कवियों और साहित्यकारों में
उपनाम रखने की एक लंबी परंपरा रही है.लेकिन ख़त्म होती परंपराओं के साथ इसका भी नाम
जुड़ गया है.कभी हम इन कवियों और साहित्कारों को उपनाम से ही जानते थे.आम बोलचाल में
भी उपनाम का ही प्रयोग होता था.
कई लोगों का विचार है कि कवियों
द्वारा उपनाम रखने की परंपरा फ़ारसी और उर्दू कवियों की देन है.उन्हीं की देखादेखी
हिंदी कवियों ने भी उपनाम रखने की परंपरा कायम की.हालांकि उपनाम रखने की परंपरा यहाँ
प्राचीन संस्कृत कवियों में भी रही है.संस्कृत के अनेक कवि अपने उपनामों से ही
अपनी पहचान बनाए हुए हैं.उपनामों की परंपरा वैदिक ऋषियों तक जाती है.आदिकवि
वाल्मीकि के ही उपनाम हैं.शुनः शेप,शुनः पुच्छ,लोपामुद्रा उपनाम ही प्रतीत होते
हैं.
हिंदी के प्रायः सभी कवि
अपने उपनामों से ही प्रसिद्ध हैं.कहा तो यह भी जाता है कि इस परंपरा में विदेशी
प्रभाव के साथ ही साहित्यिक चोरी भी इसका कारण रही है.अपनी कविता के बीच में अपना
नाम दे देने से चोरी की आशंका कम हो जाती थी.
प्राचीन कवि उपनाम रखते थे
तो अपने नाम के पूर्वांश या उत्तरांश को अपना उपनाम बनाते थे.बाद में कुछ कवियों
ने अपने स्वभाव,नगर या गांव के नाम के आधार पर उपनामों का चुनाव किया.इससे अलग एक
धारा के लोगों ने सुर्खियां बटोरने के लिए ‘लुच्चेश’,’धूर्त’,’बेहया’
जैसे उपनामों को अपनाया.पुराने हिंदी कवियों के कुछ उपनाम राजाओं द्वारा उपाधि के
रूप में दिए गये हैं.इनमें महाकवि भूषण और भारतेंदु का नाम लिया जा सकता है.
संस्कृत के उपनाम वाले ऐसे
अनेक कवि हैं जिनका वास्तविक नाम तक ज्ञात नहीं हैं. यथा,भिक्षाटन, निद्रादरिद्र,राक्षस,घटखर्पर,धाराकदंब,अश्वघोष,कपोलकवि,मूर्खकवि,मयूर,कपोत,कापालिक
जैसे अनगिनत नाम हैं.
उपनामधारी संस्कृत
कवियित्रियों में ‘विकटनितंबा,अवंतीसुंदरी,कुलटा,रजक
सरस्वती, जघन-चपला जैसे अनेक उपनाम
शामिल है.इनमें से अनेक ऐसे हैं जिनकी शायद ही कोई रचना पुस्तक के रूप में उपलब्ध
हो.अधिकतर की छिटपुट रचना या संग्रह के रूप में संकलित हैं.जिनकी रचनाएं उपलब्ध
हैं उनमें, अश्वघोष,घटखर्पर और अवन्तीसुंदरी शामिल हैं.
अज्ञात कवियों के साथ ही कालिदास,माघ,भारवि,भवभूति जैसे
प्रख्यात कवियों के नाम भी उपनाम ही माने जाते हैं. महाकवि कालिदास का वास्तविक
नाम कुछ लोगों के अनुसार मातृगुप्त है.माघ
और भारवि के संबंध में कहा जाता है कि आपसी प्रतिद्वंदिता के कारण इन्होंने अपने
उपनाम रखे.’भा रवि’ का अर्थ है – सूर्य की
तेजस्विता.यह नामकरण देख माघ उपनाम वाले कवि ने घोषित किया कि वह भारवि हैं तो मैं
‘माघ’ हूं.माघ महीने में सूर्य की तेजी क्षीण हो जाती है.
अश्वघोष संस्कृत के प्रख्यात महाकवि हैं.इनकी बुद्धचरित प्रख्यात
रचना है.अश्वघोष का अर्थ है-घोड़े की आवाज.कहा जाता है कि वैदिक ब्राह्मण कुल में
जन्म लेने और वेद के विद्वान बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गए थे.घूम-घूमकर बौद्ध
धर्म का प्रचार-प्रसार करते थे.इससे चिढ़कर वैदिक ब्राह्मणों ने मजाक उड़ाना शुरू कर
दिया कि जिधर देखो घोड़े की तरह हिनहिनाता रहता है.
कुछ लोगों का कहना है कि
इनके प्रवचन इतने रोचक,सरस और मधुर होते थे कि हिनहिनाता घोड़ा भी तन्मयता से इनका
प्रवचन सुनने लगता था.इन्हीं मनोमुग्धकारी प्रवचनों के कारण इनका नाम अश्वघोष हो
गया.यह नाम इतना प्रचलित हो गया कि कवि ने भी इसे स्वीकार कर लिया.
संस्कृत के एक प्रसिद्ध कवि
रहे हैं ‘भर्तृमेंठ’.इसका अर्थ है –
पीलवानों का स्वामी.पिकनिकर उपनाम वाले कवि
भी उक्ति विशेष के कारण उपनाम अलंकरण के रूप में प्राप्त हो गया.वे बेचारे जंगलों
में भटकते हुए बिलखते हुए घूम रहे थे कि यदि वसंत की आग में झुलसकर मेरी चिर
विरहणी प्रिया प्राण त्याग दे तो उसके वध के पाप का भागी कौन होगा? उसकी
युवावस्था,स्नेह या कामदेव? कवि के यह प्रश्न करते ही कोकिलों की झंकार सुनायी दी
कि ‘तू-तू तू तू ही’.
पुराने कवि चाहे
उर्दू,फारसी या हिंदी के हों उपनाम जरूर रखते थे.हिंदी के कवि प्रसाद,निराला एवं
कुछ और कवियों ने इस परंपरा का पालन नहीं किया.आधुनिक कविताओं,छंदों में उपनाम की
गुंजाईश ही नहीं होती.अब नए लेखक और कवि उपनाम नहीं रखते.