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Thursday, September 24, 2015

प्रकृति से साहचर्य का पर्व : करमा


प्रकृति के परम – तत्व से साहचर्य का महापर्व है - करमा.भाद्र पद एकादशी को जनजातीय समाज इसे काफी उत्साह से मनाता है.इन दिनों धान की बालियों से भीनी-भीनी गंध पसरने लगती है और हरियाली दूर-दूर तक छा जाती है.ऐसे मौसम में मनाये जाने वाला करमा ही एक ऐसा महापर्व है जिसे जनजातीय समाज के अलावा अब अन्य समुदाय भी समान रूप से मनाते हैं.

गैर जनजातीय महिलाएं और कन्याएं अपने भाई की सलामती के लिए व्रत रखकर इसे मनाती हैं जबकि जनजातीय समुदाय भाग्यवर्द्धन और परस्पर बंधुत्व में वृद्धि के लिए.कर्मा की पृष्ठभूमि में जनजातीय सांस्कृतिक चेतना,जीवन-दर्शन,लोक-विश्वास,धर्म और प्रकृति के प्रति आदिम संवेदनाएं हैं.निराकार ईश्वरीय सत्ता के समक्ष मानव का श्रद्धा –नैवेद्ध  अर्पण करना मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का प्रतीक है.

करमा का अर्थ है – ‘हाथमा’ अर्थात भाग्य में.इस पर्व में करम वृक्ष की डाली गाड़ कर उसकी पूजा की जाती है.आदिवासी समाज में उनके पुरोहित – पाहन करम डाली की पूजा संपन्न कराते हैं तो गैर आदिवासी समाज में पुरोहित यह पूजा कराते हैं.करमा पर्व के दिन भर स्त्री-पुरुष उपवास रखते हैं और रात्रि में पूजा करते हैं.यह पर्व सामूहिक रूप से मनाया जाता है.धूप-दीप,नैवेद्ध,फूल-अक्षत,सिन्दूर,खीरा,भुने हुए चने का प्रसाद इसमें चढ़ाया जाता है.

आदिवासी युवक वन से करम वृक्ष की डाली लाने के लिए समूह बनाकर निकलते हैं.कुंआरी कन्याएं उन्हें विदाई देती हैं.करम की डाली लाने के लिए युवा आदिवासी मांदर और नगाड़ा बजाते हुए जंगल की ओर जाते हैं.युवतियां उनके साथ नाचती-गाती जाती हैं.करम के वृक्ष के पास पहुंचकर वे उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ समय तक उसकी परिक्रमा करते हुए नृत्य करते हैं.

जो युवक-युवतियां पहली बार उपवास कर रहे होते हैं,वे करम वृक्ष के चारों ओर धागे बांधते हैं.फिर उस पर हल्दी पानी छिड़कते हैं.इसके बाद कोई युवक वृक्ष पर चढ़ कर उसकी तीन डालियां काटता है.इन कटी हुई डालियों को जमीन पर नहीं गिरने दिया जाता.सम्मानपूर्वक इन डालियों को युवक साथ आयी युवतियों को सौंप देते हैं.वे करम की डालियां कंधे पर ढो कर लाती हैं.

सभी युवक युवतियां नृत्य-गीत के बीच थिरकते हुए गांव वापस आते हैं.पह्नाइन गांव के अखाड़े के पास उनका स्वागत करती हैं.उनके साथ पाहन और महतो भी होते हैं.युवतियां डालियों को पह्नाइन को थमा देती हैं.करम की डालियों को धोने के पश्चात अखाड़े के बीच उन्हें रोप देती हैं.उस पर तेल सिंदूर का लेप किया जाता है.उसके निकट एक दीप जलाया जाता है.फिर सारी रात और दूसरे दिन करमदेव की विदाई तक गीतों की अनवरत धारा बहती रहती है.मांदर,बांसुरी,ठेचका,नगाड़ा वाद्य यंत्रों के ताल-लय पर झूमर नृत्य करते हुए उपवास रखने वाले युवक-युवतियों के पाँव थकते नहीं.
करमा गीत प्रायः पांच तरह के होते हैं – सुमिरनी,संक्षईया,अधरतिया,मिनसहर,ठड़िया.           

