कोई मीठी सी धुन,कोई दिल को छू लेने
वाला संगीत,कोई कथानक कब दिल के किसी कोने में बस जाता है,पता नहीं चलता.हमारे
मस्तिष्क के असंख्य कोशों में न जाने कितनी यादें छुपी रहती हैं.यदा-कदा इन्हीं
स्मृति कोशों से झांकती पुरानी यादें टीस भी दे जाती हैं तो सुखद अहसास भी करा
जाती हैं.
शायद 80 के दशक में पहली बार दूरदर्शन पर यह मीठी सी आवाज सुनी थी......
मेरी जां दुखां नी घेरी वे
सुरिंदर कौर जी का यह पहला नज्म ही दिल के किसी कोने में बस गया था. रफ्ता-रफ्ता उनकी अन्य नज्मों से वाकिफ होता गया और कब इन नज्मों ने दिल को छू लिया पता ही नहीं चला.
उनकी एक अन्य नज्म मुझे बहुत पसंद थी,जो शिव कुमार बटालवी ने लिखी थी.....
इन्ना अंखियां च पावन किवे कजला वे
अंखियां च तू वसदा ......
(मैं अपनी आँखों में सुरमा कैसे लगाऊं
मेरी आँखों में तो तुम बसे हो.......)
जदों हसदी, भुलेखा मैनू पैंदा वे
हसेया च तू हसदा ....
(जब मैं हंसती हूं तो भ्रम में पड़ जाती हूँ
मुझे अहसास होता है कि मेरे साथ तुम भी हंस रहे हो....)
इन नज्मों को सुने अरसा हो गया था और शायद विस्मृत भी कर गया था.पिछले दिनों तेज ज्वर में सर दर्द के कारण दो रात सो नहीं पाया.मस्तिष्क में कई विचार आ जा रहे थे.किसी नज्म की कोई अधूरी पंक्तियाँ,कुछ अरसा पहले पढ़ी मजाज लखनवी की छोटी बहन हमीदा सालिम की मजाज पर लिखी आत्मकथात्मक उपन्यास ‘मेरे जग्गन भैया’ का कथानक,शिवानी के चौदह फेरे के पात्र ‘कर्नल पांडे’ का रोबीला व्यक्तित्व सभी आपस में एकाकार हो रहे थे.
ऐसा कई बार हुआ है जब तेज ज्वर में अनिद्रा की स्थिति में बिस्तर पर पड़े हुए कोई नया विचार,कोई कथानक या कोई पंक्तियाँ सूझी हों और तुरत लिख न पाने के कारण अगली सुबह कुछ याद ही न रहा हो.
तेज ज्वर की यह दूसरी रात है,सर दर्द से बैचेनी के कारण बिस्तर पर उठ बैठता हूँ.पास ही पड़े लैपटॉप उठाकर मस्तिष्क में आ जा रहे विचारों को संग्रहित करने का प्रयास करता हूँ.नींद से बोझिल पलकों को खोलने का असफल प्रयास करते हुए कीबोर्ड पर अँगुलियों की रफ़्तार तेज हो जाती है.
कितनी देर बीत चुकी है,पता नहीं.दर्द की एक आब सिर के एक ओर से गुजर जाती है.कीबोर्ड पर अँगुलियों की पकड़ कमजोर होती जा रही है.पूरी शक्ति से एक बार स्क्रीन पर आँखें गड़ाए रखने की असफल कोशिश करता हूँ,पर सफ़ेद काले हर्फ़ के सिवा कुछ नहीं दिखता.
नींद अब अपने आगोश में लेने को ही है कि दूर कहीं मंदिर की घंटियों की आवाज गूंजती है और वही मीठी सी सुर लहरी एक बार फिर सुनाई देती है........
मेरी जां दुखां नी घेरी वे.......
शायद 80 के दशक में पहली बार दूरदर्शन पर यह मीठी सी आवाज सुनी थी......
मेरी जां दुखां नी घेरी वे
सुरिंदर कौर जी का यह पहला नज्म ही दिल के किसी कोने में बस गया था. रफ्ता-रफ्ता उनकी अन्य नज्मों से वाकिफ होता गया और कब इन नज्मों ने दिल को छू लिया पता ही नहीं चला.
उनकी एक अन्य नज्म मुझे बहुत पसंद थी,जो शिव कुमार बटालवी ने लिखी थी.....
इन्ना अंखियां च पावन किवे कजला वे
अंखियां च तू वसदा ......
(मैं अपनी आँखों में सुरमा कैसे लगाऊं
मेरी आँखों में तो तुम बसे हो.......)
जदों हसदी, भुलेखा मैनू पैंदा वे
हसेया च तू हसदा ....
(जब मैं हंसती हूं तो भ्रम में पड़ जाती हूँ
मुझे अहसास होता है कि मेरे साथ तुम भी हंस रहे हो....)
इन नज्मों को सुने अरसा हो गया था और शायद विस्मृत भी कर गया था.पिछले दिनों तेज ज्वर में सर दर्द के कारण दो रात सो नहीं पाया.मस्तिष्क में कई विचार आ जा रहे थे.किसी नज्म की कोई अधूरी पंक्तियाँ,कुछ अरसा पहले पढ़ी मजाज लखनवी की छोटी बहन हमीदा सालिम की मजाज पर लिखी आत्मकथात्मक उपन्यास ‘मेरे जग्गन भैया’ का कथानक,शिवानी के चौदह फेरे के पात्र ‘कर्नल पांडे’ का रोबीला व्यक्तित्व सभी आपस में एकाकार हो रहे थे.
ऐसा कई बार हुआ है जब तेज ज्वर में अनिद्रा की स्थिति में बिस्तर पर पड़े हुए कोई नया विचार,कोई कथानक या कोई पंक्तियाँ सूझी हों और तुरत लिख न पाने के कारण अगली सुबह कुछ याद ही न रहा हो.
तेज ज्वर की यह दूसरी रात है,सर दर्द से बैचेनी के कारण बिस्तर पर उठ बैठता हूँ.पास ही पड़े लैपटॉप उठाकर मस्तिष्क में आ जा रहे विचारों को संग्रहित करने का प्रयास करता हूँ.नींद से बोझिल पलकों को खोलने का असफल प्रयास करते हुए कीबोर्ड पर अँगुलियों की रफ़्तार तेज हो जाती है.
कितनी देर बीत चुकी है,पता नहीं.दर्द की एक आब सिर के एक ओर से गुजर जाती है.कीबोर्ड पर अँगुलियों की पकड़ कमजोर होती जा रही है.पूरी शक्ति से एक बार स्क्रीन पर आँखें गड़ाए रखने की असफल कोशिश करता हूँ,पर सफ़ेद काले हर्फ़ के सिवा कुछ नहीं दिखता.
नींद अब अपने आगोश में लेने को ही है कि दूर कहीं मंदिर की घंटियों की आवाज गूंजती है और वही मीठी सी सुर लहरी एक बार फिर सुनाई देती है........
मेरी जां दुखां नी घेरी वे.......