किसी लेखक ने ठीक ही कहा है कि हम सभी दुनियां के रंगमंच पर अपनी भूमिका ही तो निभा रहे होते हैं,किसी की भूमिका अल्प तो किसी की दीर्घ होती है.
विश्वभारती में मेरा यह
दूसरा साल था.ग्रीष्मावकाश में जर्मन की कक्षाओं के लिए मुझे भारतीय विद्या भवन की तरफ
से भेजा गया था.शौकिया तौर पर जर्मन भाषा में किया स्नातकोत्तर डिप्लोमा मुझे विश्वभारती की ओर ले जाएगा,यह सोचा न था.अमूमन गर्मी की छुट्टियों में कैम्पस खाली हो जाता था और वही
छात्र-छात्राएं यहाँ रुकते थे जिन्हें अवकाशकालीन कोई कोर्स करना होता था.पूरे एक
महीने का शिड्यूल था मेरा.पहले ही दिन कक्षा से बाहर निकलकर सीढ़ियों के पास खड़ा था
कि एक लड़की मेरी तरफ भागती हुई आती दिखाई दी. मैं डर गया था कि कहीं वह सीढ़ियों से नीचे न गिर
पड़े.
आमि अपराजिता... अपराजिता
भट्टाचार्य.आप आज तो नोट्स अपनी कक्षा में ही भूल आए.ये लीजिए. धन्यवाद ! मैंने
कहा.तुम क्या जर्मन की कक्षा में हो ? मैंने तुम्हें देखा नहीं. हाँ, मैं पीछे की
बेंच पर थी.उसमें कुछ बात थी जो मैं उससे बातचीत करने से अपने आप को नहीं रोक
पाया.अच्छा ! तुम मुझे यहाँ के बारे में कुछ बता सकती हो ? विस्तार से विश्वभारती के अलग-अलग स्कूलों,छात्रावास आदि के बारे में उसी से पता चला था.
बातें करते-करते हम मौलश्री
और हरसिंगार के घने पेड़ों की तरफ आ गए थे.तुम कुछ बांग्ला वाक्यों के बोलने में
मेरी मदद कर सकती हो? उसने हामी भर ली और उसके सहयोग से कुछेक बांग्ला वाक्य भी
बोलने लगा था.तुम रबींद्र संगीत कई साल से गाती आ रही हो शायद.उस दिन प्रेयर के
बाद तुम्हें सुना था.हाँ,स्कूल के दिनों से ही,कुछ दोस्तों से सीखी हूँ,कुछ रेडियो
सुनकर.
अच्छा, तो कुछ मतलब भी पता है.हाँ, पता क्यों नहीं है.क्या मेरी डायरी में
कुछ पंक्तियाँ लिखकर दे सकती हो?. उसने बांग्ला में कुछ पंक्तियाँ लिखीं.मैं तो
बांग्ला जानता ही नहीं,अच्छा रोमन में लिख देती हूँ.उसने रोमन में लिखी रबीन्द्र
संगीत की कुछ पंक्तियाँ......
मोने रोबे किना रोबे आमारे
से आमार मोने नइ मोने नइ
खोने खोने असि तोबे दुआरे
ओकारोने गान गाइ !
इस तरह बातों का सिलसिला चल पड़ा था.उसे आश्चर्य हुआ था कि मेरी बांग्ला
साहित्य में भी रुचि थी.अपराजिता शायद बंगाल के उत्तरी परगना के छोटे से गाँव से
आई थी और यहाँ विश्वभारती में स्नातक उत्तीर्ण हो चुकी थी.उसी ने बताया था कि उसके
माँ-बाबा बचपन में ही गुजर गए थे और मातृ-पितृवंचिका को उसके मामा,मामी ने बड़े जतन
से अपने संतान की भांति पाला था.मामा शिक्षक के पद से रिटायर हो चुके थे और गाँव
में छोटे बच्चों को पढ़ाते थे.यहाँ से जाने के बाद वह भी किसी स्कूल में नौकरी
करेगी और बच्चों को पढ़ायेगी.उसके इस सपने के पूरा होने में कोई बाधा नहीं दिखती
थी.
कक्षा के समाप्त होते ही हरसिंगार के पेड़ों के नीचे कुछ देर बैठना और उससे
बातें करना काफी अच्छा लगता था.एक दिन उन्हीं पेड़ों के नीचे बैठा ही था कि
हरसिंगार के कुछ फूल गिरे.उसने झट से दो फूल चुनकर आँचल में बांध लिए.मैंने
पुछा,यह क्या ? उसने कहा,इससे मन्नत पूरी होती है. अच्छा ! तुम्हारी कौन सी मन्नत
है.ये बताया थोड़े न जाता है,उसने धीरे से कहा.
मेरी बांग्ला साहित्य में रूचि है,यह जानकर उसने पूछा था,अब तक किन लेखकों को पढ़ा
है,ज्यादा तो नहीं,कुछ अनुवाद पढ़े हैं,विमल मित्र,समरेश बसु और
मेरे पसंदीदा,बुद्धदेव बसु.उनकी कुछ पंक्तियाँ मुझे बहुत पसंद हैं.अच्छा....कौन सी
पंक्तियाँ?
छोटटो घर खानी
मने की पड़े सुरंगमा
मने की पड़े, मने की पड़े
जालानाय नील आकाश झड़े
सारा दिन रात हावाय झड़े
सागर दोला .............
(उस छोटे से कमरे की याद है
सुरंगमा ?
