Thursday, May 15, 2014

उफ़ ! ये बिल्लियाँ














आज के इस युग में,विज्ञान के बढ़ते प्रभावों के बाद भी विश्व में मौजूद अंधविश्वास,जिसकी जड़ें काफी गहरी हैं,को खोजकर निकाल नहीं सके हैं.भारत ही नहीं,विश्व के कई विकसित देश बिल्ली को लेकर जन्मे अंधविश्वास को दूर नहीं कर सके हैं.आज बिल्ली विश्व की सर्वाधिक रहस्यमय प्राणी है.आम घरेलू पशुओं की तरह बिल्ली की गतिविधियाँ खुलेआम न होकर गोपनीय और रहस्यमय होती हैं.

सिर्फ भारतीय फ़िल्मी दुनियां ही नहीं बल्कि हॉलीवुड की सभी डरावनी फिल्मों में बिल्ली का होना इस अंधविश्वास को जिंदा रखने का काम करता है.रात के अंधेरे में सुनसान रास्तों पर चमकती इसकी आँखें लोगों के डर का कारण बन जाती हैं.बिल्ली को लेकर कई प्रकार के अंधविश्वास को जन्म देती किस्से-कहानियां इस समय विश्वभर में प्रचलित हैं.बिल्ली की स्मृति में मंदिर तक बने हैं.

बिल्लियों को लेकर भारतीय जनमानस में इस तरह के अंधविश्वास की घुट्टी शायद बचपन में ही पिला दी जाती है,तभी तो व्यक्ति वयस्क एवं शिक्षित होकर भी जाने-अनजाने इसे मानता ही रहता है.बिल्ली के रास्ता काटने का निहितार्थ प्रायः सभी वाहन चालक समझते हैं,इसी कारण उस वक्त वाहन को रोककर सामने से किसी वाहन के गुजरने का इंतजार करते हैं.

कई साल पहले तक मिस्त्र में बिल्ली की पूजा करके उसे मान-सम्मान दिया जाता था.प्राचीन मिस्त्र की सभ्यता बिल्ली को देवी का स्थान मिलने का इतिहास में उल्लेख मिलता है.

अफ्रीका में बिल्ली का मूल स्थान बताया जाता है.यहाँ से बिल्ली दुनियां के अन्य भागों में पहुंची.सदियों से मनुष्य के साथ चली आ रही मांसाहारी प्राणी बिल्ली को ‘शेर’ की मौसी तक कहा गया.बिल्ली को लेकर हिंदी में कई कहावतें एवं मुहावरे बोल-चाल की भाषा में प्रयोग में लाये जाते हैं.

जापान में बिल्ली दक्षिण कोरिया से लायी गयी.दसवीं सदी में जापान आयी बिल्ली को लाने के पीछे उस खाद्य सामग्री की रक्षा करना था जिसे चूहे चट कर जाते थे.बाद में इन सभी बिल्लियों को राज-दरबार में सम्मानजनक स्थान मिला.

ईसाईयों में बिल्ली को चुड़ैल की सहयोगी मानकर उसे नफरत से देखा जाता है.ईसाई धर्म के अनुयायी लोग बिल्ली को चुड़ैल के रूप में प्रकट होना मानते आ रहे हैं.

हिंदू धर्म में बिल्ली का मरना अशुभ मानते हैं.हिंदू धर्म अनुयायी के हाथों से यदि बिल्ली की मौत हो जाती है तो उसकी मुक्ति सोने की बिल्ली बनाकर दान करने से होती है.भारत में बिल्ली का रोना और रास्ता काटना अशुभ माना जाता है.फ़्रांस के लोग बिल्ली को जादूगरनी मानकर मार डालते हैं.

भारत सहित विश्व के कई देशों में काली बिल्ली को ‘तांत्रिक’ लोग साधकर उससे कई प्रकार के तथाकथित कार्य करवाते हैं.काली रात को काली बिल्ली रोगटे खड़ा कर देती है.बिल्ली से दिल्ली तक की काल्पनिक अंधविश्वास से जुड़ी कथाएँ आज भी जहां-तहां सुनने को मिलती है.

बिल्ली मांसाहारी एवं शाकाहारी दोनों प्रकार के खाद्य पदार्थों को चट कर जाती है.ढूध का बिल्ली से जो रिश्ता है वही रिश्ता चूहे के साथ भी है.ढूध और चूहे को देखकर झपट पड़ती बिल्ली घरेलू पारिवारिक सदस्य रही है.आज भी कई परिवारों में सदस्य के रूप में रह रही है.बिल्ली को कई लोग शौकिया तौर पर भी पालते पाए जाते हैं.