सुमिरनी किसी शुभकार्य से पूर्व ईश्वर वंदना के गीत होते हैं.इनमें राम,कृष्ण और परम सत्ता के प्रति श्रद्धा निवेदित की जाती है.इसी तरह का एक गीत है.........

हाय रे ओकोतिया
रुतई औरोड,तानी रे छैला
हाय रे ओकोतिया
निंदा सिंगी आ- ए-
नलिन मेंदा जो रो बान रे छैला
हाय रे ओकोतिया
चंदन कस्तूरी या सोबेनगोसो जना
हाय रे ओकोतिया

(हाय !  बांसुरी बजाने वाला छोकरा कहां चला गया ? हाय-हाय,कहां चला गया ? रात-दिन उसके लिए आँखों से आंसू बरसते रहते हैं.हाय,वह छोकरा कहां चला गया ? चंदन-कस्तूरी एवं फूल मुरझा गये.   हाय ! वह बांसुरी बजाने वाला छोकरा कहां चला गया ?)

संक्षईया में स्थानीय जनजीवन और जनजातीय समाज की व्यथा का शाब्दिक चित्रण होता है.मध्य रात्रि के प्रथम पहर में गाया जाता है – अधरतिया या रिझवारी,जो श्रृंगारसिक्त भावना पर आधारित होता है.इसमें दिन-रात को संयोग-वियोग के रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है.
रात्रि का अंत होता है.पूर्व में सूर्य उदय होने लगता है.मन में उमंगें जागने लगती हैं.तो स्वतः ही कंठ में सुर जगने लगते हैं.इस समय गाया जाता है मिनसहर गीत,जिनमें संघर्षशील जीवन में क्षण भर के लिए,घने घुमड़े बादलों के बीच छिपे सूर्य को निहारने का सुख मिलता है.......

कनेत उंचे कारी बदरिया रे
कने तरिसे जल मेघे
सरगे त उंधे ये कारी बदरिया
अघरे बरीसे जल मेघे....

ठड़िया करम गीतों में जनजातीय जीवन-दर्शन का भावात्मक  स्पर्श होता है.क्षणभंगुर  जीव-जगत में ऐंद्रिय सुख मात्र क्षणिक है और निरंतर क्षय होता हुआ मनुष्य कब तक इस सत्य से अनभिज्ञ रहेगा ? इस लिए भोग-विलास में न पड़कर जीवन को सुधारें,धरती को संवारें.

झूमर नृत्य और करमा गीत के बाद युवतियां करम डालियों के साथ जल रहे दीपक के पास आकर बैठ जाती हैं.उनकी टोकरियों में फूल और कपड़ों में लिपटा एक खीरा रखा होता है,जो उनकी भावी संतान का प्रतीक होता है.करम पूजा के पश्चात पाहन करमा-धरमा की कथा सुनाता है.करमा कथा विभिन्न रूपकों में,भिन्न-भिन्न अंचलों में भिन्न-भिन्न कथानकों में कही जाती है.मुंडारी,संथाली,गोंड आदि जनजातीय समाजों में करमा-कथा कई कारणों से भिन्न है क्योंकि काल और परंपरा इनके समाजों में भिन्न है. लेकिन सभी करमा कथाओं का सार एक सा ही है.

राजा द्वारा करम की उपेक्षा और परिणामस्वरूप उस पर विपत्तियों का आगमन.मुंडारी करमा-कथा में सृष्टि का उद्भव और आदिमानव के जन्म का भी वर्णन है.सामाजिक विकास और मानवीय-मूल्यों का क्रमिक विकास भी इस कथा में प्रतीक रूप से वर्णित है.कथा श्रवण के बीच-बीच में करम की कृपा के लिए करम डाली पर पुष्पों की वर्षा की जाती है.कथा समाप्ति पर लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं.

