पिछले दिनों जब पद्म विभूषण सम्मान लेते दिलीप साहब का भावहीन चेहरा टीवी पर देखा तो बहुत कुछ रीत गया.दिलीप साहब को
ऐसे देखने की आदत नहीं थी.शायद वे इस दुनियां में रहते हुए भी यहाँ से मीलों दूर
थे.बचपन से ही उनकी फ़िल्में देखते हुए बड़े हुए एक पूरी पीढ़ी के लिए सदमे जैसा था.हम
सबके लिए तो वे वही दिलीप कुमार थे जो भोली मुस्कान लिए सिनेमाई परदे पर कौतूहल
जगा देते.
बहरहाल,वक्त
किसी का मोहताज नहीं होता.यह आम इन्सान और करिश्माई व्यक्तित्व में फर्क नहीं
करता.उम्र का असर हर किसी पर होता है.पर जिसे हर वक्त कुछ अलग रूप में देखने की
आदत होती है उसे किसी और रूप में देखने पर शॉक जैसा जरूर लगता है.
युसूफ खान दिलीप कुमार कैसे बने यह एक अलग वाकया है लेकिन आज दिलीप साहब के बहाने एक पुराने वाकये की याद ताजा हो आई.पापा तब बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में बिहार के मुंगेर जिले में पदस्थापित थे.उनकी सरकारी जीप के ड्राईवर रिजवान और अर्दली मसी थे.रिजवान कोई २६-२७ साल का नवयुवक था.मैं तब स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहा था.
रिजवान
से मेरी खूब पटती थी.इसका कारण यह भी था कि वह मुझे जीप चलाने से कभी नहीं रोकता
था.रिजवान और मसी दोनों घर के सदस्य जैसे थे.कई बार हमलोगों को गाँव पहुंचाने भी
चले आते.खाने पर माँ उन्हें बुलाने को कहती तो हम सब उन्हें ढूंढते रहते.बाद में
पता चलता कि वे पड़ोस में मेहमाननवाजी का लुत्फ़ उठा रहे हैं.यहाँ तक कि सोने के लिए
भी घर नहीं आते.
बाद
में एक पड़ोसी ने बताया कि राजेन्द्र जी और महेंद्र जी का स्वभाव बहुत अच्छा है.मैं
चौंक गया.राजेन्द्र और महेंद्र कौन हैं? अरे वही,आपके ड्राईवर और पिऊन.मैंने मन ही
मन में सोचा तो,रिजवान राजेन्द्र और मसी महेंद्र बन गए हैं.जब वापस सपरिवार मुंगेर
लौटते तो हम सब भाई-बहन इस वाकये पर खूब हँसते.
जब
कभी रिजवान सामने दिख जाता तो उनसे पूछता,राजेन्द्र जी कैसे हैं? और महेंद्र जी
कहाँ हैं.दोनों हम लोगों के साथ खूब ठहाका लगाते.मैंने उनसे कहा,यदि आप नाम नहीं
बदलते तो भी आपकी इतनी ही खातिरदारी होती.
आज इस वाकये को कई वर्ष बीत चुके हैं.रिजवान शायद अभी भी नौकरी में होंगे और मसी रिटायर हो चुके होंगे लेकिन जब कभी भी सियासतदानों की असहिष्णुता पर सियासत करते देखता हूँ तो यह सोचने लगता हूँ कि शायद उन लोगों को हमारी गंगा-जमुनी तहजीब से वास्ता न पड़ा होगा.यह तहजीब तो हमारे दिल में बसता है.
आज इस वाकये को कई वर्ष बीत चुके हैं.रिजवान शायद अभी भी नौकरी में होंगे और मसी रिटायर हो चुके होंगे लेकिन जब कभी भी सियासतदानों की असहिष्णुता पर सियासत करते देखता हूँ तो यह सोचने लगता हूँ कि शायद उन लोगों को हमारी गंगा-जमुनी तहजीब से वास्ता न पड़ा होगा.यह तहजीब तो हमारे दिल में बसता है.
ye ganga-jamuni tehzeeb hi Hindustan ko ek alag pehchaan deti hai warna hum bhi baki duniya ki bhed chaal mein hi hote
ReplyDeleteDhanyawad! Itna achchha article likhne ke liye aur hamare sath sajha karne ke liye.apka bahut bahut abhar!
ReplyDeleteRajeev bhaai bahut hi umdaa likha hai..mazaa aa gayaa! Kahaan chale gaye woh khoobsurat din...sigh!
ReplyDeleteKya baat hai! Bahut se gharon mein log parivar ke sadasya ki tarah hi rahte hain, majhab kaun puchta hai!
ReplyDeleteसादर आभार !
ReplyDeleteअच्छे लोगों की यादें जब तब जेहन में कौंध जाती है। .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर संस्मरण
जैसे आज गंगा-जमुना अपनी पहचान खोती जा रही है, अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए झूझ रही है वैसे ही हर भारतीय की हालत है। कि क्या वो खुद को वैसा ही दिखाएं जैसा वो वास्तव में है या वैसा दिखाएं जैसा सामने वाला चाहता है।
ReplyDeleteइसके जिम्मेदार नेता नहीं खुद जनता है। जब तक जनता इन नेताओं के पीछे-पीछे चलेंगी, खुद को नुकसान पहुंचाएगी।
दिलीप कुमार के बहाने'' बहुत ही उम्दा किस्म का आर्टिकल पढ़ने को मिला। मैंनें भी उन्हें टीवी पर देखा था। उनका शरीर भले ही उम्र की वजह से कमजोर हुआ हो पर माथे पर तेज युवावस्था के समान ही था।
ReplyDeletesahaz-saral bhasha me pyara sansmaran likhe hain.
ReplyDeleteसुन्दर व सार्थक रचना...
ReplyDeleteनववर्ष मंगलमय हो।
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
आपको जन्मदिन की बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteसादर
सादर आभार.
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