Thursday, May 8, 2014

कालबेलियों की दुनियां

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कालबेलिया समाज  
कालबेलिया नृत्य 
कालबेलियों के आदि पुरुष माननाथ ने विष को पचाकर अपनी योग शक्ति की परीक्षा दी.यायावरी की जिंदगी बिताने वाले ये कालबेलिये सांप दिखाकर,जड़ी-बूटी बेचकर उदर-पूर्ति करते हैं.लेकिन जीवन के अभाव इनकी परंपरागत मस्ती और नृत्य-संगीत के प्रति दिलचस्पी को रंचमात्र भी कम नहीं कर पाए हैं.

राजस्थान के रेगिस्तान की वीरान वादियों को आबाद करने वाले कालबेलिया निराले ही आदिवासी हैं.अपने जीवन-यापन एवं भरण-पोषण के लिए संगीत को पेशे के रूप में अपनाकर इन्होंने राजस्थान की सांस्कृतिक परंपरा को कायम रखा है.यहाँ की वादियाँ इनकी स्वर-लहरियों से गूंजती रहती हैं.ये लोग स्थायी निवास बनाकर नहीं रहते बल्कि सदा घूमते रहते हैं,इसलिए घुमक्कड़ भी कहलाते हैं.

काला नाग जिसका काटा शायद ही कोई बचता है,शायद इसलिए पालतू काले नाग से भी लोग काफी दूर रहना पसंद करते हैं.लेकिन राजस्थान में एक घुमंतू आदिवासी समूह है,जो इन काले नागों को पकड़ता है,झोली में बंद करता है और उनकी सहायता से जीवन की गाड़ी खींचता है.ये आदिवासी ‘कालबेलिया’ कहलाते हैं.’काल’ अर्थात नाग,’बेलि’ अर्थात संरक्षण प्रदान करने वाले.
कालबेलिया अपना जीवन यापन करने के लिए सांप पकड़,उसे झोली में डालकर कंधे से लटकाए फिरते हैं.

वे सांप को अपने विशेष वाद्ययंत्र ‘पुंगी’ की धुन पर नचाते हैं और लोगों का मनोरंजन करते हुए आटा,दाल,पैसा आदि एकत्रित करते हैं.ये लोग सांप,बिच्छू जैसे जहरील्रे जंतुओं के काटे हुए का इलाज करने के लिए जड़ी-बूटियों से बनी हुई दवाइयां भी बेचते हैं.ये निपुण संपेरे होते हैं और साँपों का व्यापार भी करते हैं.सांप से प्राप्त कुछ पदार्थों से काजल बनाकर भी बेचते हैं.

कालबेलियों का शरीरिक गठन,रंगभेद एवं कद के आधार पर माना जा सकता है कि इनकी उत्पत्ति काकेसायड के परिवर्तित रूप प्रोटो-आस्ट्रेलायड एवं निग्रायड प्रजाति के मिश्रण से हुई होगी.

कालबेलियों में यह किवदंती प्रचलित है कि एक बार जालंधरनाथ ने अपने इलमदारों को चुनौती दी कि जो इलमदार जहर पी जाएगा,वही सच्चा योगी माना जाएगा.गोरखनाथ के बारहवें शिष्य पावननाथ ने यह चुनौती स्वीकार कर ली और जहर पी लिया.जहर पी लेने के बाद भी वे जीवित रहे.इस तरह अपनी योगशक्ति की परीक्षा दी और सफल रहे.उसी दिन से उन्हें ‘कनिपाव’ कहा जाने लगा.

कनिपाव अर्थात जहर पीने वाला,मौत को जीतने वाला यानि कालबेलिया.कनिपाव ने एक संप्रदाय भी चलाया.वह पावपथ के नाम से ख्यात हुआ.इस पावपथ में जो दीक्षित हुए,वे कालबेलिया कहलाये.उन्होंने शिव को अपना आराध्य देवता माना.

