Thursday, January 29, 2015

तिब्बती साहित्य की रहस्यमयी लेखिकाएं




अलेक्जेंड्रा डेविड नील
तिब्बत आज भी रहस्यमय और अलौकिक विद्याओं का केंद्र माना जाता है.भारतीय योगी भी अपनी साधना के लिए हिमालय के दुर्गम और सामान्य मनुष्य की पहुंच के बाहर वाले क्षेत्रों को ही चुनते हैं.भारत और विशेषकर तिब्बत के प्रति विदेशियों की भी शुरू से ही रूचि रही है.दो महिला लेखकों ने तिब्बती साहित्य में अमूल्य योगदान दिया है.

अलेक्जेंड्रा डेविड नील सत्रह वर्षों तक तिब्बत में रही और इस अवधि में वे अनेक लामाओं,सिद्धों और तिब्बती तांत्रिकों से मिली.वे स्वयं भी अनेक विद्याओं में पारंगत हो गयीं और फलतः तिब्बतियों ने उन्हें ‘लामा’ की उपाधि से अलंकृत किया.अलेक्जेंड्रा मूलतः बेल्जियन,फ्रेंच महिला थीं,उनकी ख्याति 1924 में तिब्बती राजधानी ल्हासा के भ्रमण को लेकर भी है,जब ल्हासा पूरी दुनियां से अनजान था.

अलेक्जेंड्रा ने 30 से ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं,जिनमें यात्रा,आध्यात्मिक अनुभव,दर्शन आदि से सम्बंधित हैं.उन्होंने दो बार भारत की यात्रा की,1890-91 और पुनः 1911 में,बौद्ध साहित्य के अध्ययन के लिए.उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों में ‘विसडम फ्रॉम दि फॉरबिडन जर्नी’, 'इमोरटेलिटी एंड रिनकार्नेशन' और  ‘मैजिक एंड मिस्ट्री इन तिब्बत’ प्रमुख हैं.

उन्होंने अंतिम समय तक अपने सचिव सिक्किम के युवा भिक्षु योंगडेन,जिन्हें उन्होंने बाद में गोद ले लिया था, के साथ तिब्बत की कई रहस्मयी यात्राएं कीं और अंतिम समय तक लेखन कार्य करती रहीं.101 वर्ष की उम्र में फ़्रांस में 1969 में उनका निधन हुआ और उनके नाम पर पेरिस के उप शहर मैसी में एक सड़क का नामकरण किया गया ‘अलेक्जेंड्रा डेविड नील’. उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उनकी और योंगडेन के अंतिम अवशेष को आपस में मिलकर 1973 में बनारस में गंगा में प्रवाहित किया गया.

मैसी में अलेक्जेंड्रा के नाम की सड़क 
अलेक्जेंड्रा ने अपने अनेक पुस्तकों के माध्यम से पश्चिमी जगत को तिब्बत की समृद्ध अलौकिक परंपराओं से परिचित कराया.लामा अलेक्जेंड्रा डेविड नील का कहना है कि उन्होंने अपनी आँखों से अनेक तिब्बती तांत्रिकों को आकाश में उड़ते और पानी पर चलते देखा है.अनेक योगी कड़ाके की ठंढ में भी विवस्त्रावस्था में साधना रत रहते हैं.

अलेक्जेंड्रा की तरह ही एक और यूरोपीय महिला हैं - एलिस ए. बेली.उन्होंने भी तिब्बत की रहस्यमय विद्याओं पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं.बेली कभी भी तिब्बत नहीं गयीं,न उन्होंने तिब्बती विद्याओं के संबंध में कुछ पढ़ा,लेकिन तिब्बत विषयक उनकी पुस्तकें प्रामाणिक मानी जाती हैं.

बेली ने इसका स्पष्टीकरण दिया है.उनका कहना है कि तिब्बत के एक तांत्रिक लामा ‘खुल’ की आत्मा ने ही उनसे ये पुस्तकें लिखवायी हैं.इस संबंध में वे एक रोमांचक घटना का विवरण देती हैं.

एलिस ए. बेली
बेली का कहना है कि,एक दिन वे अकेले पहाड़ी रास्ते पर चली जा रही थी.सहसा उनके कानों में किसी के गीत के स्वर सुनाई दिए.फिर शून्य से आवाज आई.’मनुष्य जाति के कल्याण के लिए एक पुस्तक लिखना अत्यंत आवश्यक है,और यह कार्य आप बखूबी कर सकती हैं.’

बेली भय से सिहर उठीं.उन्होंने घबराकर चारों ओर देखा.उन्हें पुनः सुनायी दिया,घबराओ नहीं.यह कार्य तुम सफलतापूर्वक कर सकती हो.तीन सप्ताह का समय देता हूँ.सोच विचार कर यहीं उत्तर देना.तीन सप्ताह तक बेली ऊहापोह में पड़ी रही.अंत में उन्होंने अदृश्य शक्ति का आदेश मानने का निर्णय कर लिया.

तीन सप्ताह बाद वह उसी स्थान पर गयीं और अद्रश्य व्यक्ति द्वारा प्रश्न किये जाने पर उन्होंने उसके कहे अनुसार पुस्तक लिखने की तत्परता दर्शायी.

बाद में बेली को पता चला कि उस अदृश्य व्यक्ति का नाम खुल है.यह तिब्बती तांत्रिक बेली के मस्तिष्क में विचार पहुंचाता रहा और वह उन्हें लिखती जातीं.बेली के अनुसार तिब्बती तांत्रिक खुल की आत्मा परोपकार की भावना से कार्य करने वाले डाक्टरों,हकीमों और वैद्यों की सहायता करती है.वह उन्हें रोगी के स्वास्थ्य लाभ के लिए उपाय भी बताती हैं.

तिब्बती तांत्रिक खुल के निर्देशों के अनुसार एलिस ए. बेली ने पांच खंडोंवाली एक वृहद् पुस्तक लिखी.इस पुस्तक में रोगों की चिकित्सा के रूहानी उपाय बताये गए हैं.लेकिन हर व्यक्ति इन उपायों को नहीं समझ सकता.बेली का कहना है कि 1919 से 1949 तक लामा खुल की आत्मा विभिन्न लोगों का मार्गदर्शन करती रहीं.आज उनके ये शिष्य प्रचार से दूर रहकर परोपकार के कार्य में लगे हुए हैं.

