Thursday, December 17, 2015

दिलीप कुमार के बहाने

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पिछले दिनों जब पद्म विभूषण सम्मान लेते दिलीप साहब का भावहीन चेहरा टीवी पर देखा तो बहुत कुछ रीत गया.दिलीप साहब को ऐसे देखने की आदत नहीं थी.शायद वे इस दुनियां में रहते हुए भी यहाँ से मीलों दूर थे.बचपन से ही उनकी फ़िल्में देखते हुए बड़े हुए एक पूरी पीढ़ी के लिए सदमे जैसा था.हम सबके लिए तो वे वही दिलीप कुमार थे जो भोली मुस्कान लिए सिनेमाई परदे पर कौतूहल जगा देते.

बहरहाल,वक्त किसी का मोहताज नहीं होता.यह आम इन्सान और करिश्माई व्यक्तित्व में फर्क नहीं करता.उम्र का असर हर किसी पर होता है.पर जिसे हर वक्त कुछ अलग रूप में देखने की आदत होती है उसे किसी और रूप में देखने पर शॉक जैसा जरूर लगता है.

युसूफ खान दिलीप कुमार कैसे बने यह एक अलग वाकया है  लेकिन आज दिलीप साहब के बहाने एक पुराने वाकये की याद ताजा हो आई.पापा तब बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में बिहार के मुंगेर जिले में पदस्थापित थे.उनकी सरकारी जीप के ड्राईवर रिजवान और अर्दली मसी थे.रिजवान कोई २६-२७ साल का नवयुवक था.मैं तब स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहा था.

रिजवान से मेरी खूब पटती थी.इसका कारण यह भी था कि वह मुझे जीप चलाने से कभी नहीं रोकता था.रिजवान और मसी दोनों घर के सदस्य जैसे थे.कई बार हमलोगों को गाँव पहुंचाने भी चले आते.खाने पर माँ उन्हें बुलाने को कहती तो हम सब उन्हें ढूंढते रहते.बाद में पता चलता कि वे पड़ोस में मेहमाननवाजी का लुत्फ़ उठा रहे हैं.यहाँ तक कि सोने के लिए भी घर नहीं आते.

बाद में एक पड़ोसी ने बताया कि राजेन्द्र जी और महेंद्र जी का स्वभाव बहुत अच्छा है.मैं चौंक गया.राजेन्द्र और महेंद्र कौन हैं? अरे वही,आपके ड्राईवर और पिऊन.मैंने मन ही मन में सोचा तो,रिजवान राजेन्द्र और मसी महेंद्र बन गए हैं.जब वापस सपरिवार मुंगेर लौटते तो हम सब भाई-बहन इस वाकये पर खूब हँसते.

जब कभी रिजवान सामने दिख जाता तो उनसे पूछता,राजेन्द्र जी कैसे हैं? और महेंद्र जी कहाँ हैं.दोनों हम लोगों के साथ खूब ठहाका लगाते.मैंने उनसे कहा,यदि आप नाम नहीं बदलते तो भी आपकी इतनी ही खातिरदारी होती.

आज इस वाकये को कई वर्ष बीत चुके हैं.रिजवान शायद अभी भी नौकरी में होंगे और मसी रिटायर हो चुके होंगे लेकिन जब कभी भी सियासतदानों की असहिष्णुता पर सियासत करते देखता हूँ तो यह सोचने लगता हूँ कि शायद उन लोगों को हमारी गंगा-जमुनी तहजीब से वास्ता न पड़ा होगा.यह तहजीब तो हमारे दिल में बसता है.

Saturday, December 12, 2015

पौराणिक कथाओं के पात्र

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पौराणिक कथाओं को पढ़ते या सुनते समय अक्सर यह प्रश्न उठता रहा है कि क्या पुराण कथाओं के पात्र पशु-पक्षी थे?कूर्म पुराण की एक कथा के अनुसार अमृत प्राप्त करने के लिए देवता और दैत्य जब समुद्र मंथन करने लगे तब भगवान ने कछुआ का अवतार लिया और समुद्र में प्रवेश करके मंदरांचल को पीठ पर धारण किया.

वाराह पुराण के अनुसार जब हिरण्याक्ष दैत्य धरती की चटाई पाताल ले गया,तो वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष का वध किया और अपने एक ही दंष्ट्र पर धारण करके पृथ्वी का उद्धार किया और उसे शेषनाग के फण पर प्रतिष्ठित किया.इस प्रकार विष्णु के दस अवतारों में से प्रथम तीन अवतार मानवेतर हैं.

विष्णु के चौथे अवतार नृसिंह का स्वरूप अर्ध-मानुषी है अर्थात आधा शरीर मनुष्य का और आधा सिंह का.पुराण कथाओं के ऐसे अन्य देवताओं में गणेश,हयग्रीव(सिर घोड़े का तथा धड़ मनुष्य का) और हनुमान(मुख और पूंछ बंदर की तथा शेष शरीर मानवीय) प्रमुख हैं.भारत ही नहीं चीन,जापान और तिब्बत में भ नाग कन्याओं का आधा रूप सर्प का तथा आधा मनुष्य जैसा है.गरुड़ के संबंध में पुराणों में बताया गया है कि उसके मस्तक पर चोंच तथा नख तो गरुड़ पक्षी के समान तथा शरीर और इन्द्रियां मनुष्य जैसी थीं.