बोलो,क्या अब
कभी उस कमरे की याद आती है ?
जहाँ कि खिड़की से नीलाकाश
बरसता कमरे में रेंग आता था
सारे दिन-रात तूफ़ान
समुद्र झकझोर जाता था)
गेस्ट हाउस के कमरे में अकेला रहता था,बूढ़े गांगुली काका देखभाल करने के लिए
थे.सुबह-सुबह जब बरामदे में अख़बार पढ़ रहा होता तो अपराजिता फूलों का दोना लिए
हुए आती,दोना मेरे हाथ में पकड़ाकर कमरे के अंदर जाती और किताबों को करीने से
सजाकर,धूल झाड़कर बाहर आती,मेरे हाथ से फूलों का दोना लेते हुए गांगुली काका से रोष
भरे स्वर में कहती-देख रही हूँ,आज कल तुम ठीक से सफाई नहीं करते.उसका यह रोज का
क्रम था.
मैं गांगुली काका से फुसफुसाकर कहता,लगता है यह पिछले जन्म में मेरी माँ रही
होगी और गांगुली काका हो हो कर हंसने लगते.किसी सुबह दिखाई नहीं देती तो गांगुली
काका से पूछता – आज ! अम्मा दिखाई नहीं दे रही.जरूर वह पूजा के लिए माला बना रही
होगी.गांगुली काका इधर-उधर देखकर कहते.
समय कितनी जल्दी बीत जाता है,आज पता चला.आज आखिरी कक्षा से बाहर आते हुए मन
कुछ उदास है.सीढ़ियों पर अन्यमनस्क सा खड़ा हूँ,तभी अपराजिता आती हुई दिखाई देती
है.आते ही मेरी हथेली में एक डिबियानुमा आकृति पकड़ा देती है.खोलकर देखता हूँ तो उसके
इष्टदेव रामकृष्ण परमहंस की एक छोटी सी मूर्ति है.हमेशा अपने कमरे में रखना,मैं
सिर हिलाता हूँ. नौकरी करने पर रबीन्द्र संगीत की एक किताब उपहार में दूँगी,धीरे
से कहती है,अपराजिता.
कल वापस लौटने की तैयारी करनी है.छात्र-छात्राओं के दिये उपहार को कार्यालय
कक्ष में ही छोड़ दिया है.अपराजिता भी दो दिन बाद वापस चली जाएगी,उसके मामा आएंगे
लेने.क्या पता,अब कभी अपराजिता से भेंट हो पाए या नहीं.
विश्वभारती से भारी मन से वापस लौटा हूँ.अब वहां जाने में रुचि नहीं रह गई है.दो
वर्ष बीत चुके हैं.इन दो वर्षों में फिर विश्वभारती नहीं गया.लगा कुछ पीछे छूट गया
है.अपराजिता तो अब कलकत्ते के किसी स्कूल में बच्चों को पढ़ा रही होगी.लाईब्रेरियन घोष
बाबू की दो चिठ्ठी आ चुकी है,इस बार नहीं आएँगे क्या? छात्रों को क्या जबाब दूं.
कितनी देर से खिड़की के पास खड़ा हूँ.काले बादलों का एक टुकड़ा इस ओर आकर लौट गया
है,आकाश में लालिमा गहरा गई है.सोचता हूँ,हरसिंगार के फूल अब भी झरते होंगे,पर
इन्हें अपने आँचल में समेटने के लिए कोई न होगा.कमरे के बाहर से कोई आवाज दे रहा
है,बाहर निकलता हूँ तो पोस्टमैन तार लिए खड़ा है.विश्वभारती से घोष बाबू का तार है.कल
सुबह तक आ सकेंगे. बहुत अर्जेंट है.मन किसी अनहोनी से घिर उठता है.रात के दस बजे
ट्रेन है,सुबह तक विश्वभारती पहुँच जाऊँगा.
अहले सुबह विश्वभारती के गेस्ट हाउस के कमरे में पहुँचता हूँ तो गांगुली काका
बरामदे पर मिल जाते हैं.कमरे के अंदर जाने पर देखता हूँ एक बुजुर्ग दीवाल की ओट
लिए आराम कुर्सी पर लेटे हैं.मुझे देखते ही खड़े हो जाते हैं और एक झोला मेरी ओर
बढ़ा देते हैं.गांगुली काका धीरे से कहते हैं,जिता(अपराजिता) के मामा हैं.जिता नहीं
रही.सहसा विश्वास नहीं होता.मामा ने बताया,बारह दिन पूर्व स्कूल के बच्चों को
पिकनिक पर ले जाने के क्रम में उसके स्कूली बस की सामने से एक ट्रक से टक्कर हो गई.आगे की सीट पर
बैठी अपराजिता और दो बच्चे गंभीर अवस्था में जीवन और मौत से दो दिनों तक जूझने के
बाद चल बसे.
अपराजिता के पास यही झोला था जिसमें एक किताब और डायरी थी,इस पर आपका नाम लिखा
था,इसलिए ले आया.किताब के पन्ने पलटता हूँ तो रबीन्द्र संगीत की किताब दिखाई पड़ती है,शायद
मुझे उपहार में देने के लिए उसने रखी होंगी.डायरी के पहले पृष्ठ पर ही बुद्धदेव
बसु की वही पंक्तियाँ लिखी हुई हैं,जिसे कभी मैंने सुनाया था.......
छोटटो घर खानी
मने की पड़े सुरंगमा
मने की पड़े, मने की पड़े