रात्रि में फिर पूजा-स्थल पर एकत्र होते हैं.रातभर,भोर की लाली फूटने तक,करम के आदर में नृत्य-गीत चलता रहता है.नृत्य अबाध होता है,इसलिए इसकी तेज और मंद लय में रहती है.मांदर पर एक विशेष ताल ही बज सकता है.इस आयोजन में ढोल-वादन वर्जित है.दिन चढ़ते ही पह्नाइन करम की डालियां   उखड़वाकर युवतियों को सौंप देती हैं.वे इसे अपने कंधों पर उठा लेती हैं.झूमते-थिरकते नदी या जलाशय में उसे विसर्जन कर वे करम राजा या वनदेव से भाई और परिवार के लिए सौभाग्य की याचना करती हैं.

आज के बाजारवाद और उपभोक्तावाद के इस युग में जहां पर्व-त्यौहार ग्लैमर से युक्त होने लगे हैं वहीँ प्रकृति से साहचर्य का यह पर्व मनुष्य को अपने जड़ों की ओर संकेत करने और प्रकृति के साथ संबंधों को भी दर्शाता है.

Thursday, April 3, 2014

मिथकों में प्रकृति और पृथ्वी


















साहित्य में रूपक या प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कहने की शैली पाई जाती है.साहित्य में जिसे रूपक या प्रतीक कहा जाता है,वही आदिम लोक-साहित्य में समानांतर बिंब प्रस्तुत करते हुए मिथक के नाम से प्रसिद्द रहे हैं. यह भी एक आश्चर्यजनक संयोग की बात है कि मिथक में जो कल्पनाएँ संजोयी गयी हैं, वे ही प्रतीकात्मक स्वरूप में ऋग्वेद में पायी जाती हैं,और बाद में उन्हीं का रोचक स्वरूप पुराण में मिलता है.

मिथक एक ऐसी कथा है जिसमें अनेक प्रतीक एवं बिंब एकसाथ जुड़े हैं.यह मनुष्य की आदिम कल्पनाओं का मूर्त रूप है.कहानी और गल्प कथाओं का संभवतः इसी से सृजन हुआ होगा.

आदिकाल का आदि मानव जब घनघोर अंधेरी रात में,सुनसान जंगल में,भयंकर तूफ़ान वर्षा से घिर जाता तो बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की चमक उसमें भय जगाती थी.उसमें उसे दैवी प्रकोप का आभास होता था.चंद्रमा का घटता-बढ़ता स्वरूप,ग्रहण लगने तथा छूटने की प्रक्रिया,बिना अवलंबन का टिका इन्द्रधनुष और सूर्योदय और सूर्यास्त का दृश्य भी उसके लिए रहस्य का विषय रहा होगा.

जैसे-जैसे वह प्रकृति के निकट संपर्क में आता गया,भय का स्थान पूजा-भावनाओं ने ले लिया और तब उसने चाँद,सूरज,बादल,बिजली,अग्नि और जल आदि प्रकृति के समस्त उपादानों का मानवीयकरण कर,उनके संबंध में ऐसी मनोरम रंगीन कल्पनाएँ बनीं जो जीवंत होकर बोलने-बतियाने सी लगीं.मनुष्य की व्यक्तिगत कल्पनाओं ने जब समष्टिगत आस्था का रूप लिया तो वे मिथक बनकर जनमानस में छा गयीं.

इन मिथकों को मानव की अविकसित बुद्धि में कल्पना की उपज या आदिम लोक-कथाओं के संसार के रूप में देखा जा सकता है.प्रख्यात फ्रांसीसी विचारक और दार्शनिक कॉम्ट ने भी मानवीय बुद्धि के विकास क्रम के तीन स्तरों का उल्लेख किया है-आध्यात्मिक,तात्विक और प्रत्यक्ष या वैज्ञानिक स्तर.इन मिथकों को मानवीय बुद्धि के इन्हीं विकास क्रम के सन्दर्भ में समझा जा सकता है.

आदिमानव ने जब आकाश से पानी को बरसते और आग को लकड़ी में पैदा होकर उसी में छिप जाते देखा,तो उसके मन में प्रश्न उत्पन्न हुआ,’ऐसा क्यों होता है.’यह क्यों ही मिथक का जनक रहा है.