पुराण कथाओं के पशु-पक्षी पात्रों का एक रूप देवी-देवता के वाहन के रूप में है – जैसे ऐरावत हाथी(इंद्र का वाहन,गरुड़(विष्णु),सिंह(दुर्गा),हंस(ब्रह्मा,सरस्वती,बैल(शिव),मूषक(गणेश),उल्लू(लक्ष्मी का वाहन).पुराण कथाओं के स्रोत के रूप में पक्षी भी मिलते हैं.एक ओर रामायण कथाओं के स्रोत के रूप में काक भुशुंडी हैं तो भागवत कथाओं के स्रोत शुक हैं.

इन पुराण कथाओं या मिथक कथाओं की भूमिका मात्र विश्वास के कारण ही है या इनकी कुछ सार्थकता भी है.इतिहास में ऐसा कई बार हुआ है कि आक्रमण हुए,अकाल पड़ा,तूफ़ान आए,बाढ़,भूकंप आए और मानव जातियां एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर चली गयीं.परंतु 

लोकवार्ताविज्ञान(फोकलोरिस्टीक्स) जानता है कि वे पुराकथाएँ वहां भी उनके साथ थीं,जो दादी से मां ने और मां से बेटी ने इसलिए सुनी थीं कि व्यक्ति का मन सामाजिक बन सके.एक मानवजाति दूसरी मानवजाति से मिली और एक पुराकथा दूसरी पुराकथा से मिली.भौगोलिक और सामाजिक परिवेश के परिवर्तन के साथ पुराकथाओं का भी कायाकल्प हुआ.

आज व्यक्ति और जनसमूह की पहचान भौगोलिक – संदर्भों,नस्लों,वंशों,पेशों और धर्मसंप्रदायों के आधार पर की जाती हैं,व्यापक संदर्भों में राष्ट्रीयता से तथा संकीर्ण संदर्भों में जाति,संप्रदाय,प्रांत और क्षेत्रों से. परंतु कबीलों के ज़माने में यह पहचान गणगोत्र के आधार पर की जाती थी. मानवेतर प्राणी को गण का देवता माना जाता था और गण के सभी सदस्य उसकी पूजा करते थे.पुरा कथाओं में पशु-पक्षी तथा मानवेतर प्राणियों का उल्लेख दो अर्थो में है या तो वह गण या जनजाति की सूचक है या देवता का सूचक है.

आज के समय में पुरा कथाओं के असंगत लगने का कारण यह है कि युग-परिवर्तन के साथ मनुष्य का अपने परिवेश के साथ संबंध बदल जाता है.आज की पीढ़ी अपने को प्रकृति से श्रेष्ठ मानता है परंतु   पुराकथाओं वाला मनुष्य प्रकृति में अपनी ही चेतना को देखता था और दिव्यता का आभास पाता था.इसलिए सूर्य की वैज्ञानिक अवधारणा सूर्य की पौराणिक अवधारणा से अलग है.पुराकथाओं के असंगत लगने का कारण लोकमानस की वह प्रवृत्ति है,जो लौकिक से अलौकिक की और है तथा जिसके संस्पर्श से सब कुछ दिव्य हो जाता है – धरती,पहाड़,आकाश,मेघ,समुद्र,वृक्ष,पशु,पक्षी सब देवस्वरूप बन जाते हैं.

वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान संस्कृत और प्राकृत भाषाओँ के ज्ञाता थे.हनुमान से पहले ही वार्तालाप में राम जान लेते हैं कि हनुमान चारों वेदों का ज्ञाता है.अशोक वाटिका में सीता से भेंट करे समय हनुमान सोचते हैं कि मैं कौन सी भाषा में बात करूं.......

यदि वाचं प्रदास्यामि हिजतिरिव संस्कृताम्
रावणं मन्यमानां तों सीता भीता भविष्यति |

क्या भाषाओँ पर ऐसा अधिकार किसी कपि या बंदर का हो सकता है?इसलिए डॉ. कामिल बुल्के ने स्पष्ट बताया था कि हनुमान वास्तव में वानरगोत्रीय आदिवासी थे.

इतिहास में मूषक,मत्स्य,कूर्म,कुक्कुर और वानर नामक टोटम जातियों का उल्लेख प्राप्त होता है.टोटम जातियों में सर्प-उपासक नागजाति का इतिहास तो बहुत समृद्ध है.इतिहास में नागराजाओं को उत्तम स्थापत्यकार,न्यायप्रिय और उत्तम रासायनिक बताया गया है.तक्षशिला,मथुरा नगर उन्होंने बसाये थे.रासायनिक नागार्जुन नागराज-पुत्रों में से था.

पुराणों में नाग और गरूड़ दोनों ही कश्यप की संतान हैं.पुराणों के अनुसार विष्णु शेषनाग पर शयन करते हैं.कृष्ण जन्म के समय शेषनाग फण फैलाकर उनकी रक्षा करता है.बलराम शेष के अवतार हैं.शिव के साथ सार्थ नाग हैं.

पौराणिक कथाओं के पात्र पशु-पक्षी सामान्य पशु-पक्षी नहीं हैं,वहां उनका अर्थ गहरा है जिसे हम गणगोत्र या टोटम के सूत्र से समझ सकते हैं.टोटम का इतिहास मानवीय धारणाओं ,देवताओं और जनजातियों की युगयात्रा और सामाजिक विकास की आत्मकथा है.भारतीय संस्कृति में इस तरह की अनेक धाराएं समायी हुई हैं.