Thursday, December 17, 2015

दिलीप कुमार के बहाने

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पिछले दिनों जब पद्म विभूषण सम्मान लेते दिलीप साहब का भावहीन चेहरा टीवी पर देखा तो बहुत कुछ रीत गया.दिलीप साहब को ऐसे देखने की आदत नहीं थी.शायद वे इस दुनियां में रहते हुए भी यहाँ से मीलों दूर थे.बचपन से ही उनकी फ़िल्में देखते हुए बड़े हुए एक पूरी पीढ़ी के लिए सदमे जैसा था.हम सबके लिए तो वे वही दिलीप कुमार थे जो भोली मुस्कान लिए सिनेमाई परदे पर कौतूहल जगा देते.

बहरहाल,वक्त किसी का मोहताज नहीं होता.यह आम इन्सान और करिश्माई व्यक्तित्व में फर्क नहीं करता.उम्र का असर हर किसी पर होता है.पर जिसे हर वक्त कुछ अलग रूप में देखने की आदत होती है उसे किसी और रूप में देखने पर शॉक जैसा जरूर लगता है.

युसूफ खान दिलीप कुमार कैसे बने यह एक अलग वाकया है  लेकिन आज दिलीप साहब के बहाने एक पुराने वाकये की याद ताजा हो आई.पापा तब बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में बिहार के मुंगेर जिले में पदस्थापित थे.उनकी सरकारी जीप के ड्राईवर रिजवान और अर्दली मसी थे.रिजवान कोई २६-२७ साल का नवयुवक था.मैं तब स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहा था.

रिजवान से मेरी खूब पटती थी.इसका कारण यह भी था कि वह मुझे जीप चलाने से कभी नहीं रोकता था.रिजवान और मसी दोनों घर के सदस्य जैसे थे.कई बार हमलोगों को गाँव पहुंचाने भी चले आते.खाने पर माँ उन्हें बुलाने को कहती तो हम सब उन्हें ढूंढते रहते.बाद में पता चलता कि वे पड़ोस में मेहमाननवाजी का लुत्फ़ उठा रहे हैं.यहाँ तक कि सोने के लिए भी घर नहीं आते.

बाद में एक पड़ोसी ने बताया कि राजेन्द्र जी और महेंद्र जी का स्वभाव बहुत अच्छा है.मैं चौंक गया.राजेन्द्र और महेंद्र कौन हैं? अरे वही,आपके ड्राईवर और पिऊन.मैंने मन ही मन में सोचा तो,रिजवान राजेन्द्र और मसी महेंद्र बन गए हैं.जब वापस सपरिवार मुंगेर लौटते तो हम सब भाई-बहन इस वाकये पर खूब हँसते.

जब कभी रिजवान सामने दिख जाता तो उनसे पूछता,राजेन्द्र जी कैसे हैं? और महेंद्र जी कहाँ हैं.दोनों हम लोगों के साथ खूब ठहाका लगाते.मैंने उनसे कहा,यदि आप नाम नहीं बदलते तो भी आपकी इतनी ही खातिरदारी होती.

आज इस वाकये को कई वर्ष बीत चुके हैं.रिजवान शायद अभी भी नौकरी में होंगे और मसी रिटायर हो चुके होंगे लेकिन जब कभी भी सियासतदानों की असहिष्णुता पर सियासत करते देखता हूँ तो यह सोचने लगता हूँ कि शायद उन लोगों को हमारी गंगा-जमुनी तहजीब से वास्ता न पड़ा होगा.यह तहजीब तो हमारे दिल में बसता है.

Saturday, December 12, 2015

पौराणिक कथाओं के पात्र

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पौराणिक कथाओं को पढ़ते या सुनते समय अक्सर यह प्रश्न उठता रहा है कि क्या पुराण कथाओं के पात्र पशु-पक्षी थे?कूर्म पुराण की एक कथा के अनुसार अमृत प्राप्त करने के लिए देवता और दैत्य जब समुद्र मंथन करने लगे तब भगवान ने कछुआ का अवतार लिया और समुद्र में प्रवेश करके मंदरांचल को पीठ पर धारण किया.

वाराह पुराण के अनुसार जब हिरण्याक्ष दैत्य धरती की चटाई पाताल ले गया,तो वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष का वध किया और अपने एक ही दंष्ट्र पर धारण करके पृथ्वी का उद्धार किया और उसे शेषनाग के फण पर प्रतिष्ठित किया.इस प्रकार विष्णु के दस अवतारों में से प्रथम तीन अवतार मानवेतर हैं.

विष्णु के चौथे अवतार नृसिंह का स्वरूप अर्ध-मानुषी है अर्थात आधा शरीर मनुष्य का और आधा सिंह का.पुराण कथाओं के ऐसे अन्य देवताओं में गणेश,हयग्रीव(सिर घोड़े का तथा धड़ मनुष्य का) और हनुमान(मुख और पूंछ बंदर की तथा शेष शरीर मानवीय) प्रमुख हैं.भारत ही नहीं चीन,जापान और तिब्बत में भ नाग कन्याओं का आधा रूप सर्प का तथा आधा मनुष्य जैसा है.गरुड़ के संबंध में पुराणों में बताया गया है कि उसके मस्तक पर चोंच तथा नख तो गरुड़ पक्षी के समान तथा शरीर और इन्द्रियां मनुष्य जैसी थीं.

पुराण कथाओं के पशु-पक्षी पात्रों का एक रूप देवी-देवता के वाहन के रूप में है – जैसे ऐरावत हाथी(इंद्र का वाहन,गरुड़(विष्णु),सिंह(दुर्गा),हंस(ब्रह्मा,सरस्वती,बैल(शिव),मूषक(गणेश),उल्लू(लक्ष्मी का वाहन).पुराण कथाओं के स्रोत के रूप में पक्षी भी मिलते हैं.एक ओर रामायण कथाओं के स्रोत के रूप में काक भुशुंडी हैं तो भागवत कथाओं के स्रोत शुक हैं.

इन पुराण कथाओं या मिथक कथाओं की भूमिका मात्र विश्वास के कारण ही है या इनकी कुछ सार्थकता भी है.इतिहास में ऐसा कई बार हुआ है कि आक्रमण हुए,अकाल पड़ा,तूफ़ान आए,बाढ़,भूकंप आए और मानव जातियां एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर चली गयीं.परंतु 

लोकवार्ताविज्ञान(फोकलोरिस्टीक्स) जानता है कि वे पुराकथाएँ वहां भी उनके साथ थीं,जो दादी से मां ने और मां से बेटी ने इसलिए सुनी थीं कि व्यक्ति का मन सामाजिक बन सके.एक मानवजाति दूसरी मानवजाति से मिली और एक पुराकथा दूसरी पुराकथा से मिली.भौगोलिक और सामाजिक परिवेश के परिवर्तन के साथ पुराकथाओं का भी कायाकल्प हुआ.