Keywords खोजशब्द :- Alexandra David Neel,Alice A. Belly,Tibbetan Spiritual Writers

Friday, January 23, 2015

तुमने फ़िराक को देखा था

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आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हमसरो
उनको जब ये मालूम होगा तुमने फ़िराक को देखा था

फ़िराक द्वारा खुद के बारे में कही गयी ये पंक्तियाँ कितनी बेलौस और बेबाकी से कही गयी लगती हैं.

यह भी एक अजीब इत्तिफाक है कि जो दिन ऊपरवाले ने मुक़र्रर किया हिंदी-उर्दू की अजीम शख्सियत को अपने पास बुलाने के लिए,उसी दिन मशहूर हास्य अभिनेता केश्टो मुखर्जी और बदनाम डाकू छविराम को भी अपने दरबार में बुलाया.जाहिरा तौर पर तीनों में कोई संबंध नहीं है.एक रुबाइयों की नाजुक भीनी बदली में लिपटी रूह है,दूसरी कहकहों की आवाज का लिबास पहने है तो तीसरी यमदूतों की बराबरी करने वाला काली लिबास में मुंह छिपाए है.

क्या कहकहों,डकैती और अपराधों में और नाजुक ख्याली में कोई भीतरी संबंध है? संबंध तो है.क्योंकि ये तीन रंग आत्मा के हैं.जुंग कहता है कि जो असत् है वह चार चेहरों वाला है और जो सत् है उसके तीन चेहरे हैं.असत् हरदम इस कोशिश में रहता है कि उसे सत् समझा जाये.इसके लिए वह अपना एक चेहरा छुपा लेता है.

वह चौथा चेहरा उस साधारण आदमी का हो सकता है जिसमें इन तीनों के गुण नहीं,मगर जिसमें ये तीनों रहते हैं.कोमल अहसास बन कर,हंसी बन कर और भय बन कर.उस गली-मुहल्ले के आदमी को भी इन विशिष्ट लोगों के साथ अपनी वादी में वहीँ जगह देकर मौत जिंदगी की उस तस्वीर को पूरा कर देती है,जिसे खुद जिंदगी पूरा नहीं कर पाती.ये चारों कभी इकट्ठे नहीं हो सकते.और इकट्ठे न होंगे तो जिंदगी के टुकड़े कहलाएंगे,जिंदगी नहीं.

फ़िराक भी जिंदगी का एक ऐसा ही टुकड़ा था जो जिंदगी न हो पाया.फ़िराक कभी जिंदगी जी न सका........

उम्र फ़िराक ने यूँ ही बसर की
कुछ गमें दौरा कुछ गमें जाना

अनुभूतियाँ कुछ इतनी तेज मिली थीं कि अक्सर शामो-सुबह के रंग,फूलों की खुशबू या तो इंतहा गम जगा देते थे या इंतहा ख़ुशी इतनी कि,जिंदगी बर्दाश्त के बाहर हो जाती थी.खुद फ़िराक ने अपने बचपन का जिक्र करते हुए कहा है कि मामूली-मामूली बातें जो औरों के लिए कोई मायने नहीं रखतीं उसके मासूम बचपन पर ही भारी होने लगी थीं.

कविता की देवियों ने बचपन में ही उसके दिल की खिड़की पर अपनी भोली सूरतें दिखाना शुरू कर दिया था,इस तरह कि कुमार रघुपति ठगा सा रह जाता था.अक्सर अपने को औरों से अलग देखकर उसका दिल होता,कहीं छुप जाऊं.उसे इतनी शर्म घेरे रखती कि,खुद उसके शब्दों में,’एक झाड़ू की तरह’ वह सबकी नज़रों से छुपकर ही घर में जीना चाहता था.

मगर जिंदगी अपनी छेड़खानियों से कहाँ बाज आती है.जिसे उसकी अनुभूतियाँ,तीखे दर्द,अनोखी चाहें खुद अपने से,अजनबी बनाए दे रहे थे.उसे शब्दों ने एक सुंदर मूर्ति की शक्ल में ढाल दिया.जिसने भी सुना बोला,यह कौन है,यह कौन है? मीर के बाद रेखती ने यह कैसा सिंगार किया है.ये गंधर्व बालाएं कब से उर्दू बोलने लगीं? ये कालिदास की यक्षणियां कैसे अपने यक्षों को ढूंढने आ गयीं.

दूर-दूर से लोग मिलने आने लगे,कोई फ़िल्मी दुनियां से कोई पत्रिकाओं से,कोई विद्वता की धूल से उठकर,कोई दिल के शोरों से घबराकर.मगर इनमें वह अभिन्नता कहाँ थी जो उस ‘लज्जित झाड़ू’ को सहारा देती.वे तो एक जीनियस से मिलने आते थे जैसे लोग अजायबघर में जाते हैं अजीब चीजें देखने.और इतने मिलने वालों की भीड़ के बीच भी अकेली रह गयी जो,वह फ़िराक की आत्मा तड़पकर बोली एक दिन.....

‘मिल आओ फ़िराक से भी एक दिन
वह शख्स एक अजीब आदमी है'

निजी जिंदगी से न कुछ लिया न कुछ दिया.जो पत्नी मिली उसके लिए खुद फ़िराक के शब्दों में,’पाव भर सत्तू खाकर एक कोने में लिपटे रहना ही स्वर्ग था.’जीवन के दुर्लभ सौन्दर्य की न उसे अनुभूति थी न आवश्यकता.उसने नारी की न जाने कैसी मूरत फ़िराक की निजी जिन्दगी में रख दी कि उम्र भर नारी ने फिर कभी आकर्षित नहीं किया.नारी का सौंदर्य,कोमलता,मातृत्व और मधुर अनुभूतियों से महकता रूप उसकी कल्पना में हमेशा खिला रहा.......

लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे
दोशीजाए सुबह गुनगुनाए जैसे
ये रूप ये लोच ये तरन्नुम ये निखार
बच्चा सोते में मुस्काए जैसे 

काश कि फ़िराक ने उस साधारण गली-कूचे के आदमी की सूरत से अपनी सूरत मिलाई होती.शायद तब उसे उसकी सत्तू खाकर ऊंघने वाली,संवेदनाहीन के दिल में छुपे उस खजाने का पता चलता जो फ़िराक की तरह बहुमूल्य तो न था,मगर इतना मूल्यवान जरूर था कि उसके अभाव में फ़िराक की अपनी जिंदगी रुक गयी,ठिठक गयी,घुट गयी.वह उन अनुभूतियों को न जी सका जो नारी ने छेड़-छेड़कर उसकी कल्पना में भर दी.

फ़िराक मीर की तरह खुद नारी से प्रेम की वह जिन्दगी न जी सका,जिसके बिना उसका निजी जीवन बिना बदली का सावन बन गया.मगर उसकी संवेदना मुखर थी.जो औरों ने जिया उसे संवेदना के जरिये खुद अपने पर गुजरे जैसा महसूस करने की शक्ति उसे प्रकृति ने दी थी.

अंग्रेजी कवि यीट्स ने कहा भी है : ‘जो जिन्दगी को भुगतता है और जो उसे महसूस कर चित्रित करता है दरअसल दो अलग-अलग हस्तियाँ हैं.’ 

फ़िराक इन दोनों हस्तियों में दूसरी तरह की हस्ती बन गया.निजी जिंदगी के आँगन पर ज्यों-ज्यों साए लंबे होते गए जीने की अबूझ ललक ने सारी धूप जिंदगी के घर के आगे फैली दूर-दूर तक जाती सड़क पर ले ली.सड़क गुलजार थी,रोज नये-नये चेहरे थे.फ़िराक के घर में रौशनी न सही इनके चेहरों पर तो जिंदगी की धूप थी.दीवानों के लिए इतना ही काफी था......

घर छोड़े हुओं को कोई मंजिल न सही
होती नही सहल कोई मुश्किल न सही
हस्ती की एक रात काट देने को
वीराना सही तेरी महफ़िल न सही 

यह भी एक अजीब इत्तिफाक था या फिर इसके पीछे भी प्रकृति की किसी बज्मे अदब का बुलावा होगा कि फ़िराक की मौत से एक हफ्ते पहले उसका सबसे अजीम दोस्त ‘जोश’ मलीहाबादी चल बसा.इस जोश ने उसे बहुत दुःख दिया था-एक बार बदगुमा होकर और दूसरी बार पाकिस्तान जाकर.मगर इस तरह चले जाने कहीं बंधन टूटते हैं दिल के.

तीसरी बार जब जोश इस दुनियां को भी अलविदा कह गया तो फ़िराक चुप था.एक लंबी बीमारी में दरो-दीवार देखते-देखते आँखें पथरा चुकी थीं.एक झोंक आयी तबियत में और चादर जिस्म पर डाल वह हजारों को रौनक देने वाला सौंदर्य का मासूम बेटा,अपनी मां के पवित्र सौंदर्य को देखता-देखता चला गया.........

‘अहले रिंदा की वो महफ़िलें सबूत हैं इसका फ़िराक
कि बिखर कर भी यह शीराजां परेशां न हुआ' 

वियोग को फ़िराक ने उपहार बना दिया.’कफस की तीलियों से छनता नूर’ इस कदर खूबसूरत है कि वस्ल की चमक फीकी लगती है.फ़िराक ने प्रेम के विनाश को सुंदर बनाया है.उसकी यह चेष्टा कहीं-कहीं जादुई भव्यता की और ले गयी है,उस सीमा तक जहां से काव्य सौन्दर्य को खुद अपना पता नहीं रहता.......

मौत रात एक गीत गाती थी
जिंदगी झूम-झूम जाती थी 

कौन सा वह आश्वासन था जो प्रकृति ने दिल ही दिल में उसे दे दिया था.कौन सा वह अमृत था जो निराशा और एकाकीपन में बिखरकर भी उसकी जिंदगी का शीराजां कभी परेशां न हुआ.हर रोज केशों की तरह दुःख के बादलों को झटककर उसकी जिंदगी का चाँद चमक आता था और लंबे-चौड़े नभ पर अपनी अनंत यात्रा को ही मंजिल मान चलता रहा......

‘एक लिली की तरह खिली काई भरे
पत्थर के किनारे किसी
एक तारे की तरह सुंदर सरल जो
अकेला था आसमान पर’

‘विलियम वर्ड्सवर्थ’ की ये पंक्तियाँ फ़िराक को बहुत प्रिय थीं.क्या कोई छिपा हुआ संदेश था कि मौत के बाद उसकी समाधि पर उसके लिए ही ये दो पंक्तियाँ लिख दी जाएं?

Keywords खोजशब्द :- Firaq Gorakhpuri,Nazm and Shayari of Firaq

Saturday, January 17, 2015

लोकतंत्र बनाम कार्टूनतंत्र

आर.के. लक्ष्मण  का  कार्टून 

पिछले दिनों फ्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली हेब्दो’ के संपादक और कार्टूनिस्ट की हत्या ने एक नई बहस छेड़ दी है कि अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा क्या हो? लोकतंत्र में ही कार्टूनतंत्र फलता-फूलता है. लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है और हर किसी को अपनी बात कहने का हक़ है भले ही माध्यम अलग-अलग क्यों न हो.लेकिन जहाँ धर्म का मसला आता है वहां सभी मुद्दे गौण हो जाते हैं.

आज की पत्र-पत्रिकाओं में मुद्रित कार्टूनों को देखकर पाठकों के होठों पर एक पल के लिए मुस्कान बिखर जाती है.मगर आज से लगभग दो सौ वर्षों पूर्व यह स्थिति नहीं थी.क्योंकि,उस समय पत्र-पत्रिकाओं में कार्टूनों का नामोनिशान नहीं होता था.

