Friday, January 23, 2015

तुमने फ़िराक को देखा था

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आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमसरो
उनको जब ये मालूम होगा तुमने फ़िराक को देखा था

फ़िराक द्वारा खुद के बारे में कही गयी ये पंक्तियाँ कितनी बेलौस और बेबाकी से कही गयी लगती हैं.

यह भी एक अजीब इत्तिफाक है कि जो दिन ऊपरवाले ने मुक़र्रर किया हिंदी-उर्दू की अजीम शख्सियत को अपने पास बुलाने के लिए,उसी दिन मशहूर हास्य अभिनेता केश्टो मुखर्जी और बदनाम डाकू छविराम को भी अपने दरबार में बुलाया.जाहिरा तौर पर तीनों में कोई संबंध नहीं है.एक रुबाइयों की नाजुक भीनी बदली में लिपटी रूह है,दूसरी कहकहों की आवाज का लिबास पहने है तो तीसरी यमदूतों की बराबरी करने वाला काली लिबास में मुंह छिपाए है.

क्या कहकहों,डकैती और अपराधों में और नाजुक ख्याली में कोई भीतरी संबंध है? संबंध तो है.क्योंकि ये तीन रंग आत्मा के हैं.जुंग कहता है कि जो असत् है वह चार चेहरों वाला है और जो सत् है उसके तीन चेहरे हैं.असत् हरदम इस कोशिश में रहता है कि उसे सत् समझा जाये.इसके लिए वह अपना एक चेहरा छुपा लेता है.

वह चौथा चेहरा उस साधारण आदमी का हो सकता है जिसमें इन तीनों के गुण नहीं,मगर जिसमें ये तीनों रहते हैं.कोमल अहसास बन कर,हंसी बन कर और भय बन कर.उस गली-मुहल्ले के आदमी को भी इन विशिष्ट लोगों के साथ अपनी वादी में वहीँ जगह देकर मौत जिंदगी की उस तस्वीर को पूरा कर देती है,जिसे खुद जिंदगी पूरा नहीं कर पाती.ये चारों कभी इकट्ठे नहीं हो सकते.और इकट्ठे न होंगे तो जिंदगी के टुकड़े कहलाएंगे,जिंदगी नहीं.

फ़िराक भी जिंदगी का एक ऐसा ही टुकड़ा था जो जिंदगी न हो पाया.फ़िराक कभी जिंदगी जी न सका........

उम्र फ़िराक ने यूँ ही बसर की
कुछ गमें दौरा कुछ गमें जाना

अनुभूतियाँ कुछ इतनी तेज मिली थीं कि अक्सर शामो-सुबह के रंग,फूलों की खुशबू या तो इंतहा गम जगा देते थे या इंतहा ख़ुशी इतनी कि,जिंदगी बर्दाश्त के बाहर हो जाती थी.खुद फ़िराक ने अपने बचपन का जिक्र करते हुए कहा है कि मामूली-मामूली बातें जो औरों के लिए कोई मायने नहीं रखतीं उसके मासूम बचपन पर ही भारी होने लगी थीं.

कविता की देवियों ने बचपन में ही उसके दिल की खिड़की पर अपनी भोली सूरतें दिखाना शुरू कर दिया था,इस तरह कि कुमार रघुपति ठगा सा रह जाता था.अक्सर अपने को औरों से अलग देखकर उसका दिल होता,कहीं छुप जाऊं.उसे इतनी शर्म घेरे रखती कि,खुद उसके शब्दों में,’एक झाड़ू की तरह’ वह सबकी नज़रों से छुपकर ही घर में जीना चाहता था.

मगर जिंदगी अपनी छेड़खानियों से कहाँ बाज आती है.जिसे उसकी अनुभूतियाँ,तीखे दर्द,अनोखी चाहें खुद अपने से,अजनबी बनाए दे रहे थे.उसे शब्दों ने एक सुंदर मूर्ति की शक्ल में ढाल दिया.जिसने भी सुना बोला,यह कौन है,यह कौन है? मीर के बाद रेखती ने यह कैसा सिंगार किया है.ये गंधर्व बालाएं कब से उर्दू बोलने लगीं? ये कालिदास की यक्षणियां कैसे अपने यक्षों को ढूंढने आ गयीं.

दूर-दूर से लोग मिलने आने लगे,कोई फ़िल्मी दुनियां से कोई पत्रिकाओं से,कोई विद्वता की धूल से उठकर,कोई दिल के शोरों से घबराकर.मगर इनमें वह अभिन्नता कहाँ थी जो उस ‘लज्जित झाड़ू’ को सहारा देती.वे तो एक जीनियस से मिलने आते थे जैसे लोग अजायबघर में जाते हैं अजीब चीजें देखने.और इतने मिलने वालों की भीड़ के बीच भी अकेली रह गयी जो,वह फ़िराक की आत्मा तड़पकर बोली एक दिन.....

