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Saturday, September 21, 2013

अद्भुत कला है : बातिक

                                                                                                                                                                                                                                     
  अक्सर हमें नए या कुछ पुराने कपड़ों पर लगे कुछ पैबंद दिख जाते हैं.जो कोई नक्काशी या कुछ पेंटिंग लिए हुए भी होते हैं.नए या कुछ पहने हुए कपड़ों पर  मामूली खरोंच लग जाने या कपड़ों के  रंग हलके  पड़ जाने पर कपड़ों को नया रंग देकर चमकाने की विधा पुरानी है.इसे बातिक भी कहा जाता है.

आज अत्याधुनिक प्रतीत होने वाली बातिक कला दो हजार वर्ष पुरानी है.पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार मिस्त्र तथा फारस में लोग बातिक कला के बने हुए वस्त्र पहनते थे.इसी प्रकार भारत,चीन,तथा जापान में बातिक कला के बने हुए परिधान पहनते थे.भारत,चीन तथा जापान में बातिक शैली में छपे हुए कपड़ों का प्रचलन था. चीन तथा जापान में बातिक कला में रंचे -पगे वस्त्र अभिजात्य वर्ग की पहली पसंद थे.

बातिक कला के प्रचलन के संबंध में कई मत हैं.कुछ लोगों का ख्याल है कि यह कला पहले -पहल भारत में जन्मी.जबकि कुछ लोगों के अनुसार इस कला की उत्पत्ति मिस्त्र में हुई.एक विचार यह भी है कि धनाभाव के कारण लोग अपने फटे - पुराने  कपड़ों को तरह -तरह के रंगों से रंगते थे.यह कला यहीं से शुरू हुई.

'फ्लोर्स ' के रहने वाले कपड़ों का भद्दापन छिपाने के लिए इन्हें गहरे नीले रंग में रंग कर पहनते थे.साथ ही,चावल के माड़ का प्रयोग करते थे ताकि कपड़ों में करारापन आ जाए इससे कपड़ों पर धारियां पड़ जाती थीं.इसी से बातिक कला का प्रारम्भ हुआ आगे चलकर चावल के आटे की जगह मोम काम में लाया जाने लगा.इसमें भी धारी पड़ने से डिज़ाइन बनते हैं.

कुछ पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार यह कला जावा  द्वीप से शुरू हुई.'द आर्ट एंड क्राफ्ट इन इंडोनेशिया' नामक पुस्तक में एक शब्द है 'इम्बातिक',यानि वह कपड़ा जिसमें छोटे - छोटे टिक के निशान पड़े हों.

शुरू - शुरू में जावा में घर के बने कपड़े ही बातिक शैली में रंगे जाते थे.यह भी कहा जाता है कि मार्कोपोलो या उससे पूर्व जावा पहुँचने वाले सुशिक्षित मुस्लिमों ने इस द्वीप की मौसम के अनुरूप कपड़ा बनाना शुरू किया उस समय प्रत्येक धनी व्यक्ति के कोट के बाजुओं पर बातिक के डिज़ाइन बने होते थे.हर जाति के मुखिया के घर में इसके नमूने मिलते थे.1613 से 1645 तक जावा में सुलतान हाजी क्रिकुस्को ने राज्य किया था.उनके समय में इस कला ने विशेष उन्नति की.अनुमान है कि यह कला 12वीं सदी में जावा पहुंची.तत्कालीन मंदिरों में स्थापित मूर्तियों के वस्त्रों पर बातिक कला के अनेक श्रेष्ठ नमूने मिलते हैं.

पहले जावा में केवल राज दरबार की स्त्रियाँ बातिक के कपड़े पहनती थीं. फिर साधारण समाज की स्त्रियों ने भी उन्हें अपना लिया. ऐसे कपड़े अभिजात - वर्गीय होने का प्रतीक बन गए.धीरे-धीरे ये वस्त्र जन -साधारण में लोकप्रिय होते गए.