आज व्यक्ति और जनसमूह की पहचान भौगोलिक – संदर्भों,नस्लों,वंशों,पेशों और धर्मसंप्रदायों के आधार पर की जाती हैं,व्यापक संदर्भों में राष्ट्रीयता से तथा संकीर्ण संदर्भों में जाति,संप्रदाय,प्रांत और क्षेत्रों से. परंतु कबीलों के ज़माने में यह पहचान गणगोत्र के आधार पर की जाती थी. मानवेतर प्राणी को गण का देवता माना जाता था और गण के सभी सदस्य उसकी पूजा करते थे.पुरा कथाओं में पशु-पक्षी तथा मानवेतर प्राणियों का उल्लेख दो अर्थो में है या तो वह गण या जनजाति की सूचक है या देवता का सूचक है.

आज के समय में पुरा कथाओं के असंगत लगने का कारण यह है कि युग-परिवर्तन के साथ मनुष्य का अपने परिवेश के साथ संबंध बदल जाता है.आज की पीढ़ी अपने को प्रकृति से श्रेष्ठ मानता है परंतु   पुराकथाओं वाला मनुष्य प्रकृति में अपनी ही चेतना को देखता था और दिव्यता का आभास पाता था.इसलिए सूर्य की वैज्ञानिक अवधारणा सूर्य की पौराणिक अवधारणा से अलग है.पुराकथाओं के असंगत लगने का कारण लोकमानस की वह प्रवृत्ति है,जो लौकिक से अलौकिक की और है तथा जिसके संस्पर्श से सब कुछ दिव्य हो जाता है – धरती,पहाड़,आकाश,मेघ,समुद्र,वृक्ष,पशु,पक्षी सब देवस्वरूप बन जाते हैं.

वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान संस्कृत और प्राकृत भाषाओँ के ज्ञाता थे.हनुमान से पहले ही वार्तालाप में राम जान लेते हैं कि हनुमान चारों वेदों का ज्ञाता है.अशोक वाटिका में सीता से भेंट करे समय हनुमान सोचते हैं कि मैं कौन सी भाषा में बात करूं.......

यदि वाचं प्रदास्यामि हिजतिरिव संस्कृताम्
रावणं मन्यमानां तों सीता भीता भविष्यति |

क्या भाषाओँ पर ऐसा अधिकार किसी कपि या बंदर का हो सकता है?इसलिए डॉ. कामिल बुल्के ने स्पष्ट बताया था कि हनुमान वास्तव में वानरगोत्रीय आदिवासी थे.

इतिहास में मूषक,मत्स्य,कूर्म,कुक्कुर और वानर नामक टोटम जातियों का उल्लेख प्राप्त होता है.टोटम जातियों में सर्प-उपासक नागजाति का इतिहास तो बहुत समृद्ध है.इतिहास में नागराजाओं को उत्तम स्थापत्यकार,न्यायप्रिय और उत्तम रासायनिक बताया गया है.तक्षशिला,मथुरा नगर उन्होंने बसाये थे.रासायनिक नागार्जुन नागराज-पुत्रों में से था.

पुराणों में नाग और गरूड़ दोनों ही कश्यप की संतान हैं.पुराणों के अनुसार विष्णु शेषनाग पर शयन करते हैं.कृष्ण जन्म के समय शेषनाग फण फैलाकर उनकी रक्षा करता है.बलराम शेष के अवतार हैं.शिव के साथ सार्थ नाग हैं.

पौराणिक कथाओं के पात्र पशु-पक्षी सामान्य पशु-पक्षी नहीं हैं,वहां उनका अर्थ गहरा है जिसे हम गणगोत्र या टोटम के सूत्र से समझ सकते हैं.टोटम का इतिहास मानवीय धारणाओं ,देवताओं और जनजातियों की युगयात्रा और सामाजिक विकास की आत्मकथा है.भारतीय संस्कृति में इस तरह की अनेक धाराएं समायी हुई हैं.

Thursday, November 19, 2015

कल्पना से उभरती एक विद्या

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सदियों से कीमियागिरी एवं कीमियागर के संबंध में एक रहस्यमय धुंध लिपटा रहा है.चर्चित लेखकों और उपन्यासकारों ने अपने कथानक में इसे जगह देकर इसे और जीवंत कर दिया है.पाओलो कोएलो की प्रमुख पुस्तक का शीर्षक ही ‘कीमियागर’ (The Alchemist) था.इस पुस्तक के आखिर में एक कीमियागर का वर्णन मिलता है जो धातुओं को रासायनिक मिश्रण में मिलाकर सोना बनाता है? लेकिन क्या हकीकत में पहले कभी कीमियागर होते थे या ये सिर्फ काल्पनिक चरित्र ही हैं.

प्राचीन हिंदू ग्रंथों में कीमियागिरी के संबंध में कुछ नुस्खों का वर्णन मिलता है लेकिन इसका अर्थ निकालना आसान नहीं है....

तोरस,मोरस,गंधक,पारा
इन्हिं मार इक नाग संवारा
नाग मार नागिन को देय
सारा जग कंचन कंचन कर लेय


फ़्रांस के दो कीमियागर बहुत प्रसिद्ध रहे हैं – निकोलस फ्लामेल और जकेयर. फ्लामेल का जिक्र जे.के. रॉलिंग की हैरी पॉटर सीरिज की पहली किताब हैरी पॉटर और पारस पत्थर (Harry Potter and the Philosopher’s Stone) में निकोलस फ्लामेल नामक रसायनशास्त्री के रूप में हुआ है जिन्होंने पारस पत्थर बनाया था और जिसके स्पर्श से धातु सोने में परिवर्तित हो जाता था.इसके अलावा प्रसिद्ध उपन्यासकार डैन ब्राउन की बहुचर्चित पुस्तक द दाविंची कोड (The Davinchi Code) में भी फ्लामेल का जिक्र मिलता है.

फ्लामेल के संबंध में यह कहा जाता है कि वह पुरानी पुस्तकों को खरीदता और बेचता था.एक रात स्वप्न में उसे एक परी ने एक पुस्तक दिखलायी और कहा ‘फ्लामेल ! देखो, इस पुस्तक को. न तुम इसे समझ पाओगे और न कोई दूसरा ही,पर एक दिन ऐसा आएगा,जब तुम इसमें एक ऐसी चीज देखोगे,जो किसी और को नसीब न होगी.’ फ्लामेल ने हाथ बढ़ाया इस पुस्तक को लेने को,पर वह ले न सका.परी और वह पुस्तक दोनों ही एक सुनहरे मेघ में विलीन हो गयीं.

पेरिस में फ्लामेल का घर जहाँ अब रेस्तरां है 
फ्लामेल इस स्वप्न को भूल सा गया ,किंतु कुछ दिनों बाद, एक दिन एक अज्ञात व्यक्ति ने पैसों की खातिर उसके घर पर आकर एक पुरानी किताब बेची.जिसे देखते ही क्लामेल को भूले हुए स्वप्न की याद आ गयी.यह वही पुस्तक थी जिसे उसने स्वप्न में देखा था.फ्लामेल लिखता है........

