तांत्रिक गणपति |
दीपावली अंधकार में प्रकाश का पर्व है,लेकिन इसका महत्व इतने से ही कम नहीं हो
जाता. दीपावली को कालरात्रि कहा गया है,इसलिए जितने तांत्रिक और सिद्धिदायक अवयव
हैं,उनका प्रयोग दीपावली की रात्रि को ही किया जाता है.इसके लिए मध्यरात्रि और परम
एकांत जरूरी है.हमारे वेद,पुराण और संहिताओं सभी में मंत्र की महत्ता को बताया
गया है.ऋग्वेद की हर ऋचा अपने आप में एक मंत्र है.स्वयं गायत्री मंत्र ऋग्वेद की
धरोहर है.
किसी भी शुभ कार्य को प्रारंभ करने से पहले गणेश की वंदना करना,उन्हें नमन करना आज भी सर्वमान्य लोकरीति है.संभवतः इसीलिए किसी भी कार्य को प्रारंभ करना ‘श्री गणेश’ करना कहा जाता है.गणेश हमारे देवमंडल में अग्रपूजा का सम्मान पाने वाले देवता हैं.
गणेश की इस महत्ता के पीछे उनमें सन्निहित अनेक गुण हैं जिनसे उपासक को अनेकानेक
लाभ प्राप्त होते हैं.उन्हें विघ्नविनाशक,बुद्धिप्रदाता,मांगल्य के देवता,ऋद्धि –सिद्धि
के प्रदाता आदि रूपों में पूजा जाता है.वे विघ्नविनाशक हैं,इसलिए प्रत्येक शुभ
कार्य के प्रारंभ में उनका आवाहन – पूजन किया जाता है ताकि वह कार्य निर्विघ्न
संपन्न हो.
जिस प्रकार किसी मंत्र के उच्चारण के पूर्व ॐकार का उच्चारण आवश्यक माना जाता है,उसी
प्रकार किसी भी शुभ कार्य के पहले गणेश-पूजा अनिवार्य मानी जाती है.
गणेश के दैवत्व पर
तथा उनसे संबंधित आख्यानों के लिए याज्ञवलक्यसंहिता,प्राणतोषिनी, परशुराम कल्पसूत्र,तंत्रसार,शारदातिलक,मैत्रायिणी
संहिता,ब्रह्मवैवर्त,विष्णुधर्मोत्तर आदि पुराणों में प्रचुर सामग्री मिलती है.इन
ग्रंथों के विवरण से गणेश के महात्मय में निरंतर वृद्धि होती है.
प्रायः विद्वान ऐसा मानते हैं कि गणेश उपासना में नवीं दशवीं शती ई. तक तंत्र का समावेश हो चुका था. गणेश का उद्भव शिव – परिवार में होने की कथा के आधार पर उन पर शैव प्रभाव प्रारंभ से ही बना था.भारतीय मूर्तिकला इस बात की साक्षी है.गणेश की मूर्तियों में उर्घ्व लिंग,त्रिनेत्र, मुंडमाल,अर्धचंद्र मौलि,सर्वयज्ञोपवित और व्याघ्रचर्माम्बर उन्हें शिव के निकट सिद्ध करते हैं.
शायद शैव प्रभाव के कारण ही गणेश का घनिष्ट संपर्क शाक्त संप्रदाय से हो गया.गणपति संप्रदाय में गणेश की पूजा के बाद शक्ति की पूजा का विधान है.तंत्राचार में गणेश का इन शक्तियों के साथ विशेष संबंध हो गया था.
व्याकरण के अनुसार ‘मात्रिका’
शब्द का अर्थ होता है ‘माता इव’ अर्थात माता के तुल्य. मातृकाएं क्रूर स्वभाव की
मानी गई हैं.परन्तु इन्हें प्रसन्न करने पर ये मातृवत पालन करती हैं.मातृकाओं का
यह स्वभाव विघ्नेश्वर गणेश के स्वभाव से मेल खाता
है.
ऐसा माना जाता है कि गणेश भी स्वभाव से विघ्नकर्ता थे,तभी उन्हें
विघ्नेश्वर और विघ्नेश कहा गया है.किन्तु पूजा करने पर वही गणेश सभी विघ्नों का
नाश कर देते हैं.शायद इसी स्वभाव साम्य के कारण गणेश का संबंध मातृकाओं से
स्थापित हो गया.देश के विभिन्न स्थानों से मिले सप्तमात्रिका – फलकों पर प्रायः गणेश का पहला
स्थान है.
