Thursday, February 23, 2017

एक लेखक का जाना

Image result for ved prakash sharma jpg

एक लेखक का ख़ामोशी से जाना और कोई खबर नहीं बनना साहित्यिक जगत के लिए कोई नया नहीं है.पहले भी ऐसा कई बार हुआ है.साहित्यिक जगत तो फिर भी उसे लेखक मानने को तैयार न था.साहित्यिक जगत ने ही मेरठ से एक बड़ी तादाद में छपने वाले लेखकों और उपन्यासकारों की लेखनी को लुगदी साहित्य से नवाजा था.कारण इस तरह के लेखकों का साहित्य बेकार और रद्दी के कागजों,जिसे लुगदी कहा जाता था,पर छापा जाता था.

इम्तिहान के बाद के खाली समयों को उन दिनों इसी लुगदी साहित्य ने भरा था.कर्नल रंजीत तो फिर भी पुराने हो चुके थे लेकिन वेद प्रकाश शर्मा उन दिनों लिखना शुरू कर रहे थे.पहली बार उनका उपन्यास ‘अल्फांसे की शादी’ पढ़ा था.फिर एक बार जो पढ़ने का चस्का लगा तो उनके कई उपन्यास पढ़ डाले.'कैदी न. 100',’दहेज़ में रिवाल्वर’,’वर्दी वाला गुंडा’ तो काफी चर्चित हुआ.उन दिनों वेद प्रकाश शर्मा के अलावा वेद प्रकाश कम्बोज,कर्नल रंजीत,सुरेन्द्र मोहन पाठक का भी जासूसी उपन्यास में बोलबाला था.

हस्य,रोमांच भरे जासूसी उपन्यासों में वेद प्रकाश शर्मा का कोई जवाब नहीं था.देशी,विदेशी किरदार,परत दर परत खुलते राज,पाठकों को बांधे रखते थे.उन दिनों ये उपन्यास दो-तीन रूपये के किराए पर भी मिल जाते थे.हममें से बहुत से पाठकों ने इसी तरह उनके उपन्यासों को पढ़ा था. वेद प्रकाश शर्मा ने तकरीबन 176 उपन्यास लिखे और कुछ फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखी.

उस दौर के उपन्यासकारों में जासूसी के अलावा रूमानी लेखकों का भी जलवा था.रानू,गुलशन नंदा से लेकर अन्य कई लेखकों ने पाठकों के दिलों में जगह बनायी.

समय बदला और लोगों की रूचि भी बदली. लोग अब नफासत पसंद लेखकों की बिरादरी की किताबों को ढूँढ़ने लगे थे.अब नाम ही काफी होता था,चाहे किताबें कैसी भी हों.इसी क्रम में हम सबने भी कई देशी,विदेशी लेखकों को पढ़ा.चेतन भगत से लेकर पाउलो कोएलो तक को खूब पढ़ा.चेतन भगत अब उत्सुकता नहीं जगाते.उनका नवीनतम उपन्यास ‘वन इंडियन गर्ल’ पिछले दो महीने से ज्यों का त्यों रखा है लेकिन अभी तक पढ़ने की इच्छा नहीं हुई.आज के दौर के कई लेखक बेस्टसेलर भले ही हों लेकिन आम लोगों की नब्ज पकड़ने में माहिर नहीं लगते.

अब भले जासूसी उपन्यासों का क्रेज ख़त्म हो चुका हो लेकिन अपने देश में जासूसी उपन्यासों की एक लंबी परंपरा रही है.इब्ने शफी,बी.ए. से लेकर वेद प्रकाश शर्मा तक लेखकों की एक कतार रही है और इस विधा के माहिर रहे हैं.लेकिन बदलते समय के साथ पढ़ने को लेकर भी लोगों की रुचियाँ बदली हैं और लोग अब गंभीर किस्म के साहित्य को या ज्यादा नामी-गिरामी  लेखकों को पढ़ने में ज्यादा रूचि लेने लगे हैं.

साहित्य भले ही बदल गया हो और अब गंभीर किस्म के साहित्य को ज्यादा तवज्जो मिलने लगा हो लेकिन पढ़ने के शुरूआती दौर के लोकप्रिय उपन्यासकार हमेशा हम जैसे पाठकों के जेहन में रहेंगे.

Tuesday, February 14, 2017

इन दोहन पर न जाइए

Top post on IndiBlogger.in, the community of Indian Bloggers

हालांकि, हिंदी साहित्य की दृष्टि से दोहा एक छोटा सा मांत्रिक छंद है लेकिन कथ्य  का संक्षिप्त एवं स्पष्ट वर्णन करने के लिए  यह बड़ा सशक्त माध्यम है.चरणों का क्रम बदल जाने पर दोहा, सोरठा बन जाता है.

