिक प्रभाव कावड़ की अनन्यतम
विशिष्टताओं में से एक है.जहाँ कावड़िया भाट,कावड़ बांचकर पुण्य कमाता है,वहीँ
श्रोता भक्त उसे सुनकर पुण्य अर्जित करते हैं.
जीवन दिनचर्या एवं सामाजिक तथा पारिवारिक संस्कृति में व्याप्त घरेलू विधानों
को हमारे यहाँ के लोग कथावाचक पारम्परिक और उत्कृष्ट कलेवर में प्रस्तुत करते
हैं,फिर चाहे फड़ वाचन हो या कावड़ वाचन.इन लोकगाथाओं एवं लोक कथाओं में जहाँ कुछ
समय के लिए श्रोता एवं दर्शक अपनी व्यथा संताप भूलकर अविस्मरणीय लोक – गाथाओं एवं
कथाओं में अभिव्यक्त लोक कल्याणकारी संदेश रुपी संजीवनी के माध्यम से जीवन जीने का
सच्चा आश्वासन प्राप्त करते हैं,वहीँ कलाकार देश की गौरवमयी प्रतिष्ठा और
संस्कृति को उजागर करते हुए अपनी उत्कृष्टप्रतिभा का
परिचय देते हैं.
विशिष्टता यह है कि लोक कल्याण से सम्बद्ध इन कथाओं में निहित संदेश सार्वभौम
होता है,भले ही संस्कृतियाँ भिन्न हों.कपड़े पर चित्रित सूफी – संत, शौर्य वीर
गाथाओं के चित्रण की राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के शाहपुरा की अपनी विशिष्ट शैली
है,जिसे फड़ चित्रण के नाम से जाना जाता है. इसी प्रकार चितौड़गढ़ से बीस किलोमीटर
दूर स्थित बस्सी की शिल्प एवं काष्ठ शिल्पकला वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आई है.
लकड़ी पर विविध कारीगरी करने वाले ये काष्ठतक्षक कलाकार अपनी विरासती पारम्परिक
कला को आज भी उतनी ही लगन से संयोजित कर रहे हैं.काष्ठ निर्मित विविध कलात्मक
रूपाकारों में कठपुतली,ईसर,तोरण,बाजोट मानक थंभ चौपड़
खाड़े,मुखौटे,प्रतिमाएं,बेवाण,झूले पाटले गाडुले और कावड़ प्रमुख हैं.
मेवाड़ रियासत काल में चित्तौडगढ़ के ग्राम बस्सी की उत्कृष्ट काष्ठकला का
इतिहास बड़ा रोचक है.कहा जाता है कि तत्कालीन बस्सी के शासक गोविन्ददास रावत ने ही
सर्वप्रथम काष्ठ कला के सिद्धहस्त कलाकार प्रभात जी सुधार को टौंक जिले के मालपुरा
कस्बे से बुलाकर उन्हें एवं उनके परिवार को न केवल सम्मान एवं संरक्षण ही प्रदान
किया अपितु काष्ठ शिल्प परम्परा को भी प्रोत्साहित करते हुए कला को विविध नए आयाम दिलवाए.
उल्लेखनीय है कि बस्सी के शिल्पकारों ने उदयपुर के सुप्रसिद्ध लेक पैलेस,शिव निवास महल और चितौड़ दुर्ग में स्थित ऐतिहासिक फतह प्रकाश महल में अपनी मनमोहक चित्ताकर्षक चित्रकारी और रंगाई आदि की कलात्मक छाप छोड़ी है.बस्सी की उत्कृष्ट काष्ठकला लगभग दो हजार वर्ष प्राचीन मानी जाती है.
मेवाड़ रियासती ठिकाने के शासक गोविन्ददास जी के द्वारा सम्मान और संरक्षण प्राप्त प्रभात जी सुधार ने सर्वप्रथम एक उत्कृष्ट सुंदर आदमकद गणगौर बनाकर इन्हीं को भेंट की थी.कहा जाता है कि तीन सौ पचास वर्ष पूर्व पुरानी यह गणगौर आज भी बस्सी ठिकाने में सुरक्षित है.
कावड़ पर पहली परत ‘इंटाला’ के सूखने पर बड़ल्यास गाँव के लाल पत्थर को घिसकर इसमें गोंद मिलाकर पुनः चार-पांच बार इस मिश्रण के लेप की परत चढ़ाते हैं.सूखने के बाद मूलतः चटक लाल रंग पर विविध पारंपरिक रंगों से भांति – भांति की क्रमवार कथा चित्रण एवं मांडने आदि चित्रित किये जाते हैं.पीढ़ियों से काष्ठ की पारम्परिक कलाकृति निर्माण से यहाँ के कई कलाकार जुड़े हुए हैं.
उल्लेखनीय है कि बस्सी के शिल्पकारों ने उदयपुर के सुप्रसिद्ध लेक पैलेस,शिव निवास महल और चितौड़ दुर्ग में स्थित ऐतिहासिक फतह प्रकाश महल में अपनी मनमोहक चित्ताकर्षक चित्रकारी और रंगाई आदि की कलात्मक छाप छोड़ी है.बस्सी की उत्कृष्ट काष्ठकला लगभग दो हजार वर्ष प्राचीन मानी जाती है.
