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Thursday, February 26, 2015

परंपराएं आज भी जीवित हैं


कहा जाता है कि परंपराएं गतिशील होती हैं.समय के अंतराल में इनमें परिवर्तन अवश्य आती हैं.विख्यात समाजशास्त्री डॉ. योगेंद्र सिंह ने इस पर किताब भी लिखी है - 'भारतीय परंपरा का आधुनिकीकरण'. किंतु कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं.इनमें आधुनिकता का कोई समावेश नहीं दिखता.

रोना मनुष्य को प्रकृति की ओर से मिला एक जन्मजात तोहफ़ा है,क्योंकि इस दुनियां में प्रवेश करते ही मनुष्य का पहला काम होता है रोना.शिशु का क्रंदन सुनकर ही जच्चाखाने के बाहर प्रतीक्षारत सगे-संबंधी समझते हैं कि बच्चा इस दुनियां में आ गया.उसके बाद आदमी न जाने कितनी बार रोता है पूरी जिंदगी में,और अंततः जाते हुए खुद तो नहीं रोता किंतु अपने शुभचिंतकों को रुलाकर चल देता है.

हिंदुस्तान के सभी समाजों में जब बेटी पहली बार अपने मायके को अलविदा कहते हुए ससुराल में अपनी दुनियां बसाने को मायके की देहरी लांघती है तो टूटते ह्रदय के भाव आंसू बनकर आँखों से टपकने ही लगते हैं और माहौल बहुत गमगीन हो जाता है,लेकिन मिथिला की बेटी की विदाई के वक्त यह गम अपनी चरमावस्था में होता है.यह बात अलग है कि शहरों की अधिकांश बेटियों ने विदाई के वक्त ब्यूटीशियन की मदद से तैयार किया गए महंगे मेकअप के बिगड़ जाने के दर से आंसू बहाना बंद कर दिया है और ख़ुशी-ख़ुशी कार में बैठकर समझदारी और आधुनिकता का परिचय देना आरंभ कर दिया है,किंतु मिथिला की बेटियां अभी भी इस प्रभाव से पूरी तरह अछूती हैं.

दरअसल मिथिला की बेटी जब विदाई के वक्त रोना प्रारंभ करती है तो वह अकेले नहीं रोती बल्कि उस मौके पर उपस्थित तमाम लोग रोने लगते हैं.उपस्थित सारी महिलाएं तो जोर-जोर से इस कदर रोने लगती हैं कि मानो उसके ह्रदय के टुकड़े-टुकड़े हो रहे हों और उनका सब-कुछ लुटा जा रहा हो. पिता,भाई,चाचा एवं अन्य उपस्थित व्यक्ति तो जोर-जोर से नहीं रोते,किंतु वे सिसकते,हिचकियां लेते और बार-बार आंखें पोंछते अवश्य नजर आते हैं.सबों को रोते देखकर छोटे-छोटे बच्चे भी जोर-जोर से रोने लगते हैं,चाहे उन्हें दर्द का अहसास हो न हो.

यहाँ तक कि दहेज़ के नाम पर बेटी के बाप से खून तक चूस लेने वाले निष्ठुर दूल्हे भी इस अवसर पर आंखें पोंछते नजर आते हैं और कभी-कभी तो दूल्हे के मन में यह भाव भी उत्पन्न हो जाता है कि वह अपनी दुल्हन को अपने साथ ले जाकर उसके मायके वालों को इस तरह का असहनीय कष्ट क्यों दे रहा है.ऐसे में दूल्हा कभी-कभी सबों की मार्मिक व्यथा का जिम्मेवार खुद को मानने लगता है.बेटी को विदा करने पास-पड़ोस एवं टोले के सारे लोग पहुँच जाते हैं और आशीर्वाद के साथ-साथ आंसू की सौगात भी देते हैं.ऐसा लगता है मानो घर-द्वार,पेड़-पौधे,जानवर आदि भी रो रहे हैं,बेटी को विदा करते वक्त.

विदाई के क्षण के पास आते ही बेटी जब रोना शुरू कर देती है तो फिर उस करूण क्रंदन का कोई ओर-छोर नहीं होता है.सबों से गले मिलकर रोती है और जोर-जोर से पुकारकर कहती है कि उसने कौन सा अपराध किया है जो उसे सबों से दूर भेजा जा रहा है.भावविह्वल होकर वह पूछती है कि उसे कहाँ भेजा जा रहा है,जिसका जवाब हर कोई सिर्फ रोकर आंसुओं से देता है.