दो फ़्लोरिन(सिक्का) में मुझे वह पुस्तक प्राप्त हुई,जो सुनहरे जिल्द की थी.एक बड़े आकार की और बहुत ही पुरानी पुस्तक थी.इसके पन्ने अन्य पुस्तकों की तरह कागज के नहीं बल्कि वृक्ष की छाल के थे.इसकी जिल्द तांबे की थी – बहुत कोमल.इसके ऊपर विचित्र प्रकार के अक्षर और रेखाओं से बनी हुई आकृतियां थीं.मैं इन्हें पढ़ने में असमर्थ था,सोचा शायद ये ग्रीक या ऐसी ही किसी और प्राचीन भाषा के शब्द हैं.छाल पृष्ठों पर लैटिन अक्षर खुदे हुए थे.पुस्तक के सात पृष्ठ तीन बार आते थे,पर इनका सातवां पृष्ठ हर बार अलिखित-कोरा ही आता था.पर पहली सिरीज के सातवें पृष्ठ पर एक डंडा बना हुआ था और दो सर्प,जो एक दूसरे को निगल रहे थे.

दूसरी सिरीज के सातवें पन्ने पर एक क्रॉस बना हुआ था,जिस पर एक सर्प फांसी पर लटकाया गया था.अंतिम सिरीज के सातवें पृष्ठ पर एक रेगिस्तान अंकित था,जिसके मध्य भाग से सुंदर झरने निकले हुए थे जिसमें से अनेक सर्प निकलकर जहां-तहां बिखर गए थे.प्रथम पृष्ठ पर ऐसे लोगों के लिए,जो लेखक या बलि देने वाले न होकर भी इस पुस्तक को पढ़ना चाहें,कई प्रकार के अभिशाप लिखे हुए थे.

पेरिस में फ्लामेल के नाम पर सड़क
पुस्तक के सभी पृष्ठों पर तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई थीं - सक्रिय व्यक्तियों और सर्प आदि की,पर कोई व्याख्या,किसी भी भाषा में न थी.ये सभी किसी बात के सूचक थे ,पर लाख कोशिशें करने पर भी फ्लामेल इन्हें समझने में व्यर्थ रहा.वह इतना अवश्य समझता था कि इनमें स्वर्ण निर्माण की प्रक्रियाएं बतायी गयी हैं.वह इन्हें जानने के लिए बैचैन रहने लगा,रात-दिन इसी प्रयास में रहता कि किसी तरह वह इन्हें समझ पाए.भूख-प्यास और नींद हराम हो गयी.वह इस ग्रंथ को किसी और को दिखाना भी नहीं   चाहता था.अंत में उसने एक तरीका निकाला और उसने पुस्तक के कुछ चित्रों की नकलकर उसे अपनी दुकान में टांग दिया और लोगों से उनकी व्याख्या पूछना शुरू कर दिया.

एनसेलम नामक एक चिकित्सक कीमिया में दिलचस्पी रखता था.एक दिन उसकी दृष्टि इन चित्रों पर पड़ी और वह समझ गया कि ये चित्र जरूर ही किसी कीमिया-ग्रंथ के हैं,पर फ्लामेल ने भेद नहीं खोला. उसे असलियत न बताकर सिर्फ चित्रों की व्याख्या पूछी.वह भी इन्हें पूरी तरह समझने में असमर्थ रहा,पर कुछ अनुमानित बातें उसे बतायीं.जिनके आधार पर फ्लामेल इक्कीस साल तक सोना बनाने का निष्फल प्रयोग करता रहा.

बार-बार असफल होकर फ्लामेल का धैर्य छूटने सा लगा था,एक दिन अचानक उसके ध्यान में आया कि पुस्तक को लिखने वाला अब्राहम नामक कोई यहूदी था,अत; कोई यहूदी ही इसकी असली व्याख्या बता सकेगा.इस विचार के आते ही वह स्पेन के लिए रवाना हो गया,जहां यहूदी कीमियागरों के होने की उन दिनों शोहरत थी.पूरे एक वर्ष वह यहूदियों के मंदिरों में घूमता रहा,पर उसे वह व्यक्ति न मिला जो उसकी आकांक्षा पूरी करता.अंत में जब वह हताश होकर लौट रहा था तब उसकी भेंट एक ऐसे व्यक्ति से हुई जो उसका हमवतन था और पूर्व-परिचित भी.उसने उससे सारी बातें सुनने के बाद कहा कि वह एक ऐसे व्यक्ति को जानता है जो चित्र-लेखों को पढ़कर उनका रहस्य बताया करता है.

वह उसे कांशे नामक यहूदी के पास ले गया फ्लामेल ने चित्रों उनके साथ अंकित शब्दों की नकल को जो वह अपने साथ लाया था,उसे दिखाया.कांशे उन्हें देखते ही उछल पड़ा,बोला ये तो हिब्रू भाषा के उस महान ग्रन्थ के हैं,जिसे राबी अब्राहम ने लिखा था.यह तो अब अप्राप्य है,बहुत दिनों से यहूदी-समुदाय इसकी खोज करता आया है.और फिर उसने धाराप्रवाह उसके अर्थ बताने शुरू कर दिये.

मूल पुस्तक फ़्रांस में फ्लामेल के घर पर थी,इसलिए फ्लामेल के साथ कांशे भी फ़्रांस के लिए चल पड़ा.रास्ते में लंबे समुद्री यात्रा के अभ्यास नहीं होने और खराब स्वास्थ्य के कारण वह बेतरह बीमार हो गया.आरलियंस पहुँचते ही उसकी मृत्यु हो गयी.फ्लामेल उसे वहीँ एक चर्च में दफनाकर शोक संतप्त ह्रदय से घर लौटा और कांशे के बताए हुए अर्थों के सहारे पुनः पुस्तक पढ़ने और समझने के प्रयास में लग गया.

तीन वर्षों के अथक परिश्रम के बाद सफलता की कुंजी उसके हाथों में आयी.किताब पढ़-पढ़कर जिस प्रयोग में उसने तीन साल बिताये थे,उसका पूरा ज्ञान उसे हो गया.फ्लामेल उस रात को नहीं भूलता जब वह प्रयोग में जुटा था.सहसा पौंड लेड(एक धातु) चमकती हुई चांदी के रूप में निकल आया.फ्लामेल ने उस पर वह मिश्रण छोड़ी,जिसे वर्षों के परिश्रम के बाद तैयार की थी.तपाना जारी रखा ,धातु ने एक के बाद दूसरा,तीसरा,चौथा,पांचवां रंग बदला और अंत में वह एक सुर्ख रंग का गोला बन गया.

