क्या प्रेम की पराकाष्ठा मृत्यदंड या मौत है? अतीत से लेकर वर्तमान तक ऐसे ढेरों वृत्तांत हैं जो यही दर्शाते हैं कि हर बार ऐसा नहीं होता.
सुदूर दक्षिण की
काशी,कांचीपुरी और 11वीं शताब्दी का एक दिन.महाराज सुंदावा के आदेशानुसार आज एक
अपराधी को शूली दंड दिया जाना है.हाट-बाजारों,गली-वीथियों में उत्सुक नर-नारियों
की भीड़ उमड़ पड़ी है.खुले वधस्थल में राजकीय जल्लाद की देखरेख में शूली गाड़ दी गयी
है.बहुत ऊँचे लोहे की नुकीलीदार शूली.ऊपर चढ़ने के लिए शूली से सटाकर लकड़ी की
सीढ़ियां लगायी गई हैं.
राजा की सवारी अभी नहीं आई
है,मंत्री,न्यायाधीश,सेनापति,सेना की टुकड़ी और राज-कर्मचारियों का हुजूम अपनी
जगहों पर कतारबद्ध और सतर्क है.आसपास के भवनों,महालयों के छज्जों पर उत्सुक
नर-नारियों की भीड़ लगी है.
आज यहां एक बड़े भयंकर अपराध
के लिए एक युवा कवि को शूली पर चढ़ाया जाएगा.उसे शूली पर लिटाकर तब तक रखा जाएगा
जबतक कि उसका शरीर मस्तक से बिंधकर नीचे तक नहीं आ पहुँचता है.
अपराध बहुत बड़ा है.एक
साधारण घर-द्वार विहीन यायावर युवा कवि ने महाराज सुंदावा की एकमात्र कन्या विद्या
के साथ प्रेम करने का अपराध किया है.विद्या को उसने अपने प्रेमजाल में फांस लिया
है.
नगाड़े-तुरहियों की ध्वनि
गूंजने लगी है.घुड़सवार अंगरक्षकों की की टुकड़ी से घिरा महाराज सुंदावा का काफिला आ
पहुंचा है.महाराज अपने सिंहासन पर विराजमान होते हैं.
आज्ञा के लिए उत्सुक मंत्री से महाराज ने कहा,”अपराधी को लाया जाए.”मंत्री के आदेश से कुछ सशस्त्र सैनिक दौड़कर गए और निकट में ही उपस्थित हाथ बंधे अपराधी को लाकर महाराज के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया.जनसमूह में मौन छा गया.
न्यायाधीश ने खड़े होकर
घोषणा की,’अपराधी कवि बिल्हण,तुम अपने देश कश्मीर से भटकते हुए यहां आये और राजकीय
संरक्षण प्राप्त किया.मनोरम काव्य रचना कर यश पाया.तुम्हें राजकुमारी विद्या को
विभिन्न शास्त्रों-विद्याओं की शिक्षा देने के लिए उनका शिक्षक नियुक्त किया
गया.तुमने राजकीय निष्ठा और अपने कर्तव्यों के प्रति छल किया.राजकुमारी को न देखने
की चेतावनी और वर्जना के बाद भी तुमने उन्हें चोरों की भांति अपने प्रेमजाल में
फंसाने का गुरुतर अपराध किया है.इसके लिए तुम्हें राज्य-विधान के अनुसार शूली का
दंड दिया जा रहा है.क्या तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है?”
उपस्थित जनसमूह युवा कवि को
देख रहा था.वह जैसे किसी अन्य लोक में पहुंचा हुआ था.उसे अपने तन-बदन की सुधि नहीं
लगती थी.अर्धनिमीलित नेत्र,बुदबुदाते हुए होंठ,कन्धों पर बिखरे बाल,भव्य मस्तक और
सांचे में ढला हुआ दमकता शरीर.लोग बैचैन थे कि यह सुंदर युवा और यशस्वी कवि यों
बुरी मौत का भागी बनेगा.
उससे कई बार पुछा गया,तो
जैसे चौंककर होश में आते हुए वह बोला,”जी नहीं,मैंने राजकन्या विद्या से प्रेम
किया,अपना तन-मन समर्पित किया,इससे मुझे कोई इंकार नहीं.......”
न्यायाधीश के आदेश से
जल्लाद युवा कवि को शूली के साथ सटे लकड़ी की सीढ़ियों पर ले गए.वह ऊपर तक जा चढ़ा और
निर्विकार भाव से यों खड़ा हो गया जैसे किसी अन्य को दंड मिला हो उसे, नहीं.
