बचपन में माँ की डायरी में पढ़ी लोकगीत की एक कड़ी,आज
अनायास ही याद आ गई है.
“महल पर कागा बोला है री”
ससुराल में अपने मायके को श्रेष्ठ बताती स्त्रियाँ तरह तरह की उपमा देती हैं.तब माँ एक डायरी में तरह तरह के लोकगीत,मैथिली के,अंगिका के, लिखा करती थीं.एक बार अचानक ही माँ की डायरी हाथ लग गई थी.सुन्दर मोतियों से अक्षर और किसिम-किसिम के मिथिला के अंचलों में गाये जाने वाले लोकगीत.आश्चर्य होता कि माँ कहाँ से इतने सारे गीत सुन लेती हैं और कब डायरी में लिख भी लेती हैं.तब उन गीतों की महत्ता और दिन ब दिन क्षरण होते सामाजिक परम्पराओं,लोकगीतों के ह्रास का अंदाजा न था.
पशु,पक्षियों का मानव जीवन से अटूट सम्बन्ध रहा है.लोकगीतों,ग्राम्यगीतों में पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम का अद्भुत संसार दिखता है.वे कब मनुष्य के जीवन का अंग बन जाते हैं,पता ही नहीं चलता.खाना बनाते वक्त पशु,पक्षियों के लिए पहला कौर निकाल कर रख देना,सामूहिक आयोजनों में, पंगत में बैठकर खाते समय,कुछ दाने पशु,पक्षियों के लिए अलग रख देने में ऎसी ही भावना रही होगी.
माँ अपने बच्चों के मुँह में कौर डालते समय तरह तरह के पक्षियों से संबंध जोड़ते हुए कहती हैं,यह एक कौर कौआ के लिए,यह एक कौर मैना के लिए……. .शायद बचपन से हमें पशु,पक्षियों के प्रति मित्रवत व्यवहार करने की सीख मिल जाती है.
इधर कई दिनों से प्रतिदिन कौओं के मरने की ख़बरें आ रही हैं.पर्यावरण के सफाईकर्मी कहे जाने वाले चील,बाज व् गिद्ध की प्रजाति तो अब गुजरे ज़माने की बात हो गई है.हाल के दिनों में कौओं की अचानक बड़े पैमाने पर मौत के बाद सवाल उठ रहा है कि क्या अब मेहमानों के आने की खबर देने वाला पक्षी हमारे आस-पास नहीं दिखेगा.गिद्ध के बाद अगर कौए भी विलुप्त हो गए तो पर्यावरण के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न हो जायेगा.कौए सिर्फ मानवों के लिए ही नहीं बल्कि पशुओं के लिए भी काफी सहायक हैं.
लोग जब टी.बी जैसी बीमारी से ग्रसित होते हैं तो उनके थूक,खखार को ये कौए खा जाते हैं.अगर ऐसा न हो तो समाज में टी.बी मरीजों की संख्या कई गुना बढ़ जाएगी.इसी तरह पशुओं में जोंक या कीड़े चिपक जाते हैं तो कौए उन्हें खा जाते हैं.कौए उन्हें न खाएं तो पशु कई तरह की बीमारियों से ग्रसित हो सकते हैं.
कौओं के इस तरह मारे जाने की कई वजहें हो सकती हैं.खेतों में अधिक फसल उपजाने के लोभ में किसान अधिक उर्वरक व् कीटनाशक का प्रयोग कर रहे हैं.यह जहर का काम करता है.इसके कारण पानी भी विषैला हो जाता है.मौसम चक्र में अप्रत्याशित बदलाव से भी कई पक्षी आँगन में नहीं दिखाई देते.तालाबों,पोखरों,जलाशयों में पानी का न होना भी कौओं के मौत का बड़ा कारण है.घरों में चूहों को मारने वाली दवाई के कारण मरे चूहों को लोग जहाँ-तहाँ फ़ेंक देते हैं.इस तरह के जहर खाकर मरे चूहों को खाकर भी कौए मर रहे हैं.ऐसे में बर्ड फ़्लू होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता.
आज जरूरत इस बात की है शीघ्र ही बड़े पैमाने पर कौओं के मारे जाने के कारणों का पता लगाते हुए इसके रोकथाम का उपाय किया जाय, नहीं तो वह दिन दूर नहीं, जब हम कौओं को सिर्फ बच्चों की किताबों में ही देखा करेंगे.
पक्षियों की संख्या निरंतर घटती जा रही है.यह चिंता का विषय है.मानव समाज के अस्तित्व के लिये पक्षियों का होना बहुत जरूरी है.कौआ,गोरैया आदि पक्षियाँ अब दिखाई नहीं देती है.
ReplyDeleteउत्कृष्ट पोस्ट.
धन्यवाद !सराहना के लिए आभार .
Deleteबहुत अच्छी जानकारी दी है.पक्षियों का कम होना पर्यावरण के लिये शुभ संकेत नहीं है.
ReplyDeleteधन्यवाद!सराहना के लिए आभार.
DeleteTo ave our crops we end up losing such birds! Tragic!
ReplyDeleteThanks ! Indrani ji .
Deleteइस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 26/10/2014 को "मेहरबानी की कहानी” चर्चा मंच:1784 पर.
ReplyDeleteअच्छी जानकारी
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट...
ReplyDeleteबहुत खूब
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