प्रकृति के परम – तत्व से
साहचर्य का महापर्व है - करमा.भाद्र पद एकादशी को जनजातीय समाज इसे काफी उत्साह
से मनाता है.इन दिनों धान की बालियों से भीनी-भीनी गंध पसरने लगती है और हरियाली
दूर-दूर तक छा जाती है.ऐसे मौसम में मनाये जाने वाला करमा ही एक ऐसा महापर्व है
जिसे जनजातीय समाज के अलावा अब अन्य समुदाय भी समान रूप से मनाते हैं.
गैर जनजातीय महिलाएं और
कन्याएं अपने भाई की सलामती के लिए व्रत रखकर इसे मनाती हैं जबकि जनजातीय समुदाय
भाग्यवर्द्धन और परस्पर बंधुत्व में वृद्धि के लिए.कर्मा की पृष्ठभूमि में जनजातीय
सांस्कृतिक चेतना,जीवन-दर्शन,लोक-विश्वास,धर्म और प्रकृति के प्रति आदिम संवेदनाएं
हैं.निराकार ईश्वरीय सत्ता के समक्ष मानव का श्रद्धा –नैवेद्ध अर्पण करना मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का
प्रतीक है.
करमा का अर्थ है – ‘हाथमा’ अर्थात भाग्य में.इस पर्व में करम वृक्ष की डाली गाड़ कर उसकी पूजा की जाती है.आदिवासी समाज में उनके पुरोहित – पाहन करम डाली की पूजा संपन्न कराते हैं तो गैर आदिवासी समाज में पुरोहित यह पूजा कराते हैं.करमा पर्व के दिन भर स्त्री-पुरुष उपवास रखते हैं और रात्रि में पूजा करते हैं.यह पर्व सामूहिक रूप से मनाया जाता है.धूप-दीप,नैवेद्ध,फूल-अक्षत,सिन्दूर,खीरा,भुने हुए चने का प्रसाद इसमें चढ़ाया जाता है.
आदिवासी युवक वन से करम
वृक्ष की डाली लाने के लिए समूह बनाकर निकलते हैं.कुंआरी कन्याएं उन्हें विदाई
देती हैं.करम की डाली लाने के लिए युवा आदिवासी मांदर और नगाड़ा बजाते हुए जंगल की
ओर जाते हैं.युवतियां उनके साथ नाचती-गाती जाती हैं.करम के वृक्ष के पास पहुंचकर
वे उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ समय तक उसकी परिक्रमा करते हुए नृत्य करते हैं.
जो
युवक-युवतियां पहली बार उपवास कर रहे होते हैं,वे करम वृक्ष के चारों ओर धागे
बांधते हैं.फिर उस पर हल्दी पानी छिड़कते हैं.इसके बाद कोई युवक वृक्ष पर चढ़ कर
उसकी तीन डालियां काटता है.इन कटी हुई डालियों को जमीन पर नहीं गिरने दिया
जाता.सम्मानपूर्वक इन डालियों को युवक साथ आयी युवतियों को सौंप देते हैं.वे करम
की डालियां कंधे पर ढो कर लाती हैं.
सभी युवक युवतियां
नृत्य-गीत के बीच थिरकते हुए गांव वापस आते हैं.पह्नाइन गांव के अखाड़े के पास उनका
स्वागत करती हैं.उनके साथ पाहन और महतो भी होते हैं.युवतियां डालियों को पह्नाइन
को थमा देती हैं.करम की डालियों को धोने के पश्चात अखाड़े के बीच उन्हें रोप देती
हैं.उस पर तेल सिंदूर का लेप किया जाता है.उसके निकट एक दीप जलाया जाता है.फिर
सारी रात और दूसरे दिन करमदेव की विदाई तक गीतों की अनवरत धारा बहती रहती
है.मांदर,बांसुरी,ठेचका,नगाड़ा वाद्य यंत्रों के ताल-लय पर झूमर नृत्य करते हुए
उपवास रखने वाले युवक-युवतियों के पाँव थकते नहीं.