कहा जाता है कि कार्टूनों का जन्म अमेरिका के स्वाधीनता-संग्राम के दौरान हुआ था और औद्योगिक क्रांति के समय यूरोप में परवान चढ़ा.गुलाम अमरीकियों में राजनीतिक चेतना जगाने के लिए पॉल रिवेरी नामक चित्रकार द्वारा प्रवर्तित यह कला आज दुनियां भर के लोगों में राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना जगाने में व्यस्त है.
आर. के. लक्ष्मण का कार्टून 
चूंकि,कार्टूनों का उपयोग व्यवस्था का विरोध करने के लिए किया गया,इसलिए कुछ लोग प्रारंभ से ही कार्टूनकार को ‘एंटी एस्टेब्लिशमेंट’ मानते हैं.कार्टूनकारों को जन्म देने में लोकतंत्र द्वारा निभायी गयी भूमिका को देखते हुए यह आशा भी की जा सकती है जब तक लोकतंत्र की पौध को राजनीतिज्ञ प्रेम से सींचते रहेंगे,तब तक कार्टूनतंत्र भी फलता फूलता रहेगा.

इटली में पहले-पहल इन चित्रों को ‘केरिकेतुरा’ कहा गया.अंग्रेजों ने इन्हें ‘केरिकेचर’ तथा अमरीकियों ने ‘कार्टून’ कहा.उन दिनों ये कार्टून मोटे पेपर पर छपकर,बिना पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम के,स्वयं ही जनता के बीच लोकप्रिय होते रहे.इसके अनेक वर्षों के बाद कार्टून ‘न्यूयार्क टाइम्स’ तथा ‘हार्वर्स वीकली’ जैसे पत्रों में छपने लगे.

पहले,इन कार्टूनों में सामाजिक बुराइयों को ही प्रमुखता मिली.ऐसा मानने का ठोस आधार यह है कि कार्टून कला की उत्पत्ति हुए जहाँ दो शताब्दियाँ गुजर गई हैं,वहां राजनीतिक कार्टून सिर्फ सौ वर्ष पुराने ही मिलते हैं.’स्ट्रिप कार्टूनों’ की उम्र तो अभी मात्र ८५ वर्ष मानी गई है.

कार्टून की पहली और अंतिम शर्त हास्य-व्यंग्य ही होती है.जिस चित्ताकर्षक चित्र का शीर्षक एक वाक्य का हो,उसे ही ‘कार्टून’ कह सकते हैं.इस कसौटी पर देखा जाय,तो आज जो कार्टून के नाम पर छापा जा रहा है,उसमें अधिकांश को कार्टून माना ही नहीं जा सकता.जिस कार्टून को देखते ही हंसी आ जाती हो,जिसे शीर्षक या ‘डायलॉग’ देने की जरूरत नहीं पड़ती हो ,उसे उत्कृष्ट श्रेणी का कार्टून माना जाता है.अधिकांश कार्टूनों में यह भी देखा जा रहा है कि पाठकगण कार्टून को नजरंदाज कर सिर्फ शीर्षक पढ़कर हास्य-व्यंग्य का मजा लेते हैं.मगर इस तरह के चुटकुले ‘कार्टून’ नहीं हुआ करते.चित्र एवं शीर्षक के बीच अटूट संबध होना चाहिए.

कार्टून दो प्रकार के होते हैं-राजनीतिक अवं सामाजिक.इन दोनों  प्रकारों के कार्टूनों में जो व्यंग्य प्रयुक्त किया जाता है,वह भी मुख्यतः दो तरह का होता है- श्रृंगारमिश्रित व्यंग्य तथा करूणामिश्रित  व्यंग्य.राजनीतिक कार्टून प्रायः तीखे व्यंग्य से सने होते हैं.इसे कार्टून विधा की तीसरी श्रेणी कह सकते हैं.

दैनिक समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर छपने वाले ऐसे राजनीतिक कार्टून उन पत्रों के नीतिगत प्रवक्ता भी होते हैं.इसलिए राजनीतिक कार्टूनकारों में एक संपादक के जितनी राजनीतिक सूझबूझ एवं पत्रकारिता की उत्कृष्ट जानकारी पायी जाती है.शंकर,अबू,आर.के. लक्ष्मण,सुधीर जैसे कार्टूनकारों को मिली लोकप्रियता इसका प्रमाण है.

ज्वलंत समस्याओं पर आम आदमी को केंद्रित कर बनाया गया कार्टून जहाँ करूणामिश्रित हास्य-व्यंग्य उत्पन्न करता है ,वहीँ श्रृंगार रस के कार्टून मुख्यतः प्रेमी-प्रेमिकाओं तथा पति-पत्नी के संबंधों पर बनाये जाते हैं.

स्ट्रिप-कार्टूनों के क्षेत्र में हम अब भी पिछड़े हैं.अधिकांश पत्र-पत्रिकाएं स्ट्रिप-कार्टूनों के लिए धन खर्च करने की स्थिति में नहीं होती.आर्थिक रूप से सुदृढ़ बड़े प्रकाशन समूहों की पत्र-पत्रिकाओं में भारतीय की जगह विदेशी फीचर्स सिंडिकेटों की ‘ब्लांडी’,’मट एंड जेफ़’ एवं बीटल जैसी कार्टून-स्ट्रिप छापती हैं.फीचर्स सिंडिकेटों से प्राप्त स्ट्रिप कार्टूनों में उत्कृष्टता नहीं होती.’यंग एंड रेमंड’ की ‘ब्लांडी’ अब तक लगभग विश्व की 1300 से भी अधिक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी है.इस दिशा में भारत को भी अपना योगदान देना चाहिए.

यहाँ कार्टूनकारों के समक्ष एक मुख्य समस्या आर्थिक भी है.कुछ बड़े पत्रों को छोड़कर हिंदी के अधिकांश पत्रों में न कोई कार्टूनकार फ्रीलांसिंग कर आर्थिक स्थिति को बेहतर कर सकता है और न ‘स्टाफर’ होकर ही.अधिकतर हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में कार्टूनों का उपयोग ‘फिलर’ के तौर पर किया जाता है.