अर्द्ध निशा की नीरवता में फ्लामेल ने उसे आधा पौंड पारे में रखा.देखते ही देखते पारे के साथ मिलकर वह गोला स्वच्छ सोना बन गया.क्लामेल और उसकी पत्नी पर्नेल ख़ुशी से नाच उठे.फ्लामेल के जीवन की सबसे बड़ी मुराद पूरी हुई.इसके बाद फ्लामेल ने अपने जीवन में कितना सोना बनाया यह कहना मुश्किल है लेकिन अपने बनाये सोने की कीमत से चौदह अस्पताल,तीन चर्च और कम आय वाले लोगों के लिए कई घर बनवाये और कई दूसरी संस्थाओं को मदद दी.

सोना संबंधी अधिकांश पुस्तकों में सर्प का जिक्र आता है लेकिन यह किस वस्तु का लाक्षणिक शब्द है ,इस रहस्य का कभी पता नहीं चला.सोना बनाने के नुस्खे चाहे ने शब्दों में हों या चित्रों में – बड़े रहस्यपूर्ण होते थे,जिसका अर्थ कांशे जैसा कोई कीमियागर ही कर सकता था.कीमिया को संसार हमेशा से एक रहस्यपूर्ण विद्या ही समझता आया है.

Friday, October 16, 2015

देवी पूजा की शुरुआत

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सभी संस्कृतियों में मातृदेवी की पूजा किसी न किसी रूप में अवश्य ही मिलती है लेकिन भारतीय देवी-पूजा की विशेषता उसे विशिष्ट बनाती है.इसका कारण है उसकी अतीत से आधुनिक काल तक चली आ रही निर्बाध परंपरा और उसका निरंतर विकासशील स्वरूप.

हालांकि आधुनिक विचारकों ने प्राचीन युग में मातृदेवी की लोकप्रियता का कारण तत्कालीन मातृप्रधान, सामाजिक,आर्थिक व्यवस्था को माना है जिसमें पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था.जबकि,इसका कारण स्त्री की सृजनात्मक शक्ति में भी निहित हो सकता है,जिसने आदिम मानवों के ह्रदय में भय और आश्चर्य उत्पन्न किया होगा.

देवी-पूजा का आरंभ प्रायः सिन्धु घाटी सभ्यता से माना जाता है जिसके उपलब्ध अवशेषों में विभिन्न अलंकरणों से सुसज्जित स्त्री मूर्तियाँ मिली हैं जो विद्वानों के अनुसार महामातृदेवी या मातृरूप में स्थित प्रकृति की मूर्तियां हैं.यह मत भारत की धार्मिक अनुश्रुति के अनुकूल भी है क्योंकि यहाँ अनादिकाल से मातृदेवी,आद्याशक्ति या प्रकृति की पूजा प्रचलित रही है.जिसे वेदों में पृथ्वी भी कहा गया है,यही ऋग्वेद के आदित्यों की माता अदिति भी है.

वैदिक सभ्यता के पितृप्रधान होने के कारण उसमें देवों की अपेक्षा देवियों को अत्यंत गौण स्थान मिला.फिर भी ऋग्वेद के महत्वपूर्ण देवियों में अदिति,उषा,पृथ्वी,सरस्वती,वाच,रात्रि,इला,भारती आदि महत्वपूर्ण हैं क्योंकि कालांतर में स्वतंत्र अस्तित्व के कारण उनकी लोकप्रियता भी बढ़ी.उनकी कल्पना ने पौराणिक युग के सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में कल्पित देवी के स्वरूप के विकास में योग दिया.ऋग्वेद के देवीसूक्त में वर्णित वाच की कल्पना विशेष है जिसमें सर्प्रथम एक सार्वभौम स्त्री शक्ति की कल्पना की गई है.

अंबिका,दुर्गा,उमा,काली आदि बहुपरिचित नाम,जो देवी के विभिन्न रूप थे,उत्तर वैदिक कालीन साहित्य में प्राप्त होने लगते हैं.ऋग्वेद के खिल मंत्रों में अग्नि के साथ दुर्गा का जो वर्णन है वह काफी बाद का है.नारायणीयोपनिषद ईसापूर्व चौथी-तीसरी शती के पूर्व का नहीं माना जाता फिर भी इसमें अंबिका को दुर्गा,कन्याकुमारी,वैरोचनी और कात्यायनी नामों से विभूषित किया गया है.

भद्रकाली,भवानी,दुर्गा आदि विविध नाम शांखायन और हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र में भी प्राप्त होते हैं.बोधायन गृह्यसूत्र में दुर्गा देवी के भी पूजन की चर्चा है,वहां उन्हें आर्या,भगवती,महाकाली, महायोगिनी, शंखधारिणी तक नाम दिए गए हैं.इससे यह पता चलता है उत्तर वैदिक कालीन साहित्य में उन अंकुरों में का धीरे-धीरे विकास होने लगा था जो बाद में देवी-पूजा के रूप में विकसित हुए.

महाकाव्यों का युग आते-आते देवी पूजा का स्पष्ट विकास हो चुका था.यद्यपि रामायण में देवी के स्वरूप,उसकी पूजा पर कम प्रकाश डाला गया है फिर भी देवी से संबंधित कुछ पौराणिक कथानकों जैसे-हिमवंत द्वारा पुत्री उमा को विवाह में रूद्र को समर्पित करना दक्ष,यज्ञ,गंगावतरण आदि का समावेश है.

महाभारत में इन कथाओं का और भी विकसित स्वरूप मिलता है.महाभारत के भीष्मपर्व के तेईसवें अध्याय में युद्ध में विजयश्री प्राप्त करने के लिए कृष्ण की सम्मति से अर्जुन को दुर्गा की स्तुति करते दिखाया गया है.वहां दुर्गा को काली,कुमारी,कपालिनी,महाकाली,चंडी,कराला,उमा जैसे नामों से विभूषित किया गया है.

इसी प्रकार विराटपर्व के छठे अध्याय में युधिष्ठिर द्वारा भी दुर्गास्तुति की गयी है किंतु वहां उनकी स्तुति महिषासुरमर्दिनी के रूप में हुई है जो विंध्य पर्वत में निवास करती है तथा मदिरा,मांस,पशुबलि से प्रसन्न होती है.कृष्ण की भांति वे भी नील वर्ण की हैं और मयूर की कलंगी धारण करती हैं.


हरिवंश के दो अध्यायों एवं मार्कंडेय पुराण के एक अंश को देवी माहात्म्य कहते हैं.देवी माहात्म्य का रचना काल लगभग छठी शती माना जाता है.हरिवंश के अध्यायों में दुर्गा संप्रदाय(शाक्त संप्रदाय) के धार्मिक दर्शन का वर्णन मिलता है.उसके अनुसार देवी के उपासकों का एक संप्रदाय जिनके अनुसार देवी ही उपनिषदों की ब्रह्म है.यहाँ देवी को शक्ति के रूप में सर्वप्रथम परिकल्पित किया गया है.