‘मिल आओ फ़िराक से भी एक दिन
वह शख्स एक अजीब आदमी है'

निजी जिंदगी से न कुछ लिया न कुछ दिया.जो पत्नी मिली उसके लिए खुद फ़िराक के शब्दों में,’पाव भर सत्तू खाकर एक कोने में लिपटे रहना ही स्वर्ग था.’जीवन के दुर्लभ सौन्दर्य की न उसे अनुभूति थी न आवश्यकता.उसने नारी की न जाने कैसी मूरत फ़िराक की निजी जिन्दगी में रख दी कि उम्र भर नारी ने फिर कभी आकर्षित नहीं किया.नारी का सौंदर्य,कोमलता,मातृत्व और मधुर अनुभूतियों से महकता रूप उसकी कल्पना में हमेशा खिला रहा.......

लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीजाए सुबह गुनगुनाए जैसे
ये रूप ये लोच ये तरन्नुम ये निखार
बच्चा सोते में मुस्काए जैसे 

काश कि फ़िराक ने उस साधारण गली-कूचे के आदमी की सूरत से अपनी सूरत मिलाई होती.शायद तब उसे उसकी सत्तू खाकर ऊंघने वाली,संवेदनाहीन के दिल में छुपे उस खजाने का पता चलता जो फ़िराक की तरह बहुमूल्य तो न था,मगर इतना मूल्यवान जरूर था कि उसके अभाव में फ़िराक की अपनी जिंदगी रुक गयी,ठिठक गयी,घुट गयी.वह उन अनुभूतियों को न जी सका जो नारी ने छेड़-छेड़कर उसकी कल्पना में भर दी.

फ़िराक मीर की तरह खुद नारी से प्रेम की वह जिन्दगी न जी सका,जिसके बिना उसका निजी जीवन बिना बदली का सावन बन गया.मगर उसकी संवेदना मुखर थी.जो औरों ने जिया उसे संवेदना के जरिये खुद अपने पर गुजरे जैसा महसूस करने की शक्ति उसे प्रकृति ने दी थी.

अंग्रेजी कवि यीट्स ने कहा भी है : ‘जो जिन्दगी को भुगतता है और जो उसे महसूस कर चित्रित करता है दरअसल दो अलग-अलग हस्तियाँ हैं.’ 

फ़िराक इन दोनों हस्तियों में दूसरी तरह की हस्ती बन गया.निजी जिंदगी के आँगन पर ज्यों-ज्यों साए लंबे होते गए जीने की अबूझ ललक ने सारी धूप जिंदगी के घर के आगे फैली दूर-दूर तक जाती सड़क पर ले ली.सड़क गुलजार थी,रोज नये-नये चेहरे थे.फ़िराक के घर में रौशनी न सही इनके चेहरों पर तो जिंदगी की धूप थी.दीवानों के लिए इतना ही काफी था......

घर छोड़े हुओं को कोई मंजिल न सही
होती नही सहल कोई मुश्किल न सही
हस्ती की एक रात काट देने को
वीराना सही तेरी महफ़िल न सही 

यह भी एक अजीब इत्तिफाक था या फिर इसके पीछे भी प्रकृति की किसी बज्मे अदब का बुलावा होगा कि फ़िराक की मौत से एक हफ्ते पहले उसका सबसे अजीम दोस्त ‘जोश’ मलीहाबादी चल बसा.इस जोश ने उसे बहुत दुःख दिया था-एक बार बदगुमा होकर और दूसरी बार पाकिस्तान जाकर.मगर इस तरह चले जाने कहीं बंधन टूटते हैं दिल के.

तीसरी बार जब जोश इस दुनियां को भी अलविदा कह गया तो फ़िराक चुप था.एक लंबी बीमारी में दरो-दीवार देखते-देखते आँखें पथरा चुकी थीं.एक झोंक आयी तबियत में और चादर जिस्म पर डाल वह हजारों को रौनक देने वाला सौंदर्य का मासूम बेटा,अपनी मां के पवित्र सौंदर्य को देखता-देखता चला गया.........

‘अहले रिंदा की वो महफ़िलें सबूत हैं इसका फ़िराक
कि बिखर कर भी यह शीराजां परेशां न हुआ' 

वियोग को फ़िराक ने उपहार बना दिया.’कफस की तीलियों से छनता नूर’ इस कदर खूबसूरत है कि वस्ल की चमक फीकी लगती है.फ़िराक ने प्रेम के विनाश को सुंदर बनाया है.उसकी यह चेष्टा कहीं-कहीं जादुई भव्यता की और ले गयी है,उस सीमा तक जहां से काव्य सौन्दर्य को खुद अपना पता नहीं रहता.......