“अपराधी”,तुम अपनी अंतिम
इच्छा बताओ,हम यथासंभव पूरी करेंगे और अपने इष्टदेव को याद कर लो,न्यायाधीश का
स्वर गूंजा.
युवा कवि चौंक पड़ा.उसके
बड़े-बड़े लंबे पलकों वाले नेत्र जैसे मधु में डूबे हुए हों,ऊपर मुंह कर उसने नीले
आकाश और मंद वायु में लहराती वृक्षावलियों की हरीतिमा देखी.जैसे नेत्रों के आगे
किसी का मोहक मुखमंडल घूम रहा हो.न्यायाधीश के पुनः पूछने पर वह पौरुषमय मधुर
कंपित कंठ से गा उठा......
अद्ध्यापि तां
कनकचंपकदाम गौरीम्
फुल्लारविंदवदना
नवरोमराजिम्
सुप्तोस्थितां मदन
विह्वलसाल सांगीम्
विद्या प्रमाद
गलितामिव चिंतयामि |
(आज भी
सुवर्ण चंपे की माला सी ,गौरवर्ण-विकसित कमल जैसे मुखवाली,नये-नये रोयेंवाली,सोकर
जागी कामदेव द्वारा पीड़िता,अलसाये देहवाली उस विद्या को ही मैं याद कर रहा
हूं......”)
सारी जनता मुग्ध हो
उठी,राज-परिवार के लोग,सैनिक,स्त्री-पुरुष सबके मुख से धन्य-धन्य के शब्द निकलने
लगे.महाराज सुंदावा को लगा जैसे कवि के कंठ से निकले वे मधुर स्वर दिकदिगंत को
व्याप्त कर गये हों.वह मंत्रमुग्ध हो गये.
युवा कवि सारे जैसे संसार
से विलग होकर अपनी उस प्रेयसी की मधुर याद में मग्न गाता जा रहा था....
अद्ध्यापि तां शाशिमुखी
नौवनाढ्याम्
पश्यामि मन्मशरान्रिल
पीड़ितांगीम्
गात्रापि संप्रति
करोमि शुसीतलानि् |
(मैं इस समय
भी यदि उस चंद्रमा के समान मुखवाली,उसके गौरवर्ण,मनोहर,लावण्यमय,कामदेव के बाण से
पीड़ित शरीर को देख पाऊं तो अपने इस शरीर को सुशीतल कर लूं.....!)
“धन्य कवि, धन्य ! महाराज सुंदावा
के मुख से निकला.वह गद्गद् स्वर में बोले,”तुम्हारे जैसे सुप्रसिद्ध कवि को शूली
देना अमानवीय कर्म है.तुम नीचे उतर आओ,तुम अवध्य हो... .”
बिल्हण कश्मीरी कवि था,वह
दक्षिण देश की कांचीपुरी में कैसे आया,स्पष्ट नहीं.किंतु वह कांची आया और अपने
कश्मीरी सौंन्दर्य,काव्यकौशल तथा विद्वता से सबको मुग्ध कर दिया.महाराज सुंदावा ने
उसे अपने आश्रम में रखा.उसे अपनी एकमात्र विदुषी पुत्री विद्धोत्तमा को विभिन्न
शास्त्रों में पटु बना देने का भार देकर उसका शिक्षक भी नियुक्त किया.
गुरु-शिष्या के बीच पर्दा
लगाने की व्यवस्था हुई.बिल्हण से कह दिया गया कि राजपुत्री कुष्ठ रोग से पीड़ित
हैं.उन्हें देखना मना है,और दूर ही रह कर शिक्षा देनी है.राजपुत्री को बताया गया
कि बिल्हण जन्मांध हैं.कुमारी कन्या के लिए जन्मांध को देखना अनुचित माना जाता
है.अतः ऐसे व्यक्ति से आवरण में रहकर ही शिक्षा प्राप्त करनी है.
दिन बीतते गये.बिल्हण ने विद्या
को साहित्य,,काव्य,न्याय,मीमांसा,ज्योतिष,व्याकरण आदि विषयों में शिक्षित करना
आरंभ किया.दोनों मेधावी थे,विद्या सहज भाव से विभिन्न शास्त्र-उपशास्त्रों में
पटुता प्राप्त करती गयी.
परदे के आर-पार से
गुरु-शिष्या के बीच संवाद होते रहे.दोनों एक दूसरे को देख नहीं पाते थे,तथापि
विद्या पर बिल्हण की विद्वता तथा स्वर माधुर्य का बहुत प्रभाव पड़ा.बिल्हण भी अपनी
शिष्या की प्रतिभा से बहुत प्रभावित था.उसके मन में कुष्ठी राजकन्या के प्रति गहरी
सहानुभूति थी.विद्या भी पिता का आदेश मानकर उसे देखने की चेष्टा नहीं करती थी.