शक्ति वस्तुतः उमा और पार्वती का ही  विकसित तांत्रिक दार्शनिक रूप है जिसकी कालांतर में विशेष महिमा बढ़ी.उमा के रूप में वे कुमारी कन्या हैं,शिव से विवाह के बाद माता-रूपिणी पार्वती हैं और जब वे धीरे-धीरे कपालभरणा काली या सिंहवाहिनी दुर्गा बन महाकाल की शक्ति बनी तब उनका तेज स्वतंत्र हो उठा और विष्णु एवं शिव को छोड़कर देव-देवी वर्ग में किसी को इतनी महिमा नहीं बढ़ी जितनी इस शक्ति या देवी दुर्गा की.

पुराणों में असुर संहार की कथाओं का समावेश होने लगा,तो देवी का माहात्म्य तेजी से बढ़ा और उसने स्वयं को शिव जैसे समर्थ और शक्तिमान स्वामी से स्वतंत्र कर लिया.ब्रह्मा,शुक्र,नारायण आदि द्वारा की गयी देवी स्तुतियां और शुम्भ-निशुंभ,तक्त्बीज,महिषासुर जैसे दैत्यों का संहार करने के कारण देवी की शक्ति और महिमा अनंत हो गयी और तेज में ब्रह्मा,विष्णु,शिव आदि देवों से अद्भुत कहा गया.उन्हें चंडी और अंबिका कहकर उनकी प्रशंसा में चंडीशतक और चंडीस्त्रोत रचे जाने लगे.

ऐसा प्रतीत होता है की मध्यकाल से बहुत पहले ही भारत के बंगाल और आसाम प्रांतों में शाक्त संप्रदाय फ़ैल चुका था.विभिन्न नामों जैसे-त्रिपुरा,लोहिता,कामेश्वरी,भैरवी वाली शक्ति विश्व की आदि तत्व के रूप में धारित हुई और देवी के रूप में पूजित होने लगीं.’देवी माहात्म्य’ शाक्तों के प्रमुख ग्रंथों में से एक है,जिसके अनुसार देव या इष्ट एक है और वह मां एवं संहार करने वाली शक्ति के रूप में.

इस संप्रदाय में देवी की कल्पना में अन्य मान्यताओं का समावेश हो गया और अमृत के अक्षय समुद्र में मनोहारी वृक्षों से आच्छादित,मणि-मुक्ता निर्मित प्रासादों में उनका निवास माना गया अवं विभिन देवी देवताओं को उनका सेवक बताया गया.हालांकि शाक्त संप्रदाय की मान्यताओं का आधार भी एक प्रकार का अद्वैत दर्शन था जिसमें शिव की परम सत्ता के रूप में कल्पना थी और सम्पूर्ण जगत को इन्हीं अभिन्न तत्वों मूलतः शिव और शक्ति का परस्पर संयोग माना गया.

Friday, October 2, 2015

तलाश आम आदमी की

आर. के. लक्ष्मण का आम आदमी 
दुष्यंत कुमार ने खूब ही कहा है कि.....

इस नुमाइश में मिला वह चीथड़े पहने हुए 
मैंने पूछा कौन, तो बोला कि हिन्दुस्तान हूं 

चुनावी माहौल में इस देश के प्रत्येक नेता की बस एक ही चिंता है,पीड़ा है,दुःख है कि किस तरह आम आदमी का भला हो,वह ऊपर उठे,तरक्की करे.

यह बीमारी छुआछूत की तरह अपने देश में आजादी के बाद बहुत तेजी से फैली है,किसी खतरनाक वायरस की तरह.प्रधानमंत्री से लेकर गली-मुहल्ले तक के नेता के किसी अवसर पर दिए गए भाषण का एक ही निचोड़ निकलता है कि आम आदमी के लिए बहुत कुछ करना है.

लेकिन सवाल यह उठता है कि आम आदमी होता कैसा है,कहाँ पाया जाता है?आम आदमी भी कुछ कम नहीं,किसी को नजर ही नहीं आता.अगर कभी हमें दिख भी जाए तो पूछना लाजिमी है कि वह कहां छुपा था.यह आर. के. लक्ष्मण के कार्टून का आम आदमी तो नहीं जो सीधे अखबार के पहले पन्ने पर दिख जाए.

चुनाव प्रचार के शोर में सारा जोर आम आदमी पर ही होता है.किसी नेता का भाषण सुनने वाले भी यही सोचते हैं कि वह कोई बेवकूफ किस्म का,दबा,कुचला आदमी होगा जिस पर बहुत जुल्म हो रहे हैं.नेता भी पूरा घाघ होता है,वह जानता है कि सामने जो उधार लाए गए श्रोता बैठे हैं,उन्हीं में से ज्यादातर आम लोग हैं.लेकिन उसे क्या फर्क पड़ता है?उसे तो बस उससे एक ही चीज लेनी है,उसका वोट.

कार्यकर्त्ता की मीटिंग में भी उसे बस एक ही बात की चिंता है कि अगर आम आदमी का वोट उसे मिल जाए तो वह वैतरणी पार कर जाए.बापू का अब ज़माना तो रहा नहीं कि कार्यकर्त्ताओं का उनसे जीवंत संपर्क हो.उन्हें तो बस नेता.मंत्री,कुरसी,सिफारिश,कमीशन,बूथ कैप्चरिंग आदि चीजें ही मालूम हैं,सो उन्होंने सोचा होगा कि आम आदमी जरूर कोई ख़ास आदमी होगा जो गायब हो गया है.

अब आम आदमी का कोई ख़ास हुलिया तो है कि अखबार में उसकी तलाश करने के लिए विज्ञापन दिया जाए.उसकी उम्र आजादी के बाद से स्थिर है,लंबाई समय के हिसाब से बढ़ती घटती रहती है.नजर देखने में ठीकठाक है परंतु दूरदृष्टि ठीक नहीं है,इसलिए कभी-कभार निकम्मा आदमी भी चुन लेता है.वैसे समझदार है परंतु खुद का भला बुरा नहीं समझता है,भोला और मासूम है,इसलिए वह आम आदमी है.

सो हमने भी एक दिन उस आम आदमी की तलाश शुरू कर दी.हर आते जाते को घूर-घूर कर देखने लगे.उसके लिए हर कहीं भटके.सरकारी बसों में लटके,सिनेमा की टिकट के लिए लाइन से लेकर,राशन की दुकान तक भटके.हर आदमी हमें आम आदमी जैसा कुछ-कुछ लगा,लेकिन पूरे यकीन से नहीं कह सके कि वही आम आदमी है.

एक आदमी सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ाते हुए मिला.हमने उससे बड़े विनयपूर्वक पूछा ‘भाई साहब आप कौन हैं?’ उसने घूरकर और सिगरेट का धुंआ हमारे चेहरे पर उड़ाते हुए कहा,पूछने का नक्को,अपुन भोली दादा का आदमी है,क्या?