मौत रात एक गीत गाती थी
जिंदगी झूम-झूम जाती थी 

कौन सा वह आश्वासन था जो प्रकृति ने दिल ही दिल में उसे दे दिया था.कौन सा वह अमृत था जो निराशा और एकाकीपन में बिखरकर भी उसकी जिंदगी का शीराजां कभी परेशां न हुआ.हर रोज केशों की तरह दुःख के बादलों को झटककर उसकी जिंदगी का चाँद चमक आता था और लंबे-चौड़े नभ पर अपनी अनंत यात्रा को ही मंजिल मान चलता रहा......

‘एक लिली की तरह खिली काई भरे
पत्थर के किनारे किसी
एक तारे की तरह सुंदर सरल जो
अकेला था आसमान पर’

‘विलियम वर्ड्सवर्थ’ की ये पंक्तियाँ फ़िराक को बहुत प्रिय थीं.क्या कोई छिपा हुआ संदेश था कि मौत के बाद उसकी समाधि पर उसके लिए ही ये दो पंक्तियाँ लिख दी जाएं?

Keywords खोजशब्द :- Firaq Gorakhpuri,Nazm and Shayari of Firaq

23 comments:

  1. फ़िराक के बारे में सुन्दर लाजवाब प्रस्तुति हेतु आभार!

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  2. writer ka nam galat likha hai aur bahut sari spelling mistakes h.

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  3. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (24-01-2015) को "लगता है बसन्त आया है" (चर्चा-1868) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    बसन्तपञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. सादर धन्यवाद ! आ. शास्त्री जी. आभार.

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  4. mai firaq k sahar(gorakhpur) se bol rha hu...firaq saheb ko bahoot padha hai..unki gazalo ko bhi aur..unke bare me bhi..magar jis taraf aapne asan aur saral sabdo me paheliyo k madham se..firaq saheb ki jeevan ke har pahlu ka chitran kiya hai..aisa maine sayad hi kafi padha ho..aapka tathyagat gyan adbhut hai...aaj ki pidhi k paas na ye hunar hai..na hi itni lalak hai..firaq saheb ko to uske apne sahar ne bhula diya hai.. bus aap jaise dehat aur mitti se jude logo ne unhe jinda rkha hai apni yado me..unka vajood bacha rakha hai...dharohar k roop me hame dene k liye..bahoot bahoot dhyanyavaad aadarniya rajeev ji.pranam!!

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  5. 'HINDI WORLD' me yah post share kar raha hu.

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  6. Thanks for such a nice presentation.

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  7. " गुल -नग़मा " अपनी उम्र के सोलहवें
    में , भाई ने तोहफ़े में दी थी , उसके बाद आज फ़िराक साहब को आपकी नज़रों देखा।
    बहुत खूबसूरत !
    हैरत है , आज तक इत्तेफ़ाक़ क्यूँ न हुआ आपको
    पढ़ने का …

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  8. उम्दा....बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@मेरे सपनों का भारत ऐसा भारत हो तो बेहतर हो
    मुकेश की याद में@चन्दन-सा बदन

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  9. आज 29/जनवरी/2015 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  10. फ़िराक के विषय में इतनी जानकारी भरा लेखन ! अद्भुत ! लेकिन एक चीज की कमी मुझे लगी श्री राजीव कुमार झा जी , कहीं भी आपने फ़िराक साब को फ़िराक गोरखपुरी नहीं लिखा है और कहीं भी उनका वास्तविक नाम "ओमप्रकाश " नहीं लिखा है !

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    1. योगी जी,सादर.फ़िराक साहब के लिए सरनेम का प्रयोग मैंने जानबूझकर नहीं किया,क्योंकि फ़िराक जैसा तखल्लुस किसी और का नहीं है.वैसे पोस्ट के अंतिम में keywords में मैंने उनका पूरा नाम लिखा है.
      उनके वास्तविक नाम रघुपति सहाय से तो सभी परिचित हैं लेकिन ओमप्रकाश ?

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    2. ओह ! क्षमा चाहता हूँ आदरणीय श्री राजीव जी

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  11. बहुत ही बेहतरीन आर्टिकल है। काफी जानकारी हासिल हुई। हां फिराक साहब का असली नाम मुझे भी नहीं पता था। बताने के लिए बहुत बहुत धन्‍यवाद।

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