अतः कार्टूनों का स्तर उठाने के लिए यह जरूरी है कि एक स्वतंत्र तथा विकसित विधा के रूप में ही इसका उपयोग हो.कार्टूनकारों को पर्याप्त पारिश्रमिक भी मिलना चाहिए.

Keywords खोजशब्द : cartoon,story of cartoon,

Tuesday, January 13, 2015

गुमशुदा बौद्ध तीर्थ

स्तूप का अवशेष 


उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद का संकिसा गाँव बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण तीर्थ होने के साथ ही एक अति प्राचीनकालीन महानगर रहा है,जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के आदिकांड के पचीसवें सर्ग में मिलता है.इसके पास में बहने वाली वर्तमान काली नदी उस समय इक्षुमती नाम से जानी जाती थी.
मिथिला के राजा जनक अपने पुरोहित शतानंद से कहते हैं.......

भ्राता मम महातेजा वीर्यवानति धार्मिकः
कुशध्वज इति ख्यातः पूरीम धवसच्छुभाम ||
वार्या फलक पर्यतां पिवन्निक्षमती नदीम |
सांकाश्यां पुण्य संकाशां विमानमिव पुष्पकम् ||

(महातेजस्वी पराक्रमी अति धार्मिक मेरे भाई कुशध्वज सुंदर संकाश्य नगरी में हैं.वह नगरी आक्रमण को रोकने के लिए चारदीवारी की ढाल से सुरक्षित है.उस नगरी में से होकर इक्षुमती नदी बहती है.जिसका मधुर जल कुशध्वज पीते हैं और वह नगरी पुष्पक विमान के समान सुखदायिनी है.)

पाणिनि की अष्टाध्यायी और चीनी यात्री फाह्यान एवं ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में इस नगर का  सविस्तार विवरण मिलता है.
बुद्ध के साथ ब्रह्मा एवं इंद्र की मूर्ति 
बौद्ध साहित्य में  सांकाश्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है,क्योंकि भगवान् बुद्ध यहाँ स्वर्ग से सीढ़ी द्वारा उतरे थे.बौद्धों की प्राचीन मान्यता के अनुसार भगवान् बुद्ध अपनी माता महामाया को धर्म का उपदेश देने के लिए त्रयस्त्रिंश स्वर्ग गये थे.पारिजात वृक्ष के नीचे पांडु कंबल शिलासन पर बैठे उन्होंने अपनी माता को सम्मुख कर सभी उपस्थित देवों को तीन माह तक धर्म का उपदेश दिया.वर्षाकाल समाप्त होने पर आश्विन पूर्णिमा के दिन वे सांकाश्य नामक स्थान में पृथ्वी पर उतरे.

उस समय देवताओं ने सांकाश्य में तीन बहुमूल्य सीढ़ियाँ लगा दीं,जो क्रमशः मणियों,सोने और चांदी की थी.इस प्रकार भगवान् बुद्ध सद्धर्म भवन से चलकर देव मण्डली के साथ बीच वाली सोने की सीढ़ी से उतरे,उनके साथ दायीं ओर ब्रह्मा चांदी की सीढ़ी पर चंवर लेकर एवं बायीं ओर इंद्र बहुमूल्य छत्र लेकर मणियों वाली सीढ़ी से उतरे.उस समय उनके दर्शन के लिए देश-देशांतर के राजा एवं जनता इकट्ठी हुई.

साँची स्तूप के उत्तरी तोरण द्वार के खंभे पर बुद्ध अवतरण की घटना पत्थर पर खुदी हुई चित्रित है.इसमें ऊपर से नीचे तक एक लम्बी सीढ़ी लगी दिखाई गयी है.ऊपर और नीचे की दोनों सीढ़ियों पर वज्रासन और बोधिवृक्ष बने हैं.यह दिखाने की कोशिश की गयी है कि भगवान बुद्ध भूमि पर आ गये हैं.

देवावतरणकी यह घटना भगवान् बुद्ध के जीवन काल की अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक मानी गयी है और सांकाश्य का नाम उन आठ महातीर्थों में से एक माना जाता है, जहाँ बौद्ध लोग अपने जीवन में एक बार अवश्य जाना चाहते हैं.आठ महातीर्थों में यही ऐसा स्थान है,जो लगभग अज्ञात सा है.

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि भगवान् बुद्ध के उतरने के बाद ये सीढ़ियाँ कई शताब्दी तक दिखायी देती रहीं और बाद में लुप्त हो गयीं.सम्राट अशोक स्वयं सांकाश्य में पधारे थे.उन्होंने इस सीढ़ियों वाले स्थान को यहाँ तक खुदवाया कि नीचे पीले पानी का सोता निकल आया लेकिन सीढ़ियों का कोई पता नहीं चला.तब उन्होंने निराश होकर उसी स्थान पर रत्नजड़ित ईटों तथा पत्थर से वैसी ही सीढ़ियाँ,जिनकी ऊंचाई 70 फुट की बताई गयी है,बनवायीं और उनके ऊपर बौद्ध विहार बनवाया जिसमें भगवान बुद्ध की मूर्ति और अगल-बगल सीढ़ियों पर ब्रह्मा एवं इंद्र की पत्थर की मूर्तियाँ बनवायीं.

सीढ़ियों के पश्चिम की ओर थोड़ी ही दूर पर चारों ओर भगवान बुद्ध के बैठने-उठने के चिन्ह बने हुए हैं.इनके निकट ही दूसरा स्तूप है,जहाँ पर स्वर्ग से उतरने के तुरंत बाद तथागत ने स्नान किया.इसी स्थान पर एक मीनार के होने का भी वर्णन मिलता है,जहाँ सबसे पहले शाक्य वंश की राजकुमारी उत्पल वर्षा को बुद्ध के दर्शन मिले थे.