लब्बो-लुआब यह कि हर कोई किसी न किसी का आदमी निकला.बस वो आम आदमी नहीं था.आखिरकार रहा नहीं गया और एक अखबार के पत्रकार से पूछा कि आम आदमी कहां पाया जाता है.पत्रकार यह सुनकर हंसने लगा,’आप इतना भी नहीं जानते.आम आदमी को नहीं पहचानते,फिर धीरे से बोला,अरे भाई आम आदमी अब ख़ास हो गया है.आजकल वह नेता हो गया है.’

हमने पूछा ‘वह जो टेलीविजन पर आता है,संसद में बोलता है,अखबारों में छपता है.चुनाव का मौसम हो तो वह बहुतायत से पाया जाता है और उसे हर कोई देख सकता है.मैंने पूछा,;ऐसा होता क्यूं है?’ वह बोला क्योंकि हर आम आदमी ख़ास होना चाहता है,जब ख़ास नहीं हो पाता तो उसका मुखौटा लगा लेता है.

और आम आदमी के नाम पर जो चिंता करते हैं,वे ख़ास आदमी होते हैं.परंतु उसके अंदर भी एक आम आदमी होता है जिससे वे हमेशा डरते हैं,क्योंकि जो आज ख़ास बने बैठे हैं,वे भी तो कल आम थे.उसकी बातों को तवज्जो देते हुए और चिंतन-मनन करते हुए घर की ओर चला तो बेख्याली में एक आदमी से टकरा गया.उसका चेहरा और चाल-ढाल देखकर कीच शक हुआ तो उससे पूछा,भाई साहब आप कौन से आदमी हैं?’

उसने झटके से जवाब दिया ‘आप हमको नहीं पहचानते? अरे भई हम आम आदमी हूँ.’इसके बाद उसने देश-विदेश की तमाम समस्याओं पर एक लंबा भाषण पिलाया और सतर्क रहने की हिदायत देकर चला गया.मेरी समझ में आ गया कि यही आम आदमी है जो आज नहीं तो कल ख़ास आदमी बन जाएगा और आम आदमी के बारे में लंबे-लंबे भाषण देगा और उसके बारे में चिंता करेगा.और बेचारा आम आदमी जहाँ है,जैसा है वही रहेगा और उसे कोई ढूंढ नहीं पाएगा.

Thursday, September 24, 2015

प्रकृति से साहचर्य का पर्व : करमा


प्रकृति के परम – तत्व से साहचर्य का महापर्व है - करमा.भाद्र पद एकादशी को जनजातीय समाज इसे काफी उत्साह से मनाता है.इन दिनों धान की बालियों से भीनी-भीनी गंध पसरने लगती है और हरियाली दूर-दूर तक छा जाती है.ऐसे मौसम में मनाये जाने वाला करमा ही एक ऐसा महापर्व है जिसे जनजातीय समाज के अलावा अब अन्य समुदाय भी समान रूप से मनाते हैं.

गैर जनजातीय महिलाएं और कन्याएं अपने भाई की सलामती के लिए व्रत रखकर इसे मनाती हैं जबकि जनजातीय समुदाय भाग्यवर्द्धन और परस्पर बंधुत्व में वृद्धि के लिए.कर्मा की पृष्ठभूमि में जनजातीय सांस्कृतिक चेतना,जीवन-दर्शन,लोक-विश्वास,धर्म और प्रकृति के प्रति आदिम संवेदनाएं हैं.निराकार ईश्वरीय सत्ता के समक्ष मानव का श्रद्धा –नैवेद्ध  अर्पण करना मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का प्रतीक है.

करमा का अर्थ है – ‘हाथमा’ अर्थात भाग्य में.इस पर्व में करम वृक्ष की डाली गाड़ कर उसकी पूजा की जाती है.आदिवासी समाज में उनके पुरोहित – पाहन करम डाली की पूजा संपन्न कराते हैं तो गैर आदिवासी समाज में पुरोहित यह पूजा कराते हैं.करमा पर्व के दिन भर स्त्री-पुरुष उपवास रखते हैं और रात्रि में पूजा करते हैं.यह पर्व सामूहिक रूप से मनाया जाता है.धूप-दीप,नैवेद्ध,फूल-अक्षत,सिन्दूर,खीरा,भुने हुए चने का प्रसाद इसमें चढ़ाया जाता है.

आदिवासी युवक वन से करम वृक्ष की डाली लाने के लिए समूह बनाकर निकलते हैं.कुंआरी कन्याएं उन्हें विदाई देती हैं.करम की डाली लाने के लिए युवा आदिवासी मांदर और नगाड़ा बजाते हुए जंगल की ओर जाते हैं.युवतियां उनके साथ नाचती-गाती जाती हैं.करम के वृक्ष के पास पहुंचकर वे उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ समय तक उसकी परिक्रमा करते हुए नृत्य करते हैं.

जो युवक-युवतियां पहली बार उपवास कर रहे होते हैं,वे करम वृक्ष के चारों ओर धागे बांधते हैं.फिर उस पर हल्दी पानी छिड़कते हैं.इसके बाद कोई युवक वृक्ष पर चढ़ कर उसकी तीन डालियां काटता है.इन कटी हुई डालियों को जमीन पर नहीं गिरने दिया जाता.सम्मानपूर्वक इन डालियों को युवक साथ आयी युवतियों को सौंप देते हैं.वे करम की डालियां कंधे पर ढो कर लाती हैं.

सभी युवक युवतियां नृत्य-गीत के बीच थिरकते हुए गांव वापस आते हैं.पह्नाइन गांव के अखाड़े के पास उनका स्वागत करती हैं.उनके साथ पाहन और महतो भी होते हैं.युवतियां डालियों को पह्नाइन को थमा देती हैं.करम की डालियों को धोने के पश्चात अखाड़े के बीच उन्हें रोप देती हैं.उस पर तेल सिंदूर का लेप किया जाता है.उसके निकट एक दीप जलाया जाता है.फिर सारी रात और दूसरे दिन करमदेव की विदाई तक गीतों की अनवरत धारा बहती रहती है.मांदर,बांसुरी,ठेचका,नगाड़ा वाद्य यंत्रों के ताल-लय पर झूमर नृत्य करते हुए उपवास रखने वाले युवक-युवतियों के पाँव थकते नहीं.
करमा गीत प्रायः पांच तरह के होते हैं – सुमिरनी,संक्षईया,अधरतिया,मिनसहर,ठड़िया.           

सुमिरनी किसी शुभकार्य से पूर्व ईश्वर वंदना के गीत होते हैं.इनमें राम,कृष्ण और परम सत्ता के प्रति श्रद्धा निवेदित की जाती है.इसी तरह का एक गीत है.........