सौंदर्यशास्त्र का अध्ययन
आरंभ हुआ.चंद्रमा की कलाओं के साथ मनुष्य के तन मन पर पड़ने वाले तरंगों के उद्वेलन
के विषय में पढ़ाई हो रही थी.उस दिन विद्या का ध्यान कहीं अन्यत्र था.उसे ठीक तरह
से ध्यान न देते पाकर बिल्हण ने क्रुद्ध होकर कहा,”अरी कुष्ठे राजकन्ये,यह सब
जानकर क्या करेगी...?”अभिमानिनी विद्या को भी
क्रोध आ गया,”मुझे कुष्ठी कहने वाले,तुम तो स्वयं जन्मांध हो,जो
रूप-सौंदर्य,चंद्रमा की कलाएं नहीं जानता वह सौन्दर्यशास्त्र क्या पढ़ाएगा ?”
बिल्हण ने उत्तेजित होकर
पर्दा खींच दिया.पर्दा गिरते ही दोनों एक दूसरे को देखकर ठगे से रह गये.
दो वर्ष निकल गये.शास्त्र
शिक्षण की जगह प्रणय-निवेदन होता रहा.विद्या के गर्भ में बिल्हण का अंश पलने लगा.
प्रणय का छिपना दुष्कर होता
है.महाराज को भी पता लग ही गया.फलतः आदेश के उल्लंघन तथा राजकुमारी के साथ प्रणय
के अपराध में बिल्हण को बंदी बनाकर शूली का दंड दिया गया.राजकुमारी विद्या ने पिता
के रो-रोकर बिल्हण का दंड क्षमा करने की प्रार्थना की,किंतु सब व्यर्थ.बिल्हण ने
कांची पुरी की गरिमा में कलंक लगाया था.
बिल्हण ने जब शूली के ऊपर
भी अपनी अंतिम इच्छा के रूप में वह कविता सुनानी आरंभ की और इष्टदेव की जगह
इष्टदेवी विद्या को ही याद किया,तो राजा से लेकर प्रजा तक सभी अभिभूत हो
गये.महाराज सुंदावा ने उसके मृत्युदंड को क्षमा कर दिया.
उसने खुद को चोर-जो
राजकन्या के अप्रतिम रस का चोर हो – मानकर उन पदों की रचना की. वह ‘चौर
पंचाशिका’ का कवि बनकर इतिहास में
अमर हो गया.महाराज सुंदावा ने उसके अद्भुत समर्पित प्रेम तथा अपनी पुत्री की व्यथा
देखकर उन दोनों का विवाह कर दिया.
‘चौर पंचाशिका’ का पहली बार
किसी यूरोपियन भाषा फ्रेंच में 1848 में अनुवाद किया गया.इसके बाद कई भाषाओँ में
इसका अनुवाद हुआ.एड्विन अर्नौल्ड और मेथर्स द्वारा इसका प्रकाशन ‘ब्लैक
मेरिगोल्ड्स’ के नाम से किया गया.
सुंदर पोस्ट !
ReplyDeleteबेहद रोचक आलेख. महाकवि विल्हण का कहना था कि इस संसार में केवल एक ही ऐसा रस है, जो लोहे के आदमी को भी मोम बना देता है और वह हैं 'प्रेम रस'...
ReplyDeleteरोचक आलेख ... कविवर विल्हण और उनकी प्रेम रचना ही अमर काव्य है ... जो शब्द पाषाण को चूर कर दें ... वो जीवित काव्य ही अमर प्रेम कहलाता है ...
ReplyDeletebahut rochak...
ReplyDeleteबहुत बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (19-06-2015) को "गुज़र रही है ज़िन्दगी तन्हा" {चर्चा - 2011} पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सादर आभार.
Deleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन योग अब वैश्विक विरासत बन गया है में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeletesundar post ....
ReplyDeleteबहित सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है
ReplyDeleteप्रेम की पराकाष्ठा बहुत ही अच्छी रचना के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत हुई है।
ReplyDeleteप्रेम जीवन का शाश्वत सच है और यही सच को बेहत प्रेम से उजागर किया है इस आलेख में
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
आग्रह है-- होना तो कुछ चाहिए
प्रेम पर हर युग , हर काल में पहरा रहा है !!
ReplyDeleteप्रेम को अभिव्यक्त करती बढ़िया प्रस्तुति ....
ReplyDeleteઆપ કી બાત સહી હે મેડમ
Deleteप्रेम को अभिव्यक्त करती बढ़िया प्रस्तुति ....
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