मौर्य सम्राट अशोक तथा उनके पश्चात के राजाओं ने अनेक भवन आदि बनवाये.कहा जाता है कि गाँव के लोगों ने आज तक मकान बनाने केलिए पक्की ईटें एवं मूर्तियाँ नहीं खरीदीं,बल्कि खेत में हल चलाते हुए, भराव के लिए मिट्टी खोदते समय बरसात में टीला धंसने आदि से ईटें एवं मूर्तियाँ मिल जाती हैं.


स्तंभ 
शेरवाले स्तंभ शीर्ष के पूर्व में एक प्राचीन मंदिर का भग्नावशेष है,जिसे अब विषहरी देवी का मंदिर कहा जाता है.वर्तमान में हाल में बने इस छोटे से मंदिर में कोई प्राचीन मूर्ति न होकर एक छोटी सी देवी की मूर्ति है,जिसे विषहरी देवी माना जाता है.यहाँ श्रावण माह में बड़ा देवी मेला लगता है.देवी के प्रति दूर-दूर तक जन–सामान्य में यह आस्था है कि किसी विषैले कीड़े के काटे हुए व्यक्ति को यहाँ पहुँचाने पर विषहरी देवी की कृपा से शीघ्र लाभ मिलता है.विगत कुछ वर्षों में इस मंदिर को लेकर बौद्धों और सनातनी हिंदुओं में विवाद भी रहा है.

इसमें कोई संदेह नहीं सांकाश्य धर्म,शिक्षा,व्यापार आदि की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण नगर रहा होगा,जिसकी प्रसिद्धि सुनकर चीनी यात्री भी यहाँ पहुंचे थे,जबकि यात्रा करना काफी दुरूह था.समय बीतने के साथ यह नगर बिलकुल नष्ट हो गया और इसके स्थान का पता तक नहीं रहा.

1842 में अंग्रेज जनरल कनिंघम ने अपने दौरों के बीच सांकाश्य को खोज निकाला.उन्होंने सांकाश्य की पहचान संकिसा गाँव से की.बौद्धों के तीर्थ स्थल होने के साथ-साथ संकिसा हिंदुओं के लिए भी एक पवित्र स्थान है.

Keywords खोजशब्द :- संकिसा,सांकाश्य,देवावतरण,बुद्ध 

Friday, January 9, 2015

सच ! जो सामने आया ही नहीं

कास्पर हाउजर

व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंधों को स्पष्ट करने के लिए राजनीति शास्त्र और समाजशास्त्र विषयक पुस्तकों में कई उदाहरण दिए जाते रहे हैं कि किस तरह समाज से बाहर पलने वाले व्यक्तियों  में मानवोचित गुणों का विकास नहीं हो पाता है.जन्म के समय बच्चा एक प्राणीशास्त्रीय जीव मात्र होता है और उसके समाजीकरण एवं व्यक्तित्व के विकास के लिए समाज का होना आवश्यक है.

इस संदर्भ में अन्ना,भेड़िया बालक रामू,कमला और कास्पर हाउजर का जिक्र अक्सर होता रहा है.लेकिन उसके बारे में सिर्फ यही जानकारी दी जाती है कि 1828 में न्यूरेमबर्ग में सत्रह वर्ष के बच्चे कास्पर हाउजर का पता चला जिसे संभवतः राजनीतिक कारणों से मानव संपर्क से अलग कर दिया गया था.समाज के संपर्क के अभाव के कारण उसमें मानवोचित गुणों का विकास नहीं हो सका. लेकिन,पौने दो सौ साल बाद भी क्या कास्पर हाउजर की गुत्थी सुलझ सकी है?

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में एक किशोर के कारण पूरा यूरोप विचित्र किस्म की चर्चाओं से घिर गया था.शायद ही कोई पढ़ा-लिखा घर होगा,जहाँ ये चर्चाएं न हुई होंगी.

26 मई 1828 को जर्मनी के न्यूरेमबर्ग के खूबसूरत शहर में खून से लथपथ सोलह वर्षीय कास्पर हाउजर दिखाई दिया था.उसने दावा किया कि अपनी उम्र का अधिकांश हिस्सा उसने एक छोटी सी कोठरी में कैद हुए बिताया था.उसके समकालीनों में अधिकांश का विश्वास था कि वह किसी राजवंश का एकलौता वारिस है और किसी ने जान-बूझकर उसका अधिकार हड़पने के लिए उसे बेनाम बना डाला था.कुछ लोगों का कहना था कि वह अपनी झूठी कहानी के बल पर यश प्राप्त करना चाहता है.
अंसबाख(जर्मनी) में कास्पर की मूर्ति
न्यूरेमबर्ग,में उस दिन एक धार्मिक उत्सव था.जब वह नगर में दिखाई दिया,उसके बदन पर धारीदार कपड़े लेकिन चीथड़ों की शक्ल में थे.सबसे पहले उसे शहर के एक मोची ने देखा था.बोलने में असमर्थ उसने मोची को एक चिठ्ठी दिखाई थी,जिस पर फौज की चौथी टुकड़ी के छठे दस्ते में कार्यरत एक कप्तान का  पता लिखा था.उसे कप्तान के पते पर पहुंचाया गया.

कप्तान के इंतजार में बिताये वक्त में वहां उपस्थित लोगो को पूरी तरह यकीन हो गया कि उसे बरसों मानवीय वातावरण से परे रखा गया था,क्योंकि वहां उसने जलती मोमबत्ती पर हाथ रख दिया था और जब हाथ जला तब वह जानवरों की-सी बोली में चीखा था.वह सिर्फ दो शब्द जानता था- नहीं मालूम ! दीवाल घड़ी से वह इतना घबरा गया था कि उसे एक जीवित जानवर समझकर वह घड़ी के पास भी नहीं गया.

कप्तान को देखते ही वह खुश तो जरूर हुआ,पर कप्तान उससे कुछ भी नहीं बुलवा सका था.दो चिठ्ठियाँ  जो उससे मिली थी,धोखाधड़ी लगती थीं.उसमें प्रार्थना की गयी थी कि उसे फौज में भर्ती कर लिया जाय और अगर नौकरी न दे दी जाय तो उसे मार डाला जाय !
सबसे विलक्षण पक्ष था,उसका सधे हाथों से लिखना- कास्पर हाउजर ! पर दूसरी बातों का उत्तर वह इतना ही दे पाया,’नहीं मालूम.’