कालबेलियों की टोली में स्त्री-पुरुष और बच्चों के अलावा सामान ढोने के लिए गधे,मुर्गे-मुर्गियां,कुत्ते एवं अन्य पालतू जानवर होते हैं.टोली में शिकारी कुत्ते का होना भाग्यशाली समझा जाता है.शिकारी कुत्ते जानमाल की सुरक्षा तो करते ही हैं,शिकार में भी सहायक होते हैं.पहले वे पशुओं की खालें बेचा करते थे,लेकिन अब वन्य जीवों के संरक्षण से यायावरी का जीवन बितानेवालों की आमदनी में बाधा पड़ गई है.अब ये सांप दिखाकर,जड़ी-बूटी बेचकर जीवन-यापन करते हैं.

कालबेलियों की एक अन्य उपजाति के लोग सांप नहीं पकड़ते और अधिक घूमते भी नहीं.यह उपजाति गांवों के बाहर तंबू में डेरा डाले रहती है और हाथ से चलाई जाने वाली चक्कियां बेचकर उदर-पूर्ति करती हैं.

कालबेलिया स्त्रियाँ हुनरमंद होती हैं.दैनिक जीवन में काम आने वाली चीजें ये स्वयं ही बना लेती हैं.स्वभाव से ही ये शोख और चंचल होती हैं.तरह-तरह के गहनों से सजना इनका ख़ास शौक है.इनके आभूषण अधिकतर मोतियों एवं मणियों के बने होते हैं.इन्हें ये खुद ही बनाती हैं.

कालबेलियों के गीत इनके सामान्य जीवन से संबंधित होते हैं और अधिकतर नाचते हुए गाये जाते हैं.कालबेलिया नृत्य देश-विदेशों में काफी लोकप्रिय है.मुंह ढंककर नृत्य करना इसकी विशेषता है.ये खुद को उसी तरह दर्शाते हैं,जैसा कि सांप चलते समय दिखाई देता है.

‘पणिहारी’,’इंडोणी’ और ‘शंकरिया’ सांप को मोहित करने वाली धुनें हैं,जिनके आधार पर इनके नृत्यों के नाम पड़ गए हैं.इनके अलावा ‘बीछूड़ो’,’लूर’ आदि गीत भी काफी लोकप्रिय हैं.स्त्रियाँ पुंगी के साथ सुर मिलाकर कान पर हाथ रखकर ऊँचे स्वर में गाती हैं.कंठ का सुरीलापन और वाद्यों का मधुर मोहक संगीत,नृत्य की गति को तीव्र कर देता है,इसलिए नृत्यों की गति बहुत तेज होती है.

पुंगी,खंजरी,चंग,घोरालियों आदि कालबेलियों के प्रमुख वाद्ययंत्र हैं.अपने वाद्ययंत्र ये खुद ही बनाते हैं.कालबेलियों के गीतों एवं नृत्यों में कोई धार्मिक परंपरा नहीं होती.किसी जाति,समाज,गाँव या गिरोह से संबंध नहीं होने के कारण ये निर्लिप्त होकर अपनी राय देते हैं.कालबेलियों के कई गोत्र हैं जो अधिकतर राजपूतों की जातियों के समान उच्चारित होते हैं.

कालबेलिये हिंदू धर्मावलंबी हैं.इनके द्वारा मनाये जाने वाले सभी उत्सव हिंदू रीति-नीति से मेल खाते हैं.ये गोरखनाथ,कनिपाव और शिव को आदर की दृष्टि से देखते हैं और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं.

कालबेलिये शव को जलाते नहीं,दफ़न करते हैं.कारण यह है कि ये अपने को जोगी मानते हैं और जोगी समाधि लेते हैं.खानाबदोशी जीवन से छुटकारा दिलाने के लिए इनके लिए स्थायी कॉलोनियां भी बनायीं गई हैं.आरंभ में कालबेलियों की एक संयुक्त सामाजिक इकाई थी लेकिन बदलते परिवेश में इनकी कला धीरे-धीरे कम होती जा रही है.

Thursday, May 1, 2014

पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत

              
                                      

आदि काल से ही मानव मन अपने उद्गम के विषय में जानने के लिए आतुर रहा है.मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ से आया? आख़िर इस पृथ्वी पर जीवन कहाँ से आया ? ये तरह-तरह के जीव कैसे बने? ये सभी प्रश्न निश्चय ही गूढ़ रहस्य हैं.वैज्ञानिक,काफी समय से इस विषम पहेली का हल ढूंढने का प्रयास करते रहे हैं,जिसके परिणामस्वरूप समय-समय पर विभिन्न मत सामने आये.

