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Monday, July 24, 2017

पौराणिक आख्यानों की ओर


पौराणिक आख्यानों में कई ऐसे दृष्टांत मिल जाते हैं जो आज के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक लगते हैं.कहा जाता है कि प्राचीन भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी और साधारणतः इसमें परिवर्तन संभव नहीं था.लेकिन विश्वामित्र प्रतापी क्षत्रिय नरेश थे जिन्होंने अपनी तपस्या के बल पर ब्राह्मणत्व प्राप्त किया.जिस सविता देवी की स्तुति रूप गायत्री की दीक्षा उपनयन में दी जाती है उसके दृष्टा विश्वामित्र ही माने जाते हैं.

पुराणों के अनुसार विश्वामित्र कान्यकुब्ज देश के महीपति थे.एक बार वे सेना के साथ आखेट के लिए गए और शिकार करते हुए बहुत दूर निकल गए.भूख-प्यास से व्याकुल लौटते हुए एक जगह सुंदर आश्रम दिखा,पता चला यह महर्षि वशिष्ठ का आश्रम है.सेना को वहीँ छोड़ वे ऋषि के दर्शन हेतु उनके आश्रम जा पहुंचे.वशिष्ठ से कुशल क्षेम पूछने के बाद चलने को तत्पर हुए तो वशिष्ठ ऋषि ने उनसे आतिथ्य ग्रहण का अनुरोध किया.

विश्वामित्र को यह गर्वोक्ति लगी तो उन्होंने कहा कि उनके साथ विशाल संख्या में सैनिक भी हैं.वशिष्ठ ऋषि ने निवदन किया,क्या हानि है,पास ही पवित्र जल वाली नदी है.कम से कम उससे ठंढा जल तो सबको मिल ही जाएगा.भोजन के लिए भी जो हो सकेगा वह प्रबंध हो जाएगा.’

विश्वामित्र ने वशिष्ठ की उस उक्ति को गर्वोक्ति माना और विचार किया कि आज उनका अभिमान तोड़ ही देना चाहिए.प्रकट में कहा कि ऋषि की आज्ञा शिरोधार्य है,मैं सेना सहित आपका आथित्य ग्रहण करूंगा.’वशिष्ठ के शिष्यों ने प्रत्येक के लिए इच्छानुसार भोजन सामग्री प्रस्तुत कर दी साथ ही घोड़ों के केलिए भी यथोचित सामग्री प्रस्तुत की गयी.सभी लोगों के मन में विचार उत्पन्न हुआ कि इतना सुख तो अपने घरों में भी नहीं है.

भोजन आदि से निवृत्त होकर जब विश्वामित्र पुनः विदा मांगने वशिष्ठ के पास पहुंचे जब जिज्ञासा प्रकट की,’आश्रम तो छोटा प्रतीत होता है ,इतनी बड़ी सेना के लिए आथित्य का सामान कहाँ से आया.’वशिष्ठ ने अपनी गौ को ओर संकेत करते हुए कहा –‘भारतवर्ष का मुख्य धन तो यही गौ है.इस कामधेनु गौ की कृपा से ही यहाँ सब कुछ सुलभ है.’
विश्वामित्र ने कहा.’ऐसी अनुपम वस्तु का प्रयोग तो आप कभी-कभी ही कर पाते होगें,यह तो हमारे राजदरबार के उपयुक्त है.कृपया इसे हमें दे दीजिए.’वशिष्ठ ने कहा,’आप हमारे अतिथि हैं.अतिथि को उनकी इच्छानुसार सबकुछ दिया जा सकता है किंतु यदि यह गौ अपनी इच्छानुसार आपके साथ जाना चाहे तो इसे ले जा सकते हैं,इसके लिए बल प्रयोग नहीं होना चाहिए.’

महाराजा विश्वामित्र ने अपने सैनिकों को गौ ले चलने की आज्ञा दी किंतु गौ डकारते हुए वशिष्ठ के चरणों में बैठ गयी.वशिष्ठ ने कहा,’राजन, गौ जाना नहीं चाहती तो मैं बलात भिजने में असमर्थ हूँ.’इस पर विश्वामित्र आवेश में आ गए.उन्हों अपने सैनिकों को गौ को बांधकर ले जाने की आज्ञा दी लेकिन वशिष्ठ के तेज के कारण उनके समीप नहीं पहुँच सके.अंत में दिव्यास्त्रों का प्रहार शुरू कर दिया.

वशिष्ठ ने कोई उत्तर नहीं दिया केवल अपना ब्रह्मदंड लेकर खड़े हो गए.विश्वामित्र के दिव्यास्त्रों को ब्रह्मदंड निगल जाता था.यह देखकर विश्वामित्र ने अपना धनुष तोड़कर फेंक दिया उनके मुंह से निकल पड़ा.........

धिग् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं वलम् |
एकेन ब्रह्मदण्डेण सर्वस्त्राणि हतानि में ||

विश्वामित्र ने निश्चय किया कि वे ब्रह्म्बल प्राप्त करेंगे.इस निश्चय के साथ ही वे ब्रह्म्बल की प्राप्ति के लिए तपस्या करने चले गए.उन्होंने ताप किया और ब्राह्मणत्व प्राप्त किया.एक क्षत्रिय के ब्राह्मणत्व प्राप्त करने पर भी वर्ण व्यवस्था पर कोई चोट नहीं पहुंची.यह वर्ण व्यवस्था के लचीलेपन का प्रमाण है.ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लेने पर भी कौशिक गोत्र में बने रहने कि सम्भावना व्यक्त की जाती है.विश्वामित्र का कौशिक नाम वेदों और पुराणों में मिलता है.