15वीं शती के शिल्पग्रंथ ‘रूपमंडन’ में गणेश के मंदिर में विभिन्न शक्तियों की मूर्तियों की स्थापना का
निर्देश है.इनमें गौरी,बुद्धि,सरस्वती,सिद्धि आदि के नाम सम्मिलित हैं.उत्तर
प्रदेश के फतेहगढ़ के चित्रगुप्त मंदिर में उसकी एक भित्ति पर प्रतिहार कालीन नृत्यरत
गणेश की मूर्ति सीमेंट से जड़ी हुई है. इस मूर्ति के दोनों पार्थों में सरस्वती,अम्बिका,लक्ष्मी,दुर्गा और मातृका की मूर्तियाँ भी उकेरी गई हैं.
उड़ीसा में रत्नागिरी की पहाड़ी पर एक विशाल बौद्ध विहार के अवशेष पाए गए हैं जो वहां तंत्रयान का साक्ष्य समुपस्थित करते हैं. इन अवशेषों में महाकाल का एक मंदिर और गणेश की कुछ मूर्तियाँ मिली हैं.तिब्बत और हिमाचल प्रदेश में वज्रयान एवं तंत्रयान से प्रभावित बौद्ध मठों और विहारों में भी गणेश की मूर्तियाँ मिली हैं.
उड़ीसा में रत्नागिरी की पहाड़ी पर एक विशाल बौद्ध विहार के अवशेष पाए गए हैं जो वहां तंत्रयान का साक्ष्य समुपस्थित करते हैं. इन अवशेषों में महाकाल का एक मंदिर और गणेश की कुछ मूर्तियाँ मिली हैं.तिब्बत और हिमाचल प्रदेश में वज्रयान एवं तंत्रयान से प्रभावित बौद्ध मठों और विहारों में भी गणेश की मूर्तियाँ मिली हैं.
तंत्राचार में गणेश या गणेश
– उपासना में तंत्राचार की परिपुष्टि करने वाले कुछ उदाहरण भारतीय मूर्तिकला में मिलते
हैं.बिहार से प्राप्त दो चतुर्मुखी शिवलिंगों पर भी गणेश का महत्वपूर्ण अंकन पाया
गया है और ऐसा ही प्रतिहारयुगीन शिवलिंग काशी नरेश,वाराणसी के संग्रह में बताया
जाता है.जावा में भी मिले एक शिवलिंग पर गणेश की मूर्ति है जो हौलेंड में है. इस
प्रसंग में पद्मपुराण में कहा गया है कि ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर लिंगरुपी विनायक
का उल्लेख है........
देशे च भारतवर्षे वनितापूर्ण सन्निधौ |
लौहित्यदक्षिणे तीरे
लिंगरुपी विनायकः ||
शिवलिंगों की योनिपीठ पर गणेश के ये अंकन निश्चित ही उन्हें तंत्रोपासना से संबंध ठहराते हैं.श्रीगणेशपुराण के अंतर्गत उपासना खंड में आए गणपति अष्टोत्तर शतनामस्रोतम के श्लोक
कहते हैं ....
कामिनीकामनाकाम मालिनिकेलिला लितः |
अमोघसिद्धिराधार
आधाराधेयवर्जितः ||
गणेश की कई विचित्र
प्रतिमाएं जावा से मिली हैं,जिन पर गणेश का कापालिक स्वरूप दर्शाया गया है.सिंगसिरी से मिली एक प्रतिमा यूरोप में लीडेन संग्रहालय में है.इस प्रतिमा में
गणेश के मुकुट की मध्य मणि तथा दोनों वक्षों पर कपाल बने हुए हैं और जिस आसन पर वे
बैठे हैं,वह भी कपाल पंक्ति से सजाया गया है.बोरा से मिली दूसरी प्रतिमा के आसन
पर भी कपाल बने हैं और उसके पृष्ठ भाग पर विशाल और विकराल कीर्तिमुख बना है.ये
सभी प्रतिमाएं गणेश उपासना में तंत्राचार की परिचायक हैं.