वैज्ञानिक अध्ययनों के परिणामस्वरूप तीन प्रमुख विकल्पों का विकास हुआ.प्रथम विकल्प दार्शनिक एवं धार्मिक मान्यताएं हैं.दूसरे विकल्प के रूप में वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर ज्ञात जैवरासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा जीवोत्पत्ति को समझाने का प्रयास किया.अंतिम विकल्प में मानव मन ने कुछ अधिक काल्पनिक हो,जीवन को ब्रह्मांड के ही किसी अन्य ग्रह की देन माना है.

प्राचीन धार्मिक मतों के अनुसार तो समस्त ब्रह्मांड एवं जीवों की रचना को ईश्वरीय देन माना गया है.यही मत,प्रायः सभी धर्मों में थोड़े बहुत फेरबदल के साथ स्वीकार्य है.

ऋग्वेद के नासदीय सूक्त का दसवां मंडल उत्पत्ति के स्रोत से संबंधित है.इसके प्रथम सूक्त में कहा गया है ....

नासदासींनॊसदासीत्तदानीं नासीद्रजॊ नॊ व्यॊमापरॊ यत् ।
किमावरीव: कुहकस्यशर्मन्नभ: किमासीद्गहनं गभीरम् ॥१॥

पं. जवाहर लाल नेहरू ने भी ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में ऋग्वेद के इन्हीं सूक्तों का उल्लेख किया.जिसे प्रसिद्द जर्मन विद्वान मैक्स मूलर ने 'उत्पत्ति का गीत' कहा है. इसका हिंदी अनुवाद ‘भारत एक खोज’ धारावाहिक के शीर्षक गीत के रूप में प्रस्तुत किया गया था......

सृष्टि से पहले सत् नहीं था
असत् भी नहीं
अन्तरिक्ष भी नहीं
आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या?
कहाँ?
किसने ढका था?
उस पल तो
अगम अतल जल भी कहाँ था? ।।१।।

हालाँकि, छठे सूक्त में यह कहा गया है कि देवताओं की उत्पति भी सृजन के बाद ही हुई है.....

कॊ ।आद्धा वॆद क‌।इह प्रवॊचत् कुत ।आअजाता कुत ।इयं विसृष्टि: ।
अर्वाग्दॆवा ।आस्य विसर्जनॆनाथाकॊ वॆद यत ।आबभूव ॥६॥

सृष्टि यह बनी कैसे?
किससे?
आई है कहाँ से?
कोई क्या जानता है?
बता सकता है?
देवताओं को नहीं ज्ञात
वे आए सृजन के बाद
सृष्टि को रचा है जिसने
उसको जाना किसने? ।।६।।

सर्वप्रथम ग्रीक वैज्ञानिक एवं दार्शनिक अरस्तू ने इस विषय पर प्रचलित विचारधारा से अलग हटकर सोचा और परिणामस्वरूप ‘स्वतो-जनन का मत’ एक वैज्ञानिक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया.इस दिशा में प्रथम महत्वपूर्ण खोज लुई पास्चर द्वारा वायुमंडल में अति सूक्ष्म जीवों की उपस्थिति सिद्ध होने पर ही हुई.उसके फलस्वरूप पहले के सभी मतों को सर्वथा निर्मूल सिद्ध कर दिया.

अब तक के प्राप्त साक्ष्यों एवं अनुसंधानों के आधार पर अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पृथ्वी का निर्माण आज से लगभग 4.5 अरब वर्ष पूर्व ही सौर गैसीय मेघों के संघनन के द्वारा हुआ होगा.सौर गैसीय मेघों में हाइड्रोजन एवं हीलियम पर्याप्त मात्रा में होते हैं.वैज्ञानिक क्लाईड के मतानुसार तो प्रारंभिक अवस्था में पृथ्वी पर न तो चुंबकीय शक्ति थी और न वायुमंडल जैसी कोई चीज.उस समय सौर वायु ही पृथ्वी के धरातल पर प्रवाहित होती रही होगी.बाद में ही इस प्रकार अवकारक वातावरण प्रायः 1.5 अरब वर्षों तक रहा होगा. 

वैज्ञानिकों का मत है कि जीवोत्पत्ति प्रथम चरण में,निश्चय ही अवकारक वायुमंडल में हुई होगी.साधारण कार्बनिक अणु विद्युत –घर्षण या सूर्य की पराबैंगनी किरणों की शक्ति के कारण ही संयोजित हो पाए होंगे.

