पुरातात्विक भग्नावशेषों में मथुरा से प्राप्त ईसा की दूसरी
शती की कुषाण कालीन युवती की प्रस्तर प्रतिमा के पार्श्व में अशोक का फूला हुआ पेड़
उत्कीर्ण है और वह युवती अपने पाँव से उस पेड़ की जड़ पर प्रहार कर रही है.इस
प्रक्रिया को अशोक दोहद के नाम से जाना जाता है.बोधगया,साँची,भरहुत,संहोल आदि में
प्राप्त प्रतिमाओं में भी अशोक दोहद की प्रक्रिया उत्कीर्ण है.ये प्रतिमाएं हमें
उस काल के कला-साहित्य और जन-जीवन से परिचित कराती हैं.
वृक्ष
दोहद शब्द वृक्ष विशेष की अभिलाषा का द्योतक है. हमारी संस्कृति में माना
जाता है कि वृक्ष विशेष भी कुछ अभिलाषा रखते हैं. वृक्ष दोहद की पूर्ति जनकल्याण
के लिए किसी युवती की क्रिया विशेष से होती है. वैदिक साहित्य, रामायण,
महाभारत संस्कृत-प्राकृत के
नाटकों और काव्यों रीति काव्यों तथा लोकगीतों में वृक्ष दोहद का खूब वर्णन है.
भारतीय संस्कृति में यह
मान्यता है कि वृक्ष विशेष की भी यह इच्छा होती है कि उसके फूलने-फलने की उम्र
यानी युवावस्था में कोई नारी उस को स्पर्श करे, उसे हाथ से थाप दे या पैर
से प्रहार करे. इसी कारण भारतीय साहित्य में युवतियों का भी उपवन वाटिका या उद्यान
से प्रेम प्रदर्शन का वर्णन है. उद्यान क्रीड़ा के विभिन्न स्वरूप प्राचीन काल में
नारियों के मनोरंजन का प्रिय साधन थे. माना जाता था कि जैसे वृक्ष नारी स्पर्श की
आकांक्षा रखते हैं वैसे ही नारियाँ भी वृक्षों संग क्रीड़ा कर उतनी ही आनंदित होती
थी. इससे दोनों का स्वास्थ्य और सौंदर्य बना रहता था. इसी प्रचलित लोक विश्वास को
संस्कृत कवियों ने अपने साहित्य में भी स्थान दिया है.
'मालविकाग्निमित्रम' से पता चलता है कि मदन उत्सव के बाद अशोक में दोहद उत्पन्न किया
जाता था। यह दोहद क्रिया इस प्रकार होती थी- कोई सुंदरी सब प्रकार के आभूषण पहनकर
पैरों में महावर लगाकर और नूपुर धारण कर बाएँ चरण से अशोक वृक्ष पर आघात करती थी. इस चरणाघात की विलक्षण महिमा थी. अशोक वृक्ष नीचे से ऊपर तक पुष्पस्तवकों
(गुच्छों) से भर जाता था. कालिदास ने 'मेघदूतम' में लिखा है कि दोहद एक ऐसी क्रिया है जो गुल्म, तरु, लतादि में अकाल पुष्प धारण करने की दिशा में
द्रव्य का कार्य करता है. मेघदूतम में ही उन्होंने लिखा है कि वाटिका के
मध्य भाग में लाल फूलों वाले अशोक और बकुल के वृक्ष थे, एक प्रिया के पदाघात से और दूसरा वदन मदिरा से उत्फुल्ल होने की
आकांक्षा रखता था. 'नैषधीयचरितम' में उल्लेख है कि दोहद ऐसे
द्रव्य या द्रव्य का फूक है जो वृक्षों एवं लता आदि में फूल और फल देने की शक्ति
प्रदान करता है.
भारतीय साहित्य में अलग-अलग
वृक्ष, लता, गुल्म आदि को ध्यान में
रखकर प्रियंगु दोहद,
बकुल दोहद, अशोक दोहद, कुरबक दोहद, मंदार दोहद, चंपक दोहद, आम्र दोहद, कर्णिकार दोहद, नवमल्लिका दोहद आदि की कल्पना की गई है. भारतीय कला विशेष कर
शुंगकालीन कला में उद्यान क्रीड़ा के स्वरूपों में शाल भंजिका, आम्र भंजिका, सहकार भंजिका के रूप
प्रदर्शित किए गए हैं.