पानी बरसने के संबंध में ‘अका’ जनजाति का एक मिथक इस प्रकार है कि ‘पहले पानी नहीं था.
सभी प्राणी प्यास से तड़पते थे.एक दिन सबने विचार किया कि पानी की खोज करनी चाहिए.सवाल उठा कि उसे कौन खोजे? सबने अपनी लाचारी जतायी.इतने में एक नन्हीं चिड़िया ने कहा,’मुझे मालूम है कि पानी कहाँ है’.सबके चेहरे पर ख़ुशी छा गयी और उन्होंने चिड़िया से पुछा,’वह कहाँ है.’उसने कहा,’जहाँ से सूरज उगता है, वहां पानी का एक सरोवर है.सरोवर के चारों ओर एक बहुत बड़ा सांप कुंडली मारकर बैठा है.अगर उसकी कुंडली खुलवा दी जाय तो पानी बह निकलेगा.सबने कहा कि यह काम तो कठिन है.उसने कहा कि वह यह कार्य कर सकती है.वह उड़ती-उड़ती सरोवर के पास पहुंची और सांप को देखकर पहले तो डरी,फिर रात होने की प्रतीक्षा करने लगी.जब रात हुई तो सांप सो गया.उसने झपटकर उसकी आँखें नोंच लीं.सांप दर्द से तड़प उठा और उसकी कुंडली खुल गई.कहते हैं,तभी से सरोवर का पानी नदी बनकर बह रहा है.

जितनी जनजातियाँ हैं पानी बरसने के संबंध में सबकी अलग-अलग मान्यताएं हैं.’मिरी’ नामक पहाड़ी जाति का कहना है कि – पानी का दुरूपयोग करने से ही पानी की कमी है.इसे एक रोचक कथा के रूप में कहा गया है कि स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा आसमान में रहता है.उनके घर में एक बड़ी सी टंकी है और एक नदी है जो जमीन से आसमान तक चली गई है.उसी से यह टंकी भरती है.जब कभी यह टंकी बह निकलती है तभी धरती पर बरसात होती है.

कभी-कभी टंकी में पानी कम हो जाता है तो पति-पत्नी झगड़ने लगते हैं.पति अपनी पत्नी से कहता है,’तुम इतना पानी क्यों खर्च करती हो कि टंकी खाली हो जाए.’ पत्नी कहती है-‘तुम्हीं तो चावल की शराब पीते हो और उसी को बनाने में सारा पानी खर्च हो जाता है.’बात-बात में झगड़ा बढ़ जाता है और पत्नी गुस्से में अपने कपड़े उतर फेंककर घर से भाग जाती है.उसका पति उसका पीछा करता है.दोनों में युद्ध ठन जाता है.जिसे हम बिजली कहते हैं,वह बरसात में, उस सुंदर स्त्री की देह की चमक है और जिसे हम बादलों की गरज कहते हैं,वह उसके पति की हुंकार है.दोनों का यह युद्ध आज भी चल रहा है.

पृथ्वी और आकाश की रचना कैसे हुई इस संबंध में ‘खोआ’ मिथक में कहा गया है – कहते हैं,पहले न धरती थी न आकाश.तब भगवान अपने दो बेटों के साथ रहा करता था.एक दिन खेल-खेल में दोनों बेटों ने धरती और आकाश बना डाले.जब दोनों बन गए एक ने धरती पर आकाश का ढक्कन लगाना चाहा,लेकिन उसने देखा कि धरती इतनी बड़ी थी कि उस पर आकाश का ढक्कन लगता ही नहीं था.अतएव उसने दूसरे से कहा कि जरा अपनी धरती को छोटी कर दो ना. दूसरे ने मिटटी को दबाकर धरती को इतना छोटा कर दिया कि उस पर आकाश का ढक्कन लग गया.कहते हैं उसने जहाँ-जहाँ से मिट्टी को दबाया था,उसका उभरा हुआ हिस्सा पहाड़ कहलाया और दबा हुआ हिस्सा घाटियाँ एवं नदियाँ बनीं.