उसके पैरों में बेड़ियों के निशान थे.पुलिस जेलर ने कहा था कि वह बिना अपनी जांघ सिकोड़े या हिलाये घंटों बैठ सकता है.पर खड़े होने होने में उसे कभी-कभी असह्य तकलीफ होती थी.उसे रोशनी की बजाय अंधेरा पसंद था.जल्दी ही वह किशोर लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गया,पर वह भीड़ से बिलकुल विचलित नहीं होता था,बल्कि चुपचाप अपने एक छोटे से काठ के घोड़े से खेलता रहता और घंटों तक घड़ी की टिकटिक ताकते हुए आनंदित होता रहता था.

बहुत बचपन में,जहाँ तक कास्पर हाउजर को याद था,उसे एक अँधेरी कोठरी में कहीं जंगल के बीच में कैद कर लिया गया था.उसे खुद भी मालूम नहीं था कि वह कहाँ से आया,मूल रूप से कौन था?पर जिस कोठरी में उसे कैद किया गया था,उसमें इतना ही जगह था कि वह पाँव पसारे सो सकता था,लेकिन कभी पूरी तरह खड़ा नहीं हो सकता था,कारण कोठरी या तहखाने की ऊंचाई बेहद कम थी.

इस कैद से छुटकारे के कुछ ही दिन पहले एक आदमी उसे तहखाने में दिखायी दिया था.उसी ने हाउजर को उसका नाम लिखना सिखाया था,उसी ने उसे दो-तीन वाक्य भी सिखाये थे.
फिर एक सुबह उसने खुद को खुले आसमान के नीचे राजमार्ग पर पाया.उसे मालूम ही न था कि किस दिशा में जाए.वाही अजनबी,जिसने उसे नाम सिखाया था,उसे न्यूरेमबर्ग छोड़ आया था.वह हाउजर को दिलासा दे चुका था कि जब वह बड़ा अच्छा सैनिक बनेगा तब उसे एक बड़ा घोड़ा दे देगा.

रातों रात कास्पर हाउजर की ख्याति न्यूरेमबर्ग से फैलकर पूरे देश में व्याप्त हो गयी और कुछ ही दिनों में पूरे यूरोप में.उसके अतीत के भी असंख्य दावेदार पैदा हो गये थे.न्यूरेमबर्ग अधिकारीयों ने उसे जेल से मुक्त कर अपने समय के प्रख्यात शिक्षाविद प्रोफ़ेसर जॉर्ज फ्रैड्रिक हाउजर को सौंप दिया.तभी एक हादसा हुआ कि प्रोफ़ेसर के घर में वह खून में लथपथ पाया गया.होश में आने पर उसने बताया कि कोई अजनबी आकर उसके सर पर प्रहार कर गया था.

लोगों को विश्वास हो गया था कि कास्पर हाउजर पर हमला उसी आदमी ने किया होगा,जिसने उसे अँधेरे तहखाने में बरसों कैद रखा.लिहाजा कास्पर हाउजर की सुरक्षा के कड़े प्रबंध किये गये.परंतु कुछ लोग ऐसे भी थे जो उसकी कहानी को बकवास मानते थे.उन्होंने नगर निगम पर आरोप लगाया कि वह ‘कास्पर हाउजर’ के बारे में सहानुभूति जगाकर लोगों से पैसा इकट्ठा कर रहे हैं और उस पैसे का गोलमाल कर रहे हैं.

1831 में एक अंग्रेज लार्ड स्टेनहोप ने उसमें दिलचस्पी दिखाई और उसकी आर्थिक मदद की. कास्पर हाउजर को लेकर वे यूरोप के बहुत से रजवाड़ों में घूमे.फिर तो रजवाड़ों में परस्पर कलह और द्वंद इस कदर बढ़े कि बहुतों को कास्पर हाउजर से रक्त-संबंधों के उन बयानों का खंडन करना पड़ा,जो अफवाहों के रूप में प्रचलित हो गये थे.कही-कहीं तो कई राजवंशियों को द्वंद-युद्ध में अपनी जानें भी गंवानी पड़ी.

लेकिन जैसे वह एकाएक न्यूरेमबर्ग में आया था,वैसे ही एकाएक उसकी मौत भी हो गयी.किसी ने उसे इस लालच में वह उसकी मां के बारे में सब-कुछ बताएगा,उसे पार्क में आने का निमंत्रण दिया,वहीँ उसे चाकू से मार डाला. 

कास्पर डॉ. मेयर को सिर्फ यही बता सका,चाकू ! पार्क,बटुआ,...दौड़ो,पकड़ो ! पुलिस ने पार्क का चप्पा-चप्पा छान मारा.सिर्फ वह बटुआ मिला जिसमें एक कागज था.उस पर उलटी सीधी इबारत लिखी थी जिसे शीशे के सामने ही ठीकठाक पढ़ा जा सकता था.हाउजर की तरह विचित्र था,वह कागज.”हाउजर ही बता सकता है कि मैं कौन हूं! कहाँ से आया...कैसा लगता हूं! मैं अमुक रजवाड़े से आया हूं..... मेरा नाम है...म ल ओ .” पार्क में बर्फ पर सिर्फ कास्पर हाउजर के पाँव के निशान थे.

डॉ. मेयर और पुलिस की खोजों का यह निष्कर्ष था कि यह सब कास्पर हाउजर का ही नाटक था.हाउजर की गलती से छूरा ज्यादा गहरे घुस गया था.जब तक वह होश में रहा,बहुत कोशिश की गयी कि वह स्वीकार कर ले ! पर मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व उसके शब्द थे- “यह मैंने खुद नहीं किया.”

पौने दो सौ बरसों से अधिक समय के बाद भी यह जिज्ञासा बनी हुई है कि आखिर कास्पर हाउजर का रहस्य क्या था ?