साथ रोती महिलाएं सामूहिक रुदन के साथ धीरे-धीरे बेटी को संभालते हुए उस सवारी के पास लाती हैं,जिस सवारी पर बैठकर उसे ससुराल जाना होता है,तो यह दृश्य क्लाइमेक्स पर जा पहुंचता है.बेटी गाड़ी पर चढ़ना नहीं चाहती है और रिश्तेदार महिलाएं उसे समझा-बुझाकर गाड़ी पर चढ़ाने का प्रयास करती रहती हैं.बेटी इस कदर कतराती है मानो वह गाड़ी नहीं फांसी का फंदा हो.काफी समय लग जाता है बेटी को गाड़ी में बिठाने में.तीन बार गाड़ी को आगे-पीछे किया जाता है,फिर बेदर्दी ड्राइवर एक्सीलेटर पर पांव का दवाब बढ़ा देता है.

सारे परिजन रोते-बिलखते रह जाते हैं और गाड़ी रोते-रोते बेसुध होती बेटी को को लेकर आगे बढ़ जाती है.लेकिन तब भी बेटी का रोना नहीं थमता है.गाड़ी बढ़ती रहती है और बेटी का विलाप जारी रहता है. धीरे-धीरे गाड़ी गांव की सीमा से बहुत दूर निकल जाती है तब भी बेटी का रोना जारी रहता है.तब साथ में चलने वाले लोग उसे चुप कराने लगते हैं कि अधिक रोने से कहीं उसकी तबियत न बिगड़ जाए.यहां भी उसे चुप कराना आसान नहीं होता .सबों के समझाने बुझाने से वह चिल्लाकर रोना तो बंद कर देती है किंतु लंबी हिचकियों का सैलाब थमता नहीं है.तेज सवारी हो तो 20-25 किलोमीटर निकल जाते हैं हिचकियों के थमने में.

मिथिलांचल में बेटियों के इस कदर भाव विह्वल होकर रोने की परंपरा बहुत ही पुरानी है,संभवतः उतनी ही पुरानी जितनी पुरानी मिथिला है.मिथिला नरेश राजा जनक की पुत्री सीता की मर्यादापुरुषोत्तम राम के साथ विदाई के दृश्यों का वर्णन करता एक गीत है ..........

‘बड़ रे जतन से सिया जी के पोसलों,
सेहो सिया राम लेने जाय’

यह गीत न जाने कबसे मिथिलांचल में बेटी की विदाई का सबसे चर्चित और पारंपरिक गीत बना हुआ है.इसमें कोई संदेह नहीं कि इस गीत की धुन दुनियांभर के बेहतरीन मार्मिक धुनों में से एक है.बिछोह से उपजे इस तरह के गीतों की धुन को मिथिलांचल के लोगों ने एक अलग ही नाम दिया है - ‘समदाउन’.पद्मश्री शारदा सिंहा समेत अन्य नामचीन गायक,गायिकाओं इस तरह के गीतों को स्वर दिया है.

'समदाउन' के तहत कई तरह के गीत इस बात को प्रतिबिंबित करते हैं कि मिथिला के गीतकारों-संगीतकारों ने भी बड़ी गहराई से बेटी की विदाई की मार्मिकता को महसूस किया है.वस्तुतः यह मिथिलांचल के वासियों की भावुकता और अत्यधिक संवेदनशीलता का प्रमाण है जिसकी चरम प्रस्तुति बेटी की विदाई के वक्त होती है.

इससे यह कल्पना की जा सकती है कि विदाई के औपचारिक दृश्यों में भी जब जब मिथिलावासी रोने लगते हैं तो दिल के टुकड़े से विदाई के वक्त वे कितना आंसू बहाते होंगे. कभी-कभी तो इस तरह के दृश्यों की तस्वीरें उतारने वाला फ़ोटोग्राफ़र भी तस्वीरें उतारते-उतारते खुद भी तस्वीर का एक हिस्सा बन जाता है और हिचकियां लेने लगता है.वस्तुतः ये आंसू दर्द के पिघलने से उत्पन्न होते हैं.एक सवाल यह भी उठता है कि मिथिला की बेटियों का ही दर्द इतना गहरा क्यों है.