वृक्ष दोहद के स्वरूप आज भी लोक परंपराओं में देखे जा सकते हैं. भोजपुरी समाज में दोहद की इस क्रिया को अकवार देना कहा जाता है। ऐसी मान्यता है की
पूर्णरूप से विकसित वृक्ष जब फल-फूल नहीं दे रहा हो तो कोई युवती जब शृंगार कर उसे
दोनों हाथों से पकड़ लेती और उसके साथ एक विशेष क्रिया करती है तो वह वृक्ष ज़रूर
फूल-फल देने लगता है. यही नहीं वृक्षों और पौधों की शादी की भी परंपरा रही है. तुलसी, आम, आँवला, कटहल,
कनैल आदि पौधों तथा वृक्षों
के विवाह विधिवत किए जाते हैं ताकि वह अच्छे ढंग से फूल-फल सके.
भोजपुरी समाज में दोहद के कई और रूप देखने को मिलते हैं। इनमें से एक
को हरपरौरी कहा जाता है. जब किसी वर्ष वर्षा नहीं होती है पूर्णत: अकाल के लक्षण
दिखने लगते हैं तब औरतें हरपरौरी का आयोजन करती हैं. इस परंपरा के अनुसार रात्रि
में औरतें गाँव से बाहर निर्जन स्थान में स्थित खेत में इकट्ठा होती हैं. उस स्थान
पर औरतों द्वारा काली माता, शीतला माँ, आदि सप्तमातृकाओं का गीत गाया जाता है. उसके बाद दो औरतें झुककर
बैल बनने का स्वांग करती हैं और एक औरत किसान के रूप में होती है उन बैल बनी औरतों
के कंधों पर जुआठ रखी जाती है और किसान का अभिनय कर रही औरत हल की मूठ सँभालती है. अब खेत में हल चलना शुरू होता है. किसान का अभिनय कर रही औरत गाँव के किसी
प्रधानव्यक्ति का नाम लेकर चिल्लाकर कहती है कि हम लोग यहाँ मर रहे हैं और उसके
द्वारा पानी नहीं दिया जा रहा है. इस दौरान शेष औरतें वरुण देव का आवाहन कर के गीत
गाती हैं .
मान्यता है कि औरतें हरपरौरी क्रिया में जब खेतों में हल
चला देती हैं तो वर्षा अवश्य होती है. फसल लहलहाने लगती है और सूखे की समस्या ख़त्म
हो जाती है. इसी तरह झारखंड के जनजातीय क्षेत्रों में अकाल की स्थिति में औरतें
प्रातः स्नान करके जितिया वृक्ष के जड़ में एक लोटा जल डालती हैं और भगवान से पानी
की वर्षा करने का आग्रह करती हैं. विश्वास किया जाता है कि ऐसा करने पर ज़रूर वर्षा
होती है. इसके अतिरिक्त उत्तर प्रदेश और बिहार में नए कूप और बावली के विवाह की भी
परंपरा है. कूप और बावली भले ही मानव द्वारा निर्मित हों लेकिन वह हमारे पर्यावरण
के अंग हैं और प्रकृति संग एकाकार होते हैं. माना जाता है कि इन कूप और बावलियों
को भी मादा संसर्ग की आकांक्षा होती है. इस कारण इनके भी विवाह की परंपरा है. भोजपुरी अंचल में यह मान्यता है कि इससे कुएँ तथा बावलियों में भरपूर था मीठा जल बना
रहता है. इन परंपराओं के पीछे उद्देश्य रहा होगा कि वृक्ष ही नहीं बल्कि प्रकृति
के कई घटक नारी संसर्ग और स्पर्श चाहते हैं.
आज भारतीय समाज में दोहद रूपी लोक परंपरा का ह्रास देखने को मिल रहा
है अब नारी, प्रकृति और वृक्षों की आकांक्षा को कम महत्व दिया
जा रहा है. ज़रूरत है इस पर ध्यान देने की. इससे एक तरफ़ श्रेष्ठ वंश वृद्धि होगी, संतान स्वस्थ होंगे, सुंदर और कुशल होंगे, वहीं दूसरी ओर वृक्ष और पौधे भी फल-फूलों से लदकर देश का उत्पादन
बढ़ाएँगे. तालाबों का भी अस्तित्व बना रहेगा. कुओं का जल मीठा और पीने योग्य होगा
तथा उन का जलस्तर भी हमारे लायक़ बना रहेगा. अंततः हम सभी को इन सभी चीज़ों से लाभ
होगा.