पौराणिक आख्यानों में कई ऐसे दृष्टांत मिल जाते हैं जो आज
के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक लगते हैं.कहा जाता है कि प्राचीन भारतीय समाज में
वर्ण व्यवस्था प्रचलित थी और साधारणतः इसमें परिवर्तन संभव नहीं था.लेकिन
विश्वामित्र प्रतापी क्षत्रिय नरेश थे जिन्होंने अपनी तपस्या के बल पर ब्राह्मणत्व
प्राप्त किया.जिस सविता देवी की स्तुति रूप गायत्री की दीक्षा उपनयन में दी जाती
है उसके दृष्टा विश्वामित्र ही माने जाते हैं.
पुराणों के अनुसार विश्वामित्र कान्यकुब्ज देश के महीपति
थे.एक बार वे सेना के साथ आखेट के लिए गए और शिकार करते हुए बहुत दूर निकल
गए.भूख-प्यास से व्याकुल लौटते हुए एक जगह सुंदर आश्रम दिखा,पता चला यह महर्षि
वशिष्ठ का आश्रम है.सेना को वहीँ छोड़ वे ऋषि के दर्शन हेतु उनके आश्रम जा
पहुंचे.वशिष्ठ से कुशल क्षेम पूछने के बाद चलने को तत्पर हुए तो वशिष्ठ ऋषि ने
उनसे आतिथ्य ग्रहण का अनुरोध किया.
विश्वामित्र को यह गर्वोक्ति लगी तो उन्होंने कहा कि उनके
साथ विशाल संख्या में सैनिक भी हैं.वशिष्ठ ऋषि ने निवदन किया,क्या हानि है,पास ही
पवित्र जल वाली नदी है.कम से कम उससे ठंढा जल तो सबको मिल ही जाएगा.भोजन के लिए भी
जो हो सकेगा वह प्रबंध हो जाएगा.’
विश्वामित्र ने वशिष्ठ की उस उक्ति को गर्वोक्ति माना और
विचार किया कि आज उनका अभिमान तोड़ ही देना चाहिए.प्रकट में कहा कि ऋषि की आज्ञा
शिरोधार्य है,मैं सेना सहित आपका आथित्य ग्रहण करूंगा.’वशिष्ठ के शिष्यों ने
प्रत्येक के लिए इच्छानुसार भोजन सामग्री प्रस्तुत कर दी साथ ही घोड़ों के केलिए भी
यथोचित सामग्री प्रस्तुत की गयी.सभी लोगों के मन में विचार उत्पन्न हुआ कि इतना
सुख तो अपने घरों में भी नहीं है.
भोजन आदि से निवृत्त होकर जब विश्वामित्र पुनः विदा मांगने
वशिष्ठ के पास पहुंचे जब जिज्ञासा प्रकट की,’आश्रम तो छोटा प्रतीत होता है ,इतनी
बड़ी सेना के लिए आथित्य का सामान कहाँ से आया.’वशिष्ठ ने अपनी गौ को ओर संकेत करते
हुए कहा –‘भारतवर्ष का मुख्य धन तो यही गौ है.इस कामधेनु गौ की कृपा से ही यहाँ सब
कुछ सुलभ है.’
विश्वामित्र ने कहा.’ऐसी अनुपम वस्तु का प्रयोग तो आप
कभी-कभी ही कर पाते होगें,यह तो हमारे राजदरबार के उपयुक्त है.कृपया इसे हमें दे
दीजिए.’वशिष्ठ ने कहा,’आप हमारे अतिथि हैं.अतिथि को उनकी इच्छानुसार सबकुछ दिया जा
सकता है किंतु यदि यह गौ अपनी इच्छानुसार आपके साथ जाना चाहे तो इसे ले जा सकते
हैं,इसके लिए बल प्रयोग नहीं होना चाहिए.’
महाराजा विश्वामित्र ने अपने सैनिकों को गौ ले चलने की
आज्ञा दी किंतु गौ डकारते हुए वशिष्ठ के चरणों में बैठ गयी.वशिष्ठ ने कहा,’राजन,
गौ जाना नहीं चाहती तो मैं बलात भिजने में असमर्थ हूँ.’इस पर विश्वामित्र आवेश में
आ गए.उन्हों अपने सैनिकों को गौ को बांधकर ले जाने की आज्ञा दी लेकिन वशिष्ठ के
तेज के कारण उनके समीप नहीं पहुँच सके.अंत में दिव्यास्त्रों का प्रहार शुरू कर
दिया.
वशिष्ठ ने कोई उत्तर नहीं दिया केवल अपना ब्रह्मदंड लेकर
खड़े हो गए.विश्वामित्र के दिव्यास्त्रों को ब्रह्मदंड निगल जाता था.यह देखकर
विश्वामित्र ने अपना धनुष तोड़कर फेंक दिया उनके मुंह से निकल पड़ा.........