ऐसे ही लोकप्रिय वस्त्रों में था सारंग,जिस पर भांति -भांति के फूल ,पत्ते ,चिड़ियाँ ,घोंघे ,मछलियाँ तथा तितलियाँ बनी होती थीं.जावा में बातिक की कला इतनी लोकप्रिय हुई कि सजावट की वस्तुओं में भी बातिक कला का उपयोग किया जाने लगा.जावा में डचों के आगमन के बाद यह कला हॉलेंड तथा यूरोप के अन्य देशों में प्रसिद्ध हो गई.आरम्भ में तो बातिक कला वहां के कारीगरों तथा चित्रकारों के लिए चुनौती का विषय बन गई,परन्तु शीघ्र ही उन्होंने बातिक कला के लिए अधिक सुविधापूर्ण उपकरण ढूंढ निकाले ,जैसे चित्र वाले वस्त्रों को सुखाने की मशीन ,जो जावा -वासियों के पास नहीं थी लीव्यू तथा पीटर मिजार जैसे चित्रकारों ने बहुत ही सुन्दर चित्र तैयार किये थे.इसी तरह डिनशौल्फ़ तथा स्लाटन आदि ने भी अद्भुत चित्र बनाये.इससे पूर्व वे कलाकार केवल तैल रंगों तथा ब्रश से ही चित्र बनाते थे.अब उन्हें मोम की बूंदों से बनी इस कला ने आकर्षित कर लिया.

धीरे -धीरे बातिक कला का पंजीकरण होता गया.कलाकारों ने मशीनों द्वारा छापकर सूती कपड़े तैयार किये. उसी प्रकार की धारियों (क्रैफिल) की भी नक़ल की गई ताकि वे बिल्कुल बातिक के सामान ही लगें.लगभग चालीस पचास वर्षों तक बातिक की गणना यूरोप की उच्च कलाओं में होती रही.

साधारणतया,मोटे कपड़े पर बातिक नहीं बन सकता ,क्योंकि रंग तथा मोम अंदर तह तक नहीं जा सकता. इसके लिए सिल्क का कपड़ा अच्छा होता है. मोटे सिल्क,ब्रोकेड तथा वेल्वेट पर पर भी बातिक बन सकते हैं.

ध्यान देने की बात यह है कि नायलोन जैसे कपड़े पर बातिक नहीं बनता.कपड़ा जितना  चिकना तथा मुलायम होगा,कला उतनी ही सुंदर उभरेगी.

नए कोरे कपड़े  पर बातिक बनाने से पूर्व उसे धोकर,सुखाया जाता है.इस तरह कपड़ा पहले ही सिकुड़ जाता है.बाद में मोम लगाकर बातिक किया जाता है.

यद्यपि पानी तथा तैल रंगों की चित्रकारी की अपेक्षा बातिक की अपनी कुछ सीमाएं थीं ,फिर भी चित्रकारों ने उसमें कुशलता प्राप्त कर ली. बातिक कला में अगर प्रारंभ  में कोई गलती हो जाय तो उसे सुधारा नहीं जा सकता.
जबकि तैल रंगों में यह बहुत ही आसन है. बातिक के अनुसार बनाई गई ग्राफिक कला का भी प्रचलन बहुत बढ़ा.

आजकल इंडोनेशिया में पुरुषों ने रंगाई तथा स्त्रियों ने छपाई का काम प्रारंभ कर दिया है.जावा में बसे चीनियों के गाँव के गाँव इस कला में लग गए हैं.वहां इस  कला पर चीनी कला का पूरा प्रभाव है.ये लोग सूती कपड़ा उपयोग में लाते हैं.यह छपाई में आसान तथा पहनने में भी सुविधापूर्ण होता है. 


आधुनिक शैली में बातिक  कला की कई डिजाइनें बनाई जा रही हैं.इंडोनेशिया तथा अन्य पूर्वी देशों में यह मूल शैली में ही तैयार किया जाता है पश्चिम में बातिक की नक़ल के ठप्पे तैयार करके मशीन द्वारा छपाई की जाती है.इस कला में मंजे हुए कलाकार ही सुंदर चित्र बना पाते  हैं क्योंकि रेखाओं का बहुत साफ़ तथा एक  स्थान पर होना बहुत जरूरी है.उसे रंगों का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि रंगों को एक दूसरे पर चढ़ाकर चित्र  बनाये जाते हैं.