मिथिलांचल में प्रारंभ से ही बच्चों के विवाह में दूरी को नजरंदाज किया जाता रहा है.लोग अपनी बेटियों की शादी दूर-दराज के गांवों में करते रहे हैं,अच्छे घर एवं वर की तलाश में.तब न तो अच्छी सड़कें थी और न तेज सवारियां.पहले तो डोली और कहार ही थे.डोली कहार के बाद बैलगाड़ी पर चढ़कर दुल्हन ससुराल जाने लगी,फिर ट्रैक्टर का युग आया,और अब जीप-कार चलन में है.

यह भी कटु सत्य है कि अब भी मिथिलांचल की करीब पंद्रह प्रतिशत दुल्हनें बैलगाड़ी पर चढ़कर ही नवजीवन की राह पर बढ़ती हैं.इनमें अधिकांश निर्धन परिवारों की दुल्हनें ही होती हैं. इस वजह से मायके से ससुराल की थोड़ी दूरी भी अधिक प्रतीत होती हैं.अगर अपनी सवारी नहीं है तो अधिकांश गांवों में पहुंचना एक कठिन समस्या बन जाती है.पुरुष तो पांच-सात किलोमीटर पैदल या साइकिल पर भी चढ़कर चले जाते हैं लेकिन महिला क्या करे? ऐसे में उन्हें मायके से पूरी तरह कटकर जीवन गुजारने की कल्पना भयभीत कर देती है.

दिलचस्प तथ्य यह भी है कि मिथिलांचल में विदाई के वक्त बेटी का रुदन एक कला भी है.बेटी के ससुराल चले जाने के बाद पास-पड़ोस की महिलाएं उसके रुदन की समीक्षा करती हैं.जो नवविवाहिता बहुत ही मार्मिक ढंग से रोती हैं एवं अधिक लोगों को रुलाकर चली जाती है उसे लोग बरसों याद रखते हैं और बातचीत के दौरान उसके रुदन को उदहारण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है.इसके विपरीत जो ढंग से रो भी नहीं पाती उसका उपहास भी बाद में किया जाता है.

इतना ही नहीं मार्मिक ढंग से न रो पाना मिथिलांचल की महिलाओं के व्यक्तित्व का एक निगेटिव पॉइंट भी माना जाता है क्योंकि बेटियों के रोने का कार्य विदाई में ही समाप्त नहीं हो जाता.विदाई के बाद पहली बार अपने गांव लौटती हुई महिला भी अपने गाँव की सीमा रेखा के अंदर प्रवेश करते ही जोर-जोर से रोना प्रारंभ कर देती है.दूर से किसी  महिला के रोने की आवाज सुनकर ही गाँव के लोग उत्सुक निगाहों से देखने लगते हैं कि किसकी बेटी आ रही है.

पुनः ससुराल जाते वक्त भी बेटी रोती है.फिर माता-पिता की मौत पर भी बेटियां रोती हैं.इसलिए विदाई से पहले बेटी रोने का पूर्वाभ्यास कर लेती हैं.पहले तो बेटियों को विदाई से एक महीने पूर्व से ही रुलाया जाता था,लेकिन अब यह अवधि काफी सिमट गई है.

विदाई के एक दिन पहले जब दूल्हा अपने सगे-संबंधियों के साथ दुल्हन की विदाई करने पहुँचता है तब बेटी को रुलाया जाता है.कई मामले ऐसे भी निकल जाते हैं कि बेटी महीने भर से रोने का पूर्वाभ्यास करती रही और और विदाई करवाने दूल्हा ही नहीं पहुंच पाया.इसलिए एक महीने पहले से ही बेटी को रुलाने की परंपरा समाप्त हो गयी.

जिन समाजों में शादी के तुरंत बाद बेटी की विदाई की जाती है,उनमें बेटियों को रोने के पूर्वाभ्यास का अवसर नहीं मिलता,लेकिन अधिकांश समाजों में बेटी विवाह के दो साल-पांच साल बाद द्विरागमन में ही पहली बार ससुराल जाती है.लेकिन खूबी यही है कि मिथिलांचल के सभी समाजों में बेटियों का रुदन एक समान होता है.

Keywords खोजशब्द :-Bidai,Samdaun,Customs of Mithila