इस मिथक में भगवान के दो बेटों द्वारा खेल-खेल में धरती और आकाश बना डालने की बात कही गई है.पृथ्वी चाहे जैसे बनी हो,लेकिन दोनों के पीछे मनुष्य की भव्य विराट कला को देखा जा सकता है.

आकाश और पृथ्वी की इन्हीं कथाओं में से एक दिन ‘भारत-माता’ की कल्पना का जन्म हुआ होगा.एक ‘आपातानी’ मिथक में पहली बार पृथ्वी कि कल्पना औरत के रूप में की गई है.इसके अनुसार-‘पहले पृथ्वी एक औरत जैसी थी.उसका सिर था,हाथ-पाँव थे,और तोंद थी.जिस पर मनुष्य जाति रहती थी.इसी से वह हमेशा लेटी रहती थी.उसने सोचा कि अगर मैं बड़ी हुई तो मेरे सब बच्चे गिर कर मर जाएंगे.इस बात से वह इतना डरी कि आत्महत्या कर ली.कहते हैं,उसके सिर से पहाड़ बने,हड्डी एवं पसलियों से पहाड़ियां बनी,गर्दन से उत्तरी प्रदेश बना,पीठ  से आसाम का हरा-भरा मैदान बना और उसकी आँखों से चाँद और सूरज बने,जिसे उसने आकाश में चमकने को भेज दिया है.’

धरती की देवता आग छिप कर क्यों रहती है.इस संबंध में डाफला जनजाति में एक मिथक बहुत प्रसिद्द है-कहते हैं एक बार आग और पानी में लड़ाई छिड़ गई.चूँकि पानी की सबको जरूरत थी,इसलिए सब ने पानी का साथ दिया.लाचार आग अपनी जान बचाकर भागी.पानी ने उसका पीछा किया.वह पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर पहुंची.पानी वहां भी बादल बनकर जा पहुंचा.बचने के लिए आग कूदकर पत्थरों में समा गई.पत्थरों में जाने की शक्ति पानी में नहीं थी.तब से आग छिपकर वहां बैठी है.जब आदमी को उसकी जरूरत पड़ती है वह दो पत्थरों को रगड़कर उसे बुला लेता है.बाद में वह पुनः उसी में छिप जाती है.

चाहे वैदिक युग में ऋषियों द्वारा दो अरणियों को रगड़ने से उत्पन्न यज्ञ की अग्नि हो या आदिम युग में शिकार के लिए पत्थर की रगड़ से उत्पन्न शिकार की आग,दोनों में छिपकर रहने का इतिहास छिपा है.वह छिपकर क्यों रहती है.इसी को लेकर इस मिथक की रचना हुई है.
आदिम जातियों के लिये सबसे बड़ा आश्चर्य चाँद और सूरज का ग्रहण लगना है.

इस ग्रहण लगने की प्रक्रिया को अपनी गरीबी से जोड़कर उन्होंने ऐसा मिथक तैयार किया कि उसके सामने समूचा कथा साहित्य फीका पड़ जाता है.कहते हैं-एक बार आदिवासियों के इलाके में अकाल पड़ा.उन्होंने मदद के लिए भगवान से प्रार्थना की.भगवान ने कर्जे से अनाज लाकर उनकी मदद की.दूसरे साल फिर अकाल पड़ा.भगवान ने फिर कर्जे से अनाज लाकर उनकी मदद की.    देखते-देखते कर्जा बढ़ता गया.साहूकार को यह सहन नहीं हुआ.उसने अपने कर्जे की वसूली के लिए भगवान को पकड़ लिया.चाँद और सूरज से यह अन्याय देखा नहीं गया तो उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं.इसी को ग्रहण लगना कहते हैं.

इस तरह मिथक और पौराणिक कथाओं में न केवल वर्तमान बल्कि आने वाले जीवन की कल्पना की गई है जिसका संबंध मानवीय जगत से रहा है.