विश्व इतिहास में
अन्यत्र ऐसा उदाहरण नहीं मिलता कि एक पुष्प,एक संस्कृति,व्यापार,सभ्यता
और राष्ट्र का पर्यायवाची बन जाए.यदि किसी फूल के पौधे के
जड़ का किसी के पास होना उसके समृद्ध होने का द्योतक हो तो सचमुच हैरत की बात
है.बहुत सावधानी से इसकी सुरक्षा का प्रबंध किया जाना और फूल खिलने पर उतनी ही शान
से इसका प्रदर्शन किया जाना तथा उसके वैभव - समृद्धि का वर्णन होने पर उसके इस फूल
के संग्रह की संख्या बताया जाना रोचक तो है ही और शायद ही इतना महत्त्व किसी और
पुष्प को मिला हो.
एक कटोरीनुमा फूल जो साल भर में केवल एक बार खिलता हो,वह सम्पूर्ण देश का पर्याय बन जाए तो जरूर उसमें कुछ अनूठापन होगा.इस अनूठे पुष्प ट्यूलिप का इतिहास बहुत ही रोचक है.यह पुष्प वस्तुतः तुर्किस्तान,एशिया माइनर का निवासी था और वहां के निवासी इसे ‘ट्यूलिपान’ कहकर पुकारते थे.
सबसे पहले इसका विवरण आस्ट्रिया के निवासी राजदूत ओ.डी. वास्वेक ने कुस्तुनतूनिया से सम्राट फर्निनेंड को अपने एक पत्र में दिया और साथ ही उन्हें उपहार स्वरूप इसकी कंदनुमा जड़ें भी उन्हें भेजीं.वह 1554 में जब कुस्तुनतूनिया पहुंचा तो उसने सम्राट को लिखा-“रास्ते में चारों ओर लाल रंग के विचित्र प्रकार के सुंदर पुष्प खिले हुए थे और ट्यूलिपान नाम से प्रसिद्ध इन पुष्पों के द्वारा वहां लोगों ने जगह-जगह पर मेरा स्वागत किया.” सम्राट ने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया.
राजदूत वास्वेक एक प्रकृतिप्रेमी पुष्पों का संग्रहकर्त्ता भी था,वियना वापस आने पर वह अपने साथ ट्यूलिप की
कन्द्नुमा जड़ें लेता आया.वियना के उस युग के प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी तथा पुष्प
प्रेमी कोनार्ड गिसनर ने ऑक्सबर्ग शहर से इसकी जड़ें प्राप्त करके इसे अपने उद्यान
में लगाया.वसंत ऋतु के आने पर जब इसका फूल खिला ,तो चर्चा का विषय बन गया और हर
व्यक्ति इसे पाने को आतुर हो उठा.डच लेखक हबलुयत के अनुसार सोलहवीं सदी के अंत में
इंगलैंड में वियना से लाकर ट्यूलिप बोया गया.
यद्यपि सुंदरता के अतिरिक्त इस पुष्प की और कोई उपयोगिता
नहीं थी.फिर भी सोलहवीं शती में इसका शौक संक्रामक रोग की तरह फ़ैल गया.एक
इतिहासकार ने इसे ‘ट्यूलिपोमिया’ का नाम दे दिया.पूरे यूरोप में विशेष कर पश्चिमी
उत्तरी यूरोप और इंगलैंड में बड़े हों या छोटे,स्त्री हों या पुरूष,धनी हों या
निर्धन - सभी इसे पाने को लालयित हो उठे.यहाँ तक कि इसके लिए जमीन जायदाद तक बेचने
लगे.एम्सटरडम,हार्लेम,लीडन,रोटरडम
आदि शहर ट्यूलिप के व्यापार केंद्र बन गए.
ट्यूलिप के कंद
अपने आकार एवं वजन के अनुसार बेचे जाते थे.19 वीं शताब्दी में इंगलैंड में इसका शौक
इतना परवान चढ़ा कि इसके कंद सौ से लेकर डेढ़ सौ पौंड तक में बिके.एक कंद के बदले
बारह एकड़ भूमि तक दे दी गयी.जिनके पास धन नहीं था उन्होंने जमीन,पशु,फर्नीचर और
शरीर के आभूषण तक दे डाले.
इसका मूल्य इतना अधिक था ,यह इसी घटना से पता चलता है कि तुर्की से आने वाले एक जहाज के नाविक ने भूख लगने पर इस कंद को भूल से प्याज की गांठ समझ,सिरके में भिंगोकर डबलरोटी के साथ खा लिया तो उसका मूल्य चुकाने के लिए उसे कई वर्षों तक उसके स्वामी के पास मुफ्त में काम करना पड़ा.
इसका मूल्य इतना अधिक था ,यह इसी घटना से पता चलता है कि तुर्की से आने वाले एक जहाज के नाविक ने भूख लगने पर इस कंद को भूल से प्याज की गांठ समझ,सिरके में भिंगोकर डबलरोटी के साथ खा लिया तो उसका मूल्य चुकाने के लिए उसे कई वर्षों तक उसके स्वामी के पास मुफ्त में काम करना पड़ा.
सत्रहवीं शताब्दी में हॉलैंड में जगह-जगह ट्यूलिप के
व्यापार केंद्र खुल गए.शहरों की सरायें न केवल यात्रियों के आराम एवं मनोरंजन का
ध्यान रखतीं बल्कि ट्यूलिप के आदान प्रदान
का केंद्र बन गयीं.नए रंग के पुष्पों के कंद का मूल्य बढ़ता चला गया और एक
समय ऐसा भी आया जब यह व्यापार एक जुआ बन गया.लोगों के पास देने के लिए कुछ न रहा और
वे दिवालिया हो गए.विवश होकर हॉलैंड सरकार को इसके व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाना
पड़ा.ऐसे नियम बनाये गए ताकि सुनिश्चित ढंग
से इसकी कृषि को प्रोत्साहित किया जा सके.
अब ट्यूलिप के व्यापार के लिए लाईसेंस का प्रावधान है.फूल एवं कंद की बिक्री पर पूरी जांच-पड़ताल होती है.इस प्रकार ट्यूलिप की खेती को न केवल राष्ट्रीय संरक्षण प्राप्त हुआ बल्कि मूलतः विदेशी होने पर भी उसे राष्ट्रीय पुष्प घोषित किया गया.
अब ट्यूलिप के व्यापार के लिए लाईसेंस का प्रावधान है.फूल एवं कंद की बिक्री पर पूरी जांच-पड़ताल होती है.इस प्रकार ट्यूलिप की खेती को न केवल राष्ट्रीय संरक्षण प्राप्त हुआ बल्कि मूलतः विदेशी होने पर भी उसे राष्ट्रीय पुष्प घोषित किया गया.