मेवाड़ रियासती ठिकाने के शासक गोविन्ददास जी के द्वारा सम्मान और संरक्षण प्राप्त प्रभात जी सुधार ने सर्वप्रथम एक उत्कृष्ट सुंदर आदमकद गणगौर बनाकर इन्हीं को भेंट की थी.कहा जाता है कि तीन सौ पचास वर्ष पूर्व पुरानी यह गणगौर आज भी बस्सी ठिकाने में सुरक्षित है.
इसके बाद तो काष्ठ – तक्षण – चित्रण – शिल्प क्षेत्र में एक से बढ़कर नित नए आयाम
जुड़ते गए.इसी श्रृंखला की एक कड़ी है कावड़,जो कि धार्मिक आस्था और पारंपरिक
आयामों से जुड़ा लकड़ी का चित्रोपम चलता –फिरता देवघर है. विविध कपाटों में परत - दर
- परत खुलने और बंद होने वाले इस देवालय की विलक्षण विशिष्टताएं हैं.
दीनानाथ हो या दीनबंधु यह देवालय खुद ब खुद उन दीन – दुखियों के पास पहुँचता है,जो लोग दर्शनार्थ भ्रमण के लिए आर्थिक रूप से समर्थ नहीं होते, अर्थात् यहाँ भक्त नहीं, अपितु भगवान स्वयं ही पहुँचते हैं,अपने श्रद्धालु के पास.कावड़ में चित्रित देवी – देवताओं के दर्शनार्थ कावड़ के विभिन्न पाटों को खुलवाना ,धूप अर्चना करके भेंट पूजा चढ़ाना अर्थात सात लोकों में स्वर्गारोहण और नाम अमर होने – जैसे महान पुण्य की प्राप्ति का सौभाग्य होता है.
दीनानाथ हो या दीनबंधु यह देवालय खुद ब खुद उन दीन – दुखियों के पास पहुँचता है,जो लोग दर्शनार्थ भ्रमण के लिए आर्थिक रूप से समर्थ नहीं होते, अर्थात् यहाँ भक्त नहीं, अपितु भगवान स्वयं ही पहुँचते हैं,अपने श्रद्धालु के पास.कावड़ में चित्रित देवी – देवताओं के दर्शनार्थ कावड़ के विभिन्न पाटों को खुलवाना ,धूप अर्चना करके भेंट पूजा चढ़ाना अर्थात सात लोकों में स्वर्गारोहण और नाम अमर होने – जैसे महान पुण्य की प्राप्ति का सौभाग्य होता है.
लोकमन की स्मृति को प्रतिष्ठित करती इस कावड़ का मूल उद्देश्य आरंभ में गौरक्षा
एवं गौसंवर्धन से जुड़ा था क्योंकि कावड़ वाचन से प्राप्त दान- दक्षिणा को सुरक्षित रखने हेतु कावड़ के भीतर एक गुप्तवाड़ी
बनी रहती थी जिसमें एकत्रित दान – दक्षिणा से गाय को घास डाली जाती थी,इसका उल्लेख
अति प्राचीन कावड़ में लिखित इबारतों में मिलता है.परन्तु समय में बदलाव के साथ दान
–दक्षिणा बंद होने से कावड़ केवल देवघर के रूप में ही शेष रह गई, जिसमें रामायण,महाभारत,कुंती, द्रोपदी,भीम,कृष्ण लीला, रामलीला तथा लोक देवता संबंधी गाथा – कथा
– वृत्तांत दिखाए – सुनाये जाने लगे.
कावड़ियों
द्वारा लयबद्ध वाचन शैली रामदला पड़वाचन शैली के ही समकक्ष है.वाचन से पूर्व
कावड़िया, कावड़ को अपनी गोद में बिछे वस्त्र पर रखता है,तत्पश्चात प्रत्येक पट व्
चित्र को मोर पंख का स्पर्श देकर वाचन आरंभ करता है.
कावड़ बनाने की पुश्तैनी कला में, जहाँ काष्ठ निर्मित कावड़ में काष्ठ तक्षण का
अनुपम शिल्प सृजन करते हैं वहीँ इसमें उपयोगी विविध रंग भी वे स्वयं ही बनाते हैं.पारंपरिक रंगों में मूलतः चमकदार चटकीले रंगों का ही प्रयोग होता है.कवेलू के
टुकड़ों को बारीक़ पीस –छानकर गोंद मिलाकर उसमें लगाये जाने वाले घोंटा को ‘इंटाला’
कहते हैं.
कावड़ पर पहली परत ‘इंटाला’ के सूखने पर बड़ल्यास गाँव के लाल पत्थर को घिसकर इसमें गोंद मिलाकर पुनः चार-पांच बार इस मिश्रण के लेप की परत चढ़ाते हैं.सूखने के बाद मूलतः चटक लाल रंग पर विविध पारंपरिक रंगों से भांति – भांति की क्रमवार कथा चित्रण एवं मांडने आदि चित्रित किये जाते हैं.पीढ़ियों से काष्ठ की पारम्परिक कलाकृति निर्माण से यहाँ के कई कलाकार जुड़े हुए हैं.
सांस्कृतिक अभिरूचि की सोपान कावड़ की मांग में वृद्धि के फलस्वरूप यह कला पूर्णतया व्यावसायिक बन गई.अब कला अपने मूल उद्देश्य से भटककर केवल ड्राइंगरूम में सज्जात्मक वस्तु का स्वरूप बनकर रह गई है.