धिग् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं वलम् |
एकेन ब्रह्मदण्डेण सर्वस्त्राणि हतानि में ||
विश्वामित्र ने निश्चय किया कि वे ब्रह्म्बल प्राप्त
करेंगे.इस निश्चय के साथ ही वे ब्रह्म्बल की प्राप्ति के लिए तपस्या करने चले गए.उन्होंने
ताप किया और ब्राह्मणत्व प्राप्त किया.एक क्षत्रिय के ब्राह्मणत्व प्राप्त करने पर
भी वर्ण व्यवस्था पर कोई चोट नहीं पहुंची.यह वर्ण व्यवस्था के लचीलेपन का प्रमाण
है.ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लेने पर भी कौशिक गोत्र में बने रहने कि सम्भावना
व्यक्त की जाती है.विश्वामित्र का कौशिक नाम वेदों और पुराणों में मिलता है.
संभवत: वो राजा थे इसलिए इनका ज़िक्र है और भी कई लोग कर्म अनुसार व्यवस्था में परिवर्तित होते होंगे ... मैं मानता हूँ कालांतर में जाति व्यवस्था जन्म से जब जुड़ी पतन की शुरुआत हुयी ...
ReplyDeleteकर्म के अनुसार ही वर्ण व्यवस्था हुई, जन्म से जाति प्रथा... आज भी कर्म बदलने की मनाही तो नहीं ही होगी और स्वछतामिशन ने इसकी उपयोगिता भी सिद्ध कर दी है ...दादी नानी की कहानियाँ भी महत्वपूर्ण दृष्टांतों का ही समावेश होती हैं...पौराणिक आख्यान भी मनन चिंतन करने योग्य ...
ReplyDeleteदिनांक 25/07/2017 को...
ReplyDeleteआप की रचना का लिंक होगा...
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
आप की प्रतीक्षा रहेगी...
सादर धन्यवाद.
Deleteइंसान ठान ले तो कुछ भी असंभव नहीं रह जाता
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट।
ReplyDeleteप्रेरक प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस : मनोज कुमार और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद.
Deleteआरंभिक दौर में जो व्यवस्थाऐं गरिमापूर्ण होती हैं कालांतर में चतुर-चालाक वर्ग के स्वार्थवश उनमें अनेक विकृतियां अपना घर बसा लेती हैं। भारत में आज वर्ण-व्यवस्था को जन्म आधारित ही मानने लगी है जनता और आये दिन हम देखते हैं अनेकानेक विवाद जिनकी जड़ में वर्ण-व्यवस्था के पुरातन संस्कार ही फुफकार मार रहे होते हैं. वर्ण-व्यवस्था भेदभाव पर आधारित क्यों हो गयी उसका कारण शिक्षा का केन्द्रीयकरण है। कोई भी सामाजिक व्यवस्था अपने अंतर्विरोधों से परे हटकर तभी विकसित होकर फलती-फूलती है जब उसमें आतंरिक सामंजस्य होता है और विकृतियों को समय-समय पर संशोधित करने की क्षमता उसमें विकसित हो जाती है।
ReplyDeleteवैदिक -साहित्य की यह कथा प्रेरक अवश्य है किन्तु आज हम समानता पर आधारित भारतीय संविधान को अपना चुके हैं जिसमें वर्ण-व्यवस्था को नकार दिया गया है फिर भी यदाकदा वर्ण -व्यवस्था से उपजे विवाद हमारे सामने आते ही रहते हैं।
पुराने दौर का स्मरण सुखद लगता है जब ऐसे प्रकरण ज्ञान और विवेचना के आयाम प्रस्तुत करते हैं। सारगर्भित ,विचारणीय कथा साझा करने के लिए आपका आभार। बधाई।
पौराणिक कथाओं से सम्बंधित रोचक जानकारी
ReplyDeleteबहुत बढिया..
जाति के नाम पर नहीं कर्म के नाम पर ही वर्ण व्यवस्था होनी चाहिए, सुंदर बोध देती हुई कथा..
ReplyDeleteसुन्दर ज्ञान वर्धक कथा....
ReplyDeleteबेहतरीन लेख .... तारीफ-ए-काबिल .... Share करने के लिए धन्यवाद...!! :) :)
ReplyDeleteविश्वामित्र पहले राजा थे ? बिल्कुल नहीं मालूम था मुझे , मैं उन्हें सदैव ब्राह्मण ही समझता था ! बहुत बढ़िया प्रसंग लिखा आपने राजीव जी !! लिखते रहिये और ज्ञानवृद्धि करते रहिये
ReplyDeleteI don’t skills ought to I provide you with thanks! i'm altogether shocked by your article. You saved my time. Thanks 1,000,000 for sharing this text.
ReplyDeleteजब से जन्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था बनने की शुरवात हुई तभी से समाज में अराजकता फैलने लगी हैं।
ReplyDeleteGreat article, Thanks for your great information, the content is quiet interesting. I will be waiting for your next post.
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