हाय रे ओकोतिया
रुतई औरोड,तानी रे छैला
हाय रे ओकोतिया
निंदा सिंगी आ- ए-
नलिन मेंदा जो रो बान रे छैला
हाय रे ओकोतिया
चंदन कस्तूरी या सोबेनगोसो जना
हाय रे ओकोतिया

(हाय !  बांसुरी बजाने वाला छोकरा कहां चला गया ? हाय-हाय,कहां चला गया ? रात-दिन उसके लिए आँखों से आंसू बरसते रहते हैं.हाय,वह छोकरा कहां चला गया ? चंदन-कस्तूरी एवं फूल मुरझा गये.   हाय ! वह बांसुरी बजाने वाला छोकरा कहां चला गया ?)

संक्षईया में स्थानीय जनजीवन और जनजातीय समाज की व्यथा का शाब्दिक चित्रण होता है.मध्य रात्रि के प्रथम पहर में गाया जाता है – अधरतिया या रिझवारी,जो श्रृंगारसिक्त भावना पर आधारित होता है.इसमें दिन-रात को संयोग-वियोग के रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है.
रात्रि का अंत होता है.पूर्व में सूर्य उदय होने लगता है.मन में उमंगें जागने लगती हैं.तो स्वतः ही कंठ में सुर जगने लगते हैं.इस समय गाया जाता है मिनसहर गीत,जिनमें संघर्षशील जीवन में क्षण भर के लिए,घने घुमड़े बादलों के बीच छिपे सूर्य को निहारने का सुख मिलता है.......

कनेत उंचे कारी बदरिया रे
कने तरिसे जल मेघे
सरगे त उंधे ये कारी बदरिया
अघरे बरीसे जल मेघे....

ठड़िया करम गीतों में जनजातीय जीवन-दर्शन का भावात्मक  स्पर्श होता है.क्षणभंगुर  जीव-जगत में ऐंद्रिय सुख मात्र क्षणिक है और निरंतर क्षय होता हुआ मनुष्य कब तक इस सत्य से अनभिज्ञ रहेगा ? इस लिए भोग-विलास में न पड़कर जीवन को सुधारें,धरती को संवारें.

झूमर नृत्य और करमा गीत के बाद युवतियां करम डालियों के साथ जल रहे दीपक के पास आकर बैठ जाती हैं.उनकी टोकरियों में फूल और कपड़ों में लिपटा एक खीरा रखा होता है,जो उनकी भावी संतान का प्रतीक होता है.करम पूजा के पश्चात पाहन करमा-धरमा की कथा सुनाता है.करमा कथा विभिन्न रूपकों में,भिन्न-भिन्न अंचलों में भिन्न-भिन्न कथानकों में कही जाती है.मुंडारी,संथाली,गोंड आदि जनजातीय समाजों में करमा-कथा कई कारणों से भिन्न है क्योंकि काल और परंपरा इनके समाजों में भिन्न है. लेकिन सभी करमा कथाओं का सार एक सा ही है.

राजा द्वारा करम की उपेक्षा और परिणामस्वरूप उस पर विपत्तियों का आगमन.मुंडारी करमा-कथा में सृष्टि का उद्भव और आदिमानव के जन्म का भी वर्णन है.सामाजिक विकास और मानवीय-मूल्यों का क्रमिक विकास भी इस कथा में प्रतीक रूप से वर्णित है.कथा श्रवण के बीच-बीच में करम की कृपा के लिए करम डाली पर पुष्पों की वर्षा की जाती है.कथा समाप्ति पर लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं.

रात्रि में फिर पूजा-स्थल पर एकत्र होते हैं.रातभर,भोर की लाली फूटने तक,करम के आदर में नृत्य-गीत चलता रहता है.नृत्य अबाध होता है,इसलिए इसकी तेज और मंद लय में रहती है.मांदर पर एक विशेष ताल ही बज सकता है.इस आयोजन में ढोल-वादन वर्जित है.दिन चढ़ते ही पह्नाइन करम की डालियां   उखड़वाकर युवतियों को सौंप देती हैं.वे इसे अपने कंधों पर उठा लेती हैं.झूमते-थिरकते नदी या जलाशय में उसे विसर्जन कर वे करम राजा या वनदेव से भाई और परिवार के लिए सौभाग्य की याचना करती हैं.

आज के बाजारवाद और उपभोक्तावाद के इस युग में जहां पर्व-त्यौहार ग्लैमर से युक्त होने लगे हैं वहीँ प्रकृति से साहचर्य का यह पर्व मनुष्य को अपने जड़ों की ओर संकेत करने और प्रकृति के साथ संबंधों को भी दर्शाता है.

Thursday, September 17, 2015

सूर्यपुत्र और ग्रीक कथाएं

ग्रीक कथाओं में फेथन
कई भारतीय पौराणिक कथाओं एवं ग्रीक कथाओं में काफी समानता है,लेकिन यह समानता कथाओं के प्रारंभ में ही है,इनका अंत बिल्कुल भिन्न है.

सूर्यपुत्र कर्ण महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक है.उसके बिना महाभारत की कथा पूरी नहीं होती.सूर्य जैसे तेजस्वी पिता के पुत्र होते हुए भी उसे आजीवन नाजायज संतान होने का अभिशाप भोगना पड़ा.कर्ण के समान ग्रीक कथाओं में सूर्य का पुत्र फेथन है.उसे मां का प्यार तो मिलता है और पिता का सानिंध्य भी, लेकिन उसका अंत अत्यंत दुखद होता है. ग्रीक पौराणिक कथाओं में सूर्य देवता का नाम हीलियस है.उसका जगमगाता हुआ भव्य महल सुदूर पूर्व में कोचलिस के पास स्थित है.

भोर होते ही उसका प्रिय पक्षी मुर्गा जोर से बांग देकर अपने स्वामी के आगमन की सूचना देने लगता है.उसकी बहन उषा की देवी सुंदरी इऑस अपनी गुलाबी अँगुलियों से पूर्व के विशाल द्वार खोल देती है और अपने चार घोड़ों के रथ पर आसीन हीलियस दिवस-यात्रा पर निकल पड़ता है.हीलियस का व्यक्तित्व प्रभावपूर्ण है.कहीं-कहीं उसके शरीर में पंख भी दर्शाये गए हैं जो उसकी तीव्र गति के प्रतीक हैं.उसकी पत्नी का नाम पर्सी है.

हीलियस की एक प्रेमिका है क्लामिनी.वह उसके संसर्ग से एक पुत्र को जन्म देती है जिसका नाम है फेथन.क्लामिनी अपने पुत्र फेथान को पालती-पोसती और बड़ा करती है.जब फेथन कुछ बड़ा होता है तो क्लामिनी उसे प्रतिदिन उगते सूरज की ओर संकेत करके उसके दिव्य पिता के अद्भुत सौंदर्य और तेज के बारे में बताया करती है.

