आज के तथाकथित अत्याधुनिकता
के इस युग में बुजुर्गों की उपेक्षा अधिक बढ़ी है.जबकि बुजुर्ग कभी उपेक्षा के
पात्र नहीं हो सकते.किसी भी समाज के लिए उनकी भूमिका न केवल महत्वपूर्ण होती है
बल्कि सामाजिक धरोहर के रूप में भी सामने आती है.
पीढ़ियों के अंतराल के कारण
वैचारिक मतभेद या टकराव का सिलसिला तो हजारों साल पुराना है ही,परंतु आजकल
महानगरीय जीवन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को ही हम भूलने लगे हैं.उनके साथ होने
वाले दुर्व्यवहार से लगता है मानो उनके अस्तित्व को ही नकारा जा रहा हो.यह
परिस्थिति भारत जैसे देशों के के लिए अत्यंत
त्रासदीपूर्ण है क्योंकि हमारा देश प्रारंभ से ही संस्कृतिप्रधान देश रहा है.
पूरी दुनियां का आध्यात्मिक
गुरु माने जाने वाले भारत ने दुनियां को तो प्रेम का पाठ पढ़ाया लेकिन अपनी ही भूमि
में अब प्रेम की संस्कृति समाप्त होने लगी है.हमारा पालन-पोषण करने वाले बुजुर्गों
की उपेक्षा इसी त्रासदीपूर्ण परिस्थिति का उदहारण है.उनके साथ अमानवीय व्यवहार
दुखदायी है.बुजुर्गों के प्रति उपेक्षा की भावना की शुरुआत पूरी दुनियां में दूसरे
विश्वयुद्ध के बाद से हुई,जो कि अब व्यापक रूप से समाज में फ़ैल गई है.
सबसे पहले इस अमानवीय
व्यवहार पर विचार करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 1981 में जिनेवा में हुए
सम्मेलन में 1 अक्तूबर को ‘अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय
किया गया.इसी के साथ विश्व समुदाय ने वृद्धों की बढ़ती संख्या तथा उनकी बदलती हुई
सामाजिक दशा पर चिंता व्यक्त की.बुजुर्गों की देखभाल करना तथा उन्हें सामाजिक
सुरक्षा प्रदान करना एक परम पवित्र कार्य है जिन्हें पूरा करने की जिम्मेवारी
वर्तमान पीढ़ी के कंधे पर ही है.
इस बात पर भी विचार किया
जाना जरूरी है कि वृद्धावस्था की शुरुआत किस उम्र से होती है.सरकारी तौर पर यह 58
या 60 वर्ष की आयु है लेकिन देश में ऐसे लोग भी हैं जीवन की शतकीय पारियां खेली हैं.प्रसिद्ध
क्रिकेट खिलाड़ी स्व. प्रो. देवधर(101 वर्ष),प्रसिद्ध चित्रकार स्व. विश्वनाथ
सारस्वत तथा स्व. मोरारजी देसाई जैसे महान शख्सियत की उम्र को देखते हुए 58-60
वर्ष की आयु बहुत कम लगती है.अतः बुढ़ापे की आयु क्या होनी चाहिए यह एक बड़ी गुत्थी
है.वैसे
वृद्धावस्था की सबसे प्रचलित परिभाषा शायद यह है कि जब मानव शरीर की शक्ति
तथा सक्रियता क्षीण होने लगे तो समझा जाना चाहिए कि बुढ़ापे की दस्तक आ चुकी है.
शरीर में रक्त संचार की गति
ही वृद्धावस्था को निर्धारित करने वाला प्रमुख आधार है.प्रत्येक मानव के शरीर में
40 से 50 वर्ष की आयु तक विशेष परिवर्तन आ जाते हैं.यह कहा जा सकता है कि
वृद्धावस्था के आने पर मानव शरीर में रक्त बनने की प्रक्रिया बंद होने लगती है.जब
शरीर में ताजा रक्त का संचार बंद हो जाता है तब शरीर की असंख्य कोशिकाओं को
ऑक्सीजन एवं दूसरे तत्वों की आपूर्ति बंद हो जाती है.इसके फलस्वरूप शरीर के आकार में
कमी आ जाती है तथा शरीर की त्वचा में झुर्रियां आने लगती हैं.परंतु त्रासदी इस बात
की भी है कि इस प्रकार की प्राकृतिक प्रक्रिया के कारण होने वाले शारीरिक
परिवर्तनों को आयुवाद की सीमा में बंद करने की चेष्टा की जा रही है.यह प्रवृत्ति
एक प्रकार का सामाजिक तथा मानसिक अपराध ही
है.