पहले चरण में छोटे-छोटे सरल कार्बनिक अणु पृथ्वी की गीली सतहों पर वातावरण की गैसों के संयोजन से बने.दूसरे चरण में इन्हीं छोटे-छोटे सरल कार्बनिक अणु ने आपस में मिलकर जटिल कार्बनिक अणुओं जैसे-पेप्टाइड,नयूक्लियोटाइड एवं वासा आदि का निर्माण किया.तीसरे चरण में इयोबायोंट बने,जो बिना किसी ऊपरी झिल्ली के थे और रचना के एक कोशीय जीवों से भी सरल होंगे,परन्तु इनमें सरल विभाजन द्वारा प्रजनन शक्ति आ गई थी.चौथे चरण में प्रकाश संश्लेषण द्वारा नयूक्लियो-प्रोटीन आदि जटिल अणुओं का निर्माण हुआ.इनके विकास से ही प्रायः वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ी. 

पांचवें चरण  के समय तक पृथ्वी का वातावरण आज के वातावरण जैसा ही हो गया होगा तथा ऐसे ही वातावरण में वासा से ढंके व्रेनगेल बने.नयूक्लियो-प्रोटीन की प्रजनन शक्ति के कारण वे संख्या में काफी बढ़ गए होंगे.अंतिम चरण में एक पतली झिल्ली से ढंके एक कोशीय जीवों की उत्पत्ति हुई.इनमें नयूक्लियो-प्रोटीन के समान विभाजन तथा पुनर्मिलन की क्षमता थी.ये ही प्रोटोजोआ नामक समुदाय के पूर्वज में आए.

इस प्रकार प्रथम जीव का पृथ्वी पर पदार्पण हुआ.इन एक कोशीय जीवों से मनुष्य तक की उत्पत्ति,क्रमिक विकास एवं प्राकृतिक चयन की अनोखी गाथा है.

कई वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी पर जीवन ब्रह्मांड के किसी अन्य ग्रह से संक्रामक रोग के जीवाणुओं के समान ही आया होगा.सर्वप्रथम आर्हीनियस ने 1908 में इस प्रकार का सुझाव दिया उनके अनुसार जीव कण प्रकाश-किरणों के दबाब के कारण,किसी अन्य केन्द्रीय सौर-मंडल से यहाँ आए.उनकी यह परिकल्पना ‘पेसर्पमिया परिकल्पना’ कहलायी.कुछ इसी प्रकार का मत वैज्ञानिक केल्विन का भी है,जिनके अनुसार जीवन पृथ्वी पर उल्काओं के माध्यम से ही पहुंचा होगा.

धरती पर जीवन के उद्गम के स्रोत,प्राचीन जीवों के अवशेष के रूप में पुरानी चट्टानों में सुरक्षित रहे हैं. शॉक,क्विनबल्डन,वारधून ने 1968 में,सर्वप्रथम अमीनो एसिड,हाइड्रोकार्बन तथा कुछ अम्लीय वसा के अवशेष,अफ्रीका की लगभग 330 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टानों से ढूंढ निकले.इसी तरह के कुछ अन्य अवशेष भी सुपीरियर झील के निकट प्राप्त 309 करोड़ वर्ष पुरानी गन फ्लीट पर्ट नामक चट्टानों तथा मध्य आस्ट्रेलिया की भी इतनी पुरानी चट्टानों से पाए.इनसे कुछ अधिक विकसित बैक्टीरिया दक्षिणी अफ्रीका की 200 करोड़ वर्ष पुरानी चट्टानों में पाए गए.

वर्कनल तथा मार्शल के अनुसार इस प्रकार विकसित बहुकोशीय जीवों के कारण ही शायद वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ी तथा 100 करोड़ वर्ष पूर्व ही वातावरण अवकारक से बदलकर ऑक्सिकारक हो गया था.

भारत में भी इसी तरह के प्राम्भिक जीवों के अवशेष,लगभग 200 करोड़ वर्ष पुरानी धारवाड़ चट्टानों में मिले.राजस्थान के अरावली शैलों से भी कुछ शैवालीय स्ट्रोमैटोलाइट,चूने के पत्थरों में मिले.कुछ गोल तथा अंडाकार कोलिनियाँ समुदाय के शैवालों के अवशेष भी कडप्पा की चट्टानों से प्राप्त हुए.