फेथन सूर्य देवता के पुत्र होने के बारे में जानकर गर्व से भर उठता है और अक्सर अपने दोस्तों को बताया करता है.दोस्त उससे इस बात का प्रमाण देने को कहते हैं.वह तत्काल अपनी मां के पास पहुँचता है और सूर्य देवता के पुत्र होने का प्रमाण मांगता है.क्लामिनी आकाश में यात्रा कर रहे सूर्य की और हाथ उठाकर कहती है कि ‘स्वयं सूर्य देवता साक्षी हैं कि मैंने तुसे असत्य नहीं कहा. आकाश में चमकता सूर्य और पृथ्वी पर फैला उसका प्रकाश जितना सत्य है,उतना ही सत्य यह है कि तुम सूर्य देव के पुत्र हो.यदि तुम इस बात से संतुष्ट नहीं तो स्वयं अपने पिता सूर्य देव से पूछ लो.’

सोच-विचार कर वह सूर्य के महल की और चल पड़ा.अद्भुत था सूर्य का महल.स्वर्ण की दीवारें,हाथी दांत की तरह,उनमें जड़ित हीरे-जवाहरात.ऐसा लगता मानो महल प्रकाश के टुकड़ों से बना हो.वहां हर समय दिन का उजाला फैला रहता.रात और अंधेरे का कहीं नाम न था.स्वर्ण के सिंहासन पर सूर्य देवता हीलियस विराजमान थे.

हीलियस ने फेथन को देखते ही पहचान लिया कि वह उसका पुत्र है.सूर्य ने अपने सिर से किरणों का ताज उतारकर एक ओर रखते हुए उसके आने का कारण पूछा.सूर्य के मुस्कुराते चेहरे को देखकर आश्वस्त हुए फेथन से आने का कारण पूछा.उसके आने का प्रयोजन जानते हुए सूर्य देव ने कहा कि क्लामिनी ने उसे सत्य बताया है.आज जो चाहो मांग लो.

फेथन ने न जाने कितनी बार सूर्य के रथ को आकाश में यात्रा करते देखा था.वह एकदम से बोल उठा,बस एक दिन के लिए मुझे अपना रथ दे दें.हीलियस का को पल भर में ही एहसास हो गया कि वचन देकर उन्होंने कितनी गलती की है.अपने सुनहले बालों वाले सिर को इनकार में हिलाते हुए उन्होंने कुछ और मांगने को कहा लेकिन फेथन अपने हठ पर कायम था.यौवन की उदंडता उसकी रगों में दौड़ रही थी.एक-एक कर तारे बुझ चले थे.उषा ने भी द्वार खोल दिए थे और गुलाब के फूलों से भरा मार्ग उसके आंचल सा महक उठा था.

हताश हो हीलियस फेथान को रथ के पास ले गया.उसके सिंहासन पर हीरे जड़े थे जो सूर्य के प्रकाश में और भी चमक उठते.एम्ब्रोशिया का भोजन लिए हुए स्वस्थ,सुदृढ़ घोड़े रथ में जुटे थे.हीलियस ने एक द्रव फेथान के मुख पर मल दिया ताकि वह झुलसा देने वाली लपटों की गर्मी सह सके.गर्व से भरा हुआ फेथन तुरंत रथ पर चढ़ गया.हीलियस ने लगाम उसके हाथ में थमा दी.

गर्वोन्मत्त फेथन का रथ पूर्व के द्वार से निकला.घोड़े इतने तेज दौड़ने लगे कि हवाएं भी पीछे छूटने लगीं.सामने आकाश का विस्तृत क्षेत्र था और नीचे पृथ्वी.पल भर में ही उसका सीना गर्व से भर उठा.लेकिन शीघ्र ही स्थिति बदल गयी.रथ तेजी से इधर-उधर झटका खाने लगा.फेथन घोड़ों पर से नियंत्रण खो बैठा.घोड़े समझ गए थे कि उसका लगाम कमजोर हाथों में है.वे अपनी इच्छानुसार इधर-उधर दौड़ने लगे.

फेथन भय से मूर्छित हो गया और लगाम उसके हाथ से छूट गयी.घोड़े सरपट दौड़े जा रहे थे,फेथन के प्राण गले में अटके हुए थे.बादलों से धुंआ उठने लगा था.रथ अपना निश्चित मार्ग छोड़कर काफी नीचे आ गया.सूर्य की गर्मी से पहाड़ों में आग लग गयी.सबसे पहले इसका शिकार हुआ सबसे ऊँचा पर्वत इडा,जो अपने झरनों के लिए प्रसिद्ध था,म्यूजेज का निवास स्थान हेलिकन और परनासस.
सूर्य रथ निरंतर एक पुच्छल तारे की तरह पृथ्वी की ओर गिरता चला आ रहा था.बड़े-बड़े नगर,उंची विशाल इमरतें जलकर खंडहरों में बदल गयीं.फसलें जलकर राख हो गयीं.जंगलों में आग लग गयी और उबकी लपटें आकाश तक पहुँचने लगीं.हरे-भरे घास के मैदान राख और रेत के ढेर बन गये.लिबयान का सुंदर प्रदेश रेगिस्तान बन गया.

कहते हैं इसी कारण विश्व के एक भाग के लोग बिलकुल काले पड़ गए,जिन्हें नीग्रो कहा जाता है.धरती में दरारें पड़ गयीं.झरनों का पानी खौलने लगा.नदियां सूख गयीं.समुद्र के देवता पसायदान ने तीन बार जल की सतह से अपना सर उठाकर देखने की कोशिश की,लेकिन सूर्य के तेज को सहने में असमर्थ हो गया.यह अग्नि प्रलय था.दग्ध होकर पृथ्वी ने रक्षा के लिए ज्यूस को पुकारा.

देव सम्राट ज्यूस ओलिम्पिस स्थित अपने महल में सो रहा था.पृथ्वी की चीत्कार से उसकी नींद खुली तो नीचे देख कर अचंभित रह गया.सभी देवता तत्काल एकत्रित हुए.पृथ्वी की रक्षा के लिए न तो पानी का सोता बचा था और न कोई बादल का टुकड़ा.

पृथ्वी को बचाने का जब कोई उपाय नहीं बचा तो ज्यूस ने अपना वज्र उठाया और फेथान को लक्ष्य कर फेक दिया.वज्र प्रहार से पल भर में सूर्य का रथ और फेथन का शरीर क्षत-विक्षत हो एरिडोनस नदी में जा गिरा. फेथन की बहनें करुण विलाप करने लगी.कई दिनों तक वे उसी नदी के किनारे बाल बिखेरे रोती रहीं.

अंतत देवताओं को उन पर दया आ गयी और उन्हें वृक्षों में परिवर्तित कर दिया.फेथन के मित्र सिगनस ने नदी में डुबकियां लगाकर फेथन के शरीर के कुछ अंग निकाले और विधिपूर्वक उसका अंतिम संस्कार किया.लेकिन उसके बाद भी वह शेष अंगों की खोज में पागलों की तरह नदी में तैरता और डुबकियां लगता रहता था,अतः देवताओं ने उसे हंस बना दिया.हंस बना सिगनस आज तक हीलियास के दुस्साहसी पुत्र फेथन के अंगों को ढूंढ़ रहा है.