रहीम और वृंद ने नीति की बात संक्षेप में और आसानी से स्मरण रह जाने योग्य छंद में कहने के लिए दोहों को माध्यम बनाया तो मानस के रचयिता तुलसीदास ने चौपाई के बल पर दौड़ते हुए काव्य में थोड़ा-थोड़ा विश्राम देने की गरज से दोहों और सोरठों का सहारा लिया.

राजदरबारों में आशु कवि के रूप में चारणों या भाटों द्वारा कहे जाने वाले दोहे चमत्कारिक रहे हैं.कभी विलासी राजा को सचेत कर राजकाज की सुधि लेने कभी स्वाभिमानी  राजा को उसका स्वाभिमान कायम रखते हुए निर्णय लेने,कभी संधि के इच्छुक राजा को संधि के प्रस्ताव से मुकर जाने की प्रेरणा देते ये दोहे मानो धारा के प्रवाह को विपरीत दिशा में पलट देते नजर आते हैं.

जयपुर के राजा मानसिंह बड़े योद्धा थे.मुग़ल सम्राट के लिए इन्होंने काफी लड़ाइयों पर विजय पायी थी.किंतु एक बार जोश में उन्होंने लंका विजय का अभियान प्रारंभ करने का आदेश दे दिया था.यद्यपि सेनापतिगण इस अभियान की कठिनाईयों का आकलन कर इसमें असफलता की अधिक सम्भावना देख रहे थे,किंतु महाराज को प्रत्यक्ष में यह निवेदन कर कोई कायर नहीं कहलाना चाहता था.कूच कर जाने के नगाड़े बज चुके थे.महाराज स्वयं अश्वारूढ़ हो अभियान का नेतृत्व करने के लिए तैयार खड़े थे.इतने में चारण जी आए और घोड़े की लगाम पकड़ते हुए महाराज को यह सोरठा कह सुनाया.....

रघुपति दीनी दान,विप्र विभीषण जानि कै |
मान महीपति मान,दियो दान किमि लीजियै ||

(आप उन भगवान् राम के वंशज हैं ,जिन्होंने विभीषण को ब्राह्मण जानकर लंका दान में दे दी थी.हे राजा मान सिंह ! मान जाइए.क्या आप पूर्वजों द्वारा दिए गए दान को वापस लेना चाहते हैं?)

महाराज घोड़े से उतर पड़े और सेनापतियों ने संतोष की साँस ली.महाराज के स्वाभिमान को कायम रखते हुए उनके रघुवंश में जन्म लेने तथा दान की क्षत्रिय वंश की परंपरा की दुहाई ने अभियान की धारा बदल दी.

इन दिनों हल्दी घाटी का युद्ध फिर चर्चा में है.एक इतिहासकार ने हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के विजयी होने और बादशाह अकबर के पराजित होने का दावा किया है.तथ्य जो भी हो, किंतु कहा जाता है कि एक दोहे ने महाराणा को अकबर से संधि करने से रोक दिया.

मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अकबर से टक्कर लेते-लेते महाराणा प्रताप जंगलों की ख़ाक छान रहे थे. भीलों द्वारा लाये गये घास के बीजों की रोटी खाकर परिवार गुजारा कर रहा था.पर एक दिन उनकी पुत्री के हाथ से जंगली बिलाव जब वह रोटी भी छीन ले गया तो महाराणा का ह्रदय द्रवित हो उठा और उन्होंने संधि का प्रस्ताव लेकर दूत को बादशाह अकबर के पास भेज दिया.

साहित्य प्रेमी अकबर के दरबार में अनेक कवि मौजूद थे.वे अकबर के दरबार में रहते अवश्य थे किंतु महाराणा द्वारा द्वारा मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए किये जा रहे प्रयासों पर उन्हें हार्दिक गर्व था.चिठ्ठी देखकर सम्राट अकबर से उन्होंने कहा कि.”मैं महाराणा की हस्तलिपि जानता हूँ,इस प्रस्ताव पर उनके हस्ताक्षर नहीं हैं,अतः इसकी पुष्टि कर लेना ठीक होगा.”अकबर के मन में यह शंका भरकर उन्होंने उसी दूत के हाथ यह सोरठा लिखकर महाराणा के पास भेज दिया........

पटकूं मूंछां पाण,कै पटकूं निज तन करद |
लिख दीजै दीवाण,इन दो मंहली बात इक ||

हे दीवान ! (मेवाड़ के महाराणा को राजा नहीं ,भगवान एकलिंग जी का दीवान कहा जाता है) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूं ,या इस करदाता शरीर को नष्ट कर दूं? इन दो में से एक बात लिख दीजिए.”

यह चिठ्ठी पाते ही महाराणा की संधि-भावना तिरोहित हो गयी.इतिहास साक्षी है कि इसी के बाद भामाशाह के द्वारा प्रस्तुत धन और वफादार सैनिको के बल पर हल्दीघाटी का प्रसिद्ध युद्ध लड़ा गया.