हालांकि, हिंदी साहित्य की दृष्टि से दोहा एक छोटा सा मांत्रिक
छंद है लेकिन कथ्य का संक्षिप्त एवं
स्पष्ट वर्णन करने के लिए यह बड़ा सशक्त
माध्यम है.चरणों का क्रम बदल जाने पर दोहा, सोरठा बन जाता है.
रहीम और वृंद ने नीति की बात संक्षेप में और आसानी से स्मरण
रह जाने योग्य छंद में कहने के लिए दोहों को माध्यम बनाया तो मानस के रचयिता
तुलसीदास ने चौपाई के बल पर दौड़ते हुए काव्य में थोड़ा-थोड़ा विश्राम देने की गरज से
दोहों और सोरठों का सहारा लिया.
राजदरबारों में आशु कवि के रूप में चारणों या भाटों
द्वारा कहे जाने वाले दोहे चमत्कारिक रहे हैं.कभी विलासी राजा को सचेत कर राजकाज
की सुधि लेने कभी स्वाभिमानी राजा को उसका
स्वाभिमान कायम रखते हुए निर्णय लेने,कभी संधि के इच्छुक राजा को संधि के प्रस्ताव
से मुकर जाने की प्रेरणा देते ये दोहे मानो धारा के प्रवाह को विपरीत दिशा में पलट
देते नजर आते हैं.
जयपुर के राजा मानसिंह बड़े योद्धा थे.मुग़ल सम्राट के लिए इन्होंने
काफी लड़ाइयों पर विजय पायी थी.किंतु एक बार जोश में उन्होंने लंका विजय का अभियान
प्रारंभ करने का आदेश दे दिया था.यद्यपि सेनापतिगण इस अभियान की कठिनाईयों का आकलन
कर इसमें असफलता की अधिक सम्भावना देख रहे थे,किंतु महाराज को प्रत्यक्ष में यह
निवेदन कर कोई कायर नहीं कहलाना चाहता था.कूच कर जाने के नगाड़े बज चुके थे.महाराज
स्वयं अश्वारूढ़ हो अभियान का नेतृत्व करने के लिए तैयार खड़े थे.इतने में चारण जी
आए और घोड़े की लगाम पकड़ते हुए महाराज को यह सोरठा कह सुनाया.....
रघुपति दीनी दान,विप्र विभीषण जानि कै |
मान महीपति मान,दियो दान किमि लीजियै ||
(आप उन भगवान् राम के वंशज हैं ,जिन्होंने
विभीषण को ब्राह्मण जानकर लंका दान में दे दी थी.हे राजा मान सिंह ! मान जाइए.क्या
आप पूर्वजों द्वारा दिए गए दान को वापस लेना चाहते हैं?)
महाराज घोड़े से उतर पड़े और सेनापतियों ने संतोष की साँस
ली.महाराज के स्वाभिमान को कायम रखते हुए उनके रघुवंश में जन्म लेने तथा दान की
क्षत्रिय वंश की परंपरा की दुहाई ने अभियान की धारा बदल दी.
इन दिनों हल्दी घाटी का युद्ध फिर चर्चा में है.एक
इतिहासकार ने हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के विजयी होने और बादशाह अकबर
के पराजित होने का दावा किया है.तथ्य जो भी हो, किंतु कहा जाता है कि एक दोहे ने
महाराणा को अकबर से संधि करने से रोक दिया.
मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अकबर से टक्कर
लेते-लेते महाराणा प्रताप जंगलों की ख़ाक छान रहे थे. भीलों द्वारा लाये गये घास के
बीजों की रोटी खाकर परिवार गुजारा कर रहा था.पर एक दिन उनकी पुत्री के हाथ से
जंगली बिलाव जब वह रोटी भी छीन ले गया तो महाराणा का ह्रदय द्रवित हो उठा और
उन्होंने संधि का प्रस्ताव लेकर दूत को बादशाह अकबर के पास भेज दिया.
साहित्य प्रेमी अकबर के दरबार में अनेक कवि मौजूद थे.वे अकबर के दरबार में रहते
अवश्य थे किंतु महाराणा द्वारा द्वारा मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए किये
जा रहे प्रयासों पर उन्हें हार्दिक गर्व था.चिठ्ठी देखकर सम्राट अकबर से उन्होंने
कहा कि.”मैं महाराणा की हस्तलिपि जानता हूँ,इस प्रस्ताव पर उनके हस्ताक्षर नहीं
हैं,अतः इसकी पुष्टि कर लेना ठीक होगा.”अकबर के मन में यह शंका भरकर उन्होंने उसी दूत
के हाथ यह सोरठा लिखकर महाराणा के पास भेज दिया........
पटकूं मूंछां पाण,कै पटकूं निज तन करद |
लिख दीजै दीवाण,इन दो मंहली बात इक ||
हे दीवान ! (मेवाड़ के महाराणा को राजा नहीं
,भगवान एकलिंग जी का दीवान कहा जाता है) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूं ,या इस करदाता
शरीर को नष्ट कर दूं? इन दो में से एक बात लिख दीजिए.”
यह चिठ्ठी पाते ही महाराणा की संधि-भावना तिरोहित हो गयी.इतिहास साक्षी है कि इसी के बाद भामाशाह के द्वारा प्रस्तुत धन और वफादार सैनिको के बल पर हल्दीघाटी का प्रसिद्ध युद्ध लड़ा गया.
इतिहास कभी समय का प्रमाण कहा जाता था लेकिन मुझे लगता है इतिहास , कुछ लोगों को खुश करने के लिए लिखा जाता है ! बढ़िया सन्दर्भ दिया आपने झा साब
ReplyDeleteदिनांक 15/02/2017 को...
ReplyDeleteआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद... https://www.halchalwith5links.blogspot.com पर...
आप भी इस प्रस्तुति में....
सादर आमंत्रित हैं...
सादर आभार.
Deleteप्रशंसनीय प्रस्तुति
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "१४ फरवरी, मधुबाला और ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसादर धन्यवाद !
Deleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Nice article with awesome explanation ..... Thanks for sharing this!! :) :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteदोहे और एतिहासिक वर्णन....
वाह!!!
बढ़िया सन्दर्भ
ReplyDeleteI am extremely impressed along with your writing abilities, Thanks for this great share.
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