किसी भी व्यक्ति की उम्र का
बढ़ना उसके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है.मानव के पैदा होते ही उसकी प्रक्रिया
शुरू हो जाती है.अतः वृद्ध होने पर ही इसका आतंक क्यों बढ़ता है? एक समय था जब भारत
के गांवों में यह कहावत प्रचलित थी कि जहाँ बुजुर्ग लोग नहीं होते हैं वहां काम
नहीं बन पाता है.दूसरी ओर आज की परिस्थिति यह है कि सामाजिक विघटन की वजह से ऐसी
कहावतों को न कोई मानता है और न ही महत्त्व देता है.
इन परिस्थितियों के लिए
शायद बढ़ती महंगाई भी कुछ हद तक जिम्मेवार है.संयुक्त परिवार को केंद्रित परिवार में
परिवर्तित करने में भी इसकी भूमिका रही है.इसी वजह से निर्धन तथा मध्य वर्ग के परिवारों
के लिए अपने बुजुर्गों पर होने वाले मामूली खर्चे को भी बोझ महसूस किया जाता
है.बुजुर्गों की उपस्थिति को ही वे मानसिक तनाव का स्रोत समझने लगते हैं.हालाँकि
सरकारी सेवा से निवृत्त व्यक्ति तो फिर भी पेंशन से अपना गुजारा कर लेते हैं,परंतु
उनकी दशा सोचनीय रहती है जिनके पास कोई वित्तीय साधन या सहारा नहीं होता.
बुजुर्गों की समस्याएँ न
केवल भारत एवं अन्य विकासशील देशों में हैं बल्कि पूरी दुनियां में उनकी समस्याएँ
बढ़ रही है.विकसित देशों में तो ‘ओल्ड एज होम’ बहुत पहले से रहा है,अब भारत जैसे देशों
में भी इनकी स्थापना हो चुकी है,जहाँ बेसहारा एवं अपनों से उपेक्षित बुजुर्गों की
संख्या बढ़ रही है.
महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है
कि जिन्होंने अपना उर्जावान समय समाज को दिया,आज उन्हीं को प्रेम तथा आदर-सत्कार
से वंचित रखना अपराध नहीं.यह तो उनका अधिकार ही है.वर्तमान समय में यह जरूरी है की
बुढ़ापे को सक्रिय तथा गतिशील बनाया जाए.साथ ही इस बात की भी आवश्यकता है कि वरिष्ठ
नागरिकों या बुजुर्गों को उचित सम्मान एवं अधिकार मिले.उनको संरक्षण प्रदान करना न केवल जरूरी है बल्कि समाज की जिम्मेवारी भी है.
सुंदर लेखन व प्रस्तुति , धन्यवाद !
ReplyDeleteInformation and solutions in Hindi ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
इन परिस्थितियों के लिए शायद बढ़ती महंगाई भी कुछ हद तक जिम्मेवार है.संयुक्त परिवार को केंद्रित परिवार में परिवर्तित करने में भी इसकी भूमिका रही है.इसी वजह से निर्धन तथा मध्य वर्ग के परिवारों के लिए अपने बुजुर्गों पर होने वाले मामूली खर्चे को भी बोझ महसूस किया जाता है.बुजुर्गों की उपस्थिति को ही वे मानसिक तनाव का स्रोत समझने लगते हैं.हालाँकि सरकारी सेवा से निवृत्त व्यक्ति तो फिर भी पेंशन से अपना गुजारा कर लेते हैं,परंतु उनकी दशा सोचनीय रहती है जिनके पास कोई वित्तीय साधन या सहारा नहीं होता.
ReplyDeleteरिश्तों में गर्माहट की कमी बहुत बड़ी वजह लगती है मुझे ! इतना लगाव नहीं रह गया है कि उनकी जरुरत महसूस होती हो ! बहुत ही सार्थक लेख लिखा है आपने श्री राजीव जी !