Keywords खोजशब्द :- Man and Society,Story of Kaspar Hauser,Human Society

Monday, January 5, 2015

बंदिशें और भी हैं



हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव के लिए शत शरद जीवित रहने की कामना की थी – ‘जीवेम शरदः शतम्’ और उसके लिए खान-पान,रहन-सहन आदि की एक आचार-संहिता तैयार की थी.उन्होंने कहा था कि शरीर से पूरा काम लें और उसे पूरा आराम दें.पूरी नींद सोएं और सूर्य निकलने से पहले उठें.

अंग्रेजी में कहावत है कि –

अर्ली टू बेड एंड अर्ली टू राइज
मेक्स ए मैन,वेल्दी ऐंड वाइज

(रात में जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठने से मनुष्य स्वस्थ,धनवान और बुद्धिमान होता है.)

लेकिन आज कुछ वैज्ञानिक इस ‘स्वर्ण-नियम’ को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानने लगे हैं.उनका कहना है कि पृथ्वी का वायुमंडल इतना दूषित हो गया है कि वातावरण में पायी जाने वाली ओजोन परत की तह भी नष्ट होने लगी है.फलस्वरूप प्रातःकालीन सूर्य की किरणों में जो अल्ट्रा-वायलेट किरणें शरीर के लिए लाभप्रद होती थीं, वे अब त्वचा-कैंसर पैदा कर सकती हैं.चिकित्सकों का कहना है कि पर्यावरण के दूषित होने से आज का आदमी रासायनिक विद्युत-चुम्बकीय और सोनिक प्रदूषण के गहरे सागर में तैर रहा है,जो उसके लिए प्राणघातक है.इसी तरह खाने-पीने की वस्तुओं के बारे में समय-समय पर हुई नयी खोजों ने भी तहलका मचा दिया है.

पिछले दिनों अख़बारों में निकला कि डाक्टरों ने चाय,कॉफ़ी और दूध को भी हानिप्रद माना है,क्योंकि इनसे शरीर में ‘कोलेस्ट्रोल’ की मात्रा बढ़ जाती है,फलस्वरूप ह्रदय-रोग और आँतों का  कैंसर हो सकता है.

यह बात चाय,कॉफ़ी और दूध तक ही सीमित होती तो गनीमत थी,लेकिन ऐसी अनेक नयी खोजों ने जीना ही हराम कर दिया है.कुछ डॉक्टरों ने मक्खन को स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बताया है तो कुछ ने अंडे को,कुछ ने मांस को तो कुछ ने चीनी को.ब्रिटेन के एक डॉक्टर ने बताया था कि नमक अधिक खाने से रक्त में सोडियम की मात्रा बढ़ती है और इससे आत्महत्या की प्रवृत्ति उत्पन्न हो सकती है.उन्होंने अपनी खोज में यही पाया है कि आत्महत्या करने वालों के रक्त में सोडियम की अधिक मात्रा पायी गयी.

कैंसर,ह्रदय रोग जैसे इस युग के ऐसे प्राणघातक रोग हैं जिनका भय रोगों को सताता रहता है.इन रोगों का पहले कोई विशेष लक्षण नहीं मालूम होता,जिससे पहले से बचाव किया जा सके.प्रायः लोगो का इनकी ओर तभी ध्यान जाता है,जब ये पूरी तरह उभर आते हैं और उस समय मनुष्य मृत्यु के कगार पर खड़ा होता है.अनेक नयी खोजें यह बताती हैं कि खाने-पीने की कितनी ही चीजें इन महारोगों के साथ जुड़ी हैं.

आज के वैज्ञानिकों ने खाने-पीने की चीजों के संबंध में जो निष्कर्ष निकाले हैं,उनके कारण हम अपने को ऐसी संकटपूर्ण स्थिति में पाते हैं कि खाद्य-अखाद्य का निर्णय करना कठिन हो गया है.शायद मानव अब यह सुनने की प्रतीक्षा में है कि आदमी की जिंदगी ही मौत का सबसे बड़ा कारण है.अतः वैज्ञानिकों के लिए किसी भी चीज को खतरनाक बताना आसान है.

आंकड़ों की बाजीगरी की एक मिसाल कई साल पहले ‘हॉस्पिटल प्रैक्टिस’ पत्रिका में डॉ. मोरोत्विज के लेख से मिलती है.मोरोत्विज ने धूम्रपान के मौत और विकृतियों के साथ संबंध पर श्रमसाध्य अध्ययन किया.उनके इस अध्ययन के मूल निष्कर्ष को अमेरिका सहित दुनिया के सभी देशों में सिगरेट के डब्बों पर छपा हुआ देखा जा सकता है.सिगरेट के डब्बों पर लिखा रहता है : “चेतावनी : धूम्रपान आपके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है.”

मोरोत्विज ने भोजन की किस्म और मृत्यु-दर के संबंध में भी आश्चर्यजनक आंकड़े दिए है.इन आंकड़ों के अनुसार तला हुआ भोजन अधिक उपयुक्त है.दूसरे अध्ययन में उन्होंने नींद और मृत्यु-दर के संबंध में आंकड़े प्रस्तुत करते हुए बताया है कि रात में छह घंटे से कम सोना और नौ घंटे से अधिक सोना स्वास्थ्य के लिए हानिकर है.मोरोत्विज के अनुसार अधिक जीने के लिए अधिक से अधिक पढ़ना चाहिए.

कद का भी मौत के साथ संबंध हो सकता है,यह शायद हम सबने कभी सोचा भी न हो,लेकिन मोरोत्विज के निष्कर्षों के अनुसार साढ़े 5 फुट से 6 फुट 1 इंच तक की लंबाईवाले व्यक्तियों की मृत्यु-दर क्रमशः कम होती जाती है.

इन सभी नयी खोजों और इनके निष्कर्षों को पढ़कर सवाल उठता है कि क्या इन सलाहों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए? जबाब शायद यही होगा कि – शायद नहीं,क्योंकि इन्हें गंभीरता पूर्वक लें तो जीना ही दूभर हो जाय.इसलिए यदि जीना है तो सबकुछ मजे में खाएं और प्रसन्नचित्त रहें.

Keywords खोजशब्द :- Balanced  Diet, What to eat, Life Style