सार्थक सटीक आलेख ।
ReplyDeleteदेहात्मक बुद्धि से प्रेरित आयुवाद और वरिष्ठ नागरिक समान परस्पर विरोधी हैं इसीलिए सम्मान अब सामान हो गया है बुढ़ापे का।
ReplyDeleteUttam aur saarthak lekh
ReplyDeleteसुंदर और विचारात्मक लेख... बुजुर्गों के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता आज के दौर का कड़वा सच है. बुजुर्गों के प्रति उनके अपने ही परिवारों में उपेक्षा का भाव तेजी से पनपा है जो दुखद और चिंतनीय है. बचपन में जो जिन हाथों ने हमारी नन्हीं उँगलियाँ पकड़कर हमें अपने पैरों पर खड़ा होना और चलना सिखाया, जीवन की ढलती सांझ में उन्हें सहारा देने का दायित्व हमारा है.
ReplyDeleteचिंतनीय विषय .... हालात सच में विचारणीय हैं
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteदिनांक 9/10/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
आभार.
Deleteआज यह सोचने-समझने का समय नहीं लोगों के पास कि एक दिन सबको उसी राह से गुजरना है फिर क्यों नहीं अच्छे से रहें सबके साथ विशेषकर बुजुर्गों के साथ ..
ReplyDeleteगंभीर चिंतन भरी प्रस्तुति
सार्थक आलेख।
ReplyDeleteबहुत ही विचारणीय लेख …
ReplyDeleteवर्तमान में जो बुजुर्गों के प्रति अनादर भाव जन्म ले रहा है वह समाज और पीढ़ी को गर्त में ले जा रहा है --
ReplyDeleteसार्थक और विचारणीय आलेख
मन को नाम कर गया
उत्कृष्ट
सादर
शरद का चाँद -------
सार्थक ,समयानुकूल विचारणीय लेख ! साधुवाद !
ReplyDeleteबहुत ही विचारणीय पोस्ट है ..बुजुर्गों का आदर सम्मान तहे दिल से होना चाहिए क्योंकि वो इस सब के हकदार हैं उन्होंने वो जिन्दगी जी है जो किसी भी युवा के लिए असम्भव है उनको अपनी पीढ़ी का भरपूर अनुभव है जो हम सभी के लिए अमूल्य है.
ReplyDeleteसबसे बड़ी बात ये की हमारी संस्कृति किसी भी इंसा का अनादर करना नही सिखाती.
मेरे ब्लॉग तक भी आइये, अच्छा लगे तो ज्वाइन भी करें : सब थे उसकी मौत पर (ग़जल 2)
सार्थक चिंतन ! बुजुर्गों की शोचनीय सामाजिक व पारिवारिक स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित कर आपने बहुत नेक काम किया है ! अपने ही घर में अपने ही परिवार के बुजुर्गों की उपेक्षा करना इस बात का प्रमाण है कि नयी पीढ़ी अपसंस्कृति का शिकार होती जा रही है और सुसंस्कार तथा नैतिक मूल्यों का तेज़ी से ह्रास हो रहा है !
ReplyDeleteएक बढ़िया लेख के लिए आभार आपका !
ReplyDeletehttp://satish-saxena.blogspot.in/2014/02/blog-post_3.html
Bahut hi gambeer vishay .. Chitanniye ... Bujurgo baccho ki tarah sneh aur sambhaal ki zarurat hoti hai ... Aur wo triskrit hote hain... Logo ke pass smy nhi ki apni mouj masti se baahar nikal iss par bhi dhyaan dein ... Bahut hi dukhad hai yah !!
ReplyDeleteसार्थक चर्चा....
ReplyDeleteसमाज की ये प्रथा अच्छी थी की बच्चों का ध्यान माँ बाप और माँ बाप का ध्यान बच्चे रखते थे ... अब अगर अपने लिए सब काम करेंगे तो शायद आने वाली पीड़ी से कुछ ध्यान हट जायगा ... सब को अपने लिए सोचना पढ़ेगा .... इसका फर्क पढने वाला है समाज पर ....
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ReplyDeleteबहुत सुन्दर है।
भाव भी अर्थ भी और अपने परिवेश के प्रति लगाव और विश्वाश भी।
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