करमा गीत प्रायः पांच तरह
के होते हैं – सुमिरनी,संक्षईया,अधरतिया,मिनसहर,ठड़िया.
सुमिरनी किसी शुभकार्य से पूर्व ईश्वर
वंदना के गीत होते हैं.इनमें राम,कृष्ण और परम सत्ता के प्रति श्रद्धा निवेदित की
जाती है.इसी तरह का एक गीत है.........
हाय रे ओकोतिया
रुतई औरोड,तानी
रे छैला
हाय रे ओकोतिया
निंदा सिंगी आ-
ए-
नलिन मेंदा जो रो
बान रे छैला
हाय रे ओकोतिया
चंदन कस्तूरी या
सोबेनगोसो जना
हाय रे ओकोतिया
(हाय ! बांसुरी बजाने वाला छोकरा कहां चला गया ? हाय-हाय,कहां चला गया ? रात-दिन उसके लिए आँखों से आंसू बरसते रहते हैं.हाय,वह छोकरा कहां चला गया ? चंदन-कस्तूरी एवं फूल मुरझा गये. हाय ! वह बांसुरी बजाने वाला छोकरा कहां चला गया ?)
संक्षईया में स्थानीय
जनजीवन और जनजातीय समाज की व्यथा का शाब्दिक चित्रण होता है.मध्य रात्रि के प्रथम
पहर में गाया जाता है – अधरतिया या रिझवारी,जो श्रृंगारसिक्त भावना पर आधारित होता
है.इसमें दिन-रात को संयोग-वियोग के रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है.
रात्रि का अंत होता
है.पूर्व में सूर्य उदय होने लगता है.मन में उमंगें जागने लगती हैं.तो स्वतः ही
कंठ में सुर जगने लगते हैं.इस समय गाया जाता है मिनसहर गीत,जिनमें संघर्षशील जीवन
में क्षण भर के लिए,घने घुमड़े बादलों के बीच छिपे सूर्य को निहारने का सुख मिलता
है.......
कनेत उंचे कारी
बदरिया रे
कने तरिसे जल
मेघे
सरगे त उंधे ये
कारी बदरिया
अघरे बरीसे जल
मेघे....
ठड़िया करम गीतों में
जनजातीय जीवन-दर्शन का भावात्मक स्पर्श
होता है.क्षणभंगुर जीव-जगत में ऐंद्रिय
सुख मात्र क्षणिक है और निरंतर क्षय होता हुआ मनुष्य कब तक इस सत्य से अनभिज्ञ
रहेगा ? इस लिए भोग-विलास में न पड़कर जीवन को सुधारें,धरती को संवारें.
झूमर नृत्य और करमा गीत के
बाद युवतियां करम डालियों के साथ जल रहे दीपक के पास आकर बैठ जाती हैं.उनकी
टोकरियों में फूल और कपड़ों में लिपटा एक खीरा रखा होता है,जो उनकी भावी संतान का
प्रतीक होता है.करम पूजा के पश्चात पाहन करमा-धरमा की कथा सुनाता है.करमा कथा
विभिन्न रूपकों में,भिन्न-भिन्न अंचलों में भिन्न-भिन्न कथानकों में कही जाती
है.मुंडारी,संथाली,गोंड आदि जनजातीय समाजों में करमा-कथा कई कारणों से भिन्न है
क्योंकि काल और परंपरा इनके समाजों में भिन्न है. लेकिन सभी करमा कथाओं का सार एक
सा ही है.
राजा द्वारा करम की उपेक्षा
और परिणामस्वरूप उस पर विपत्तियों का आगमन.मुंडारी करमा-कथा में सृष्टि का उद्भव
और आदिमानव के जन्म का भी वर्णन है.सामाजिक विकास और मानवीय-मूल्यों का क्रमिक
विकास भी इस कथा में प्रतीक रूप से वर्णित है.कथा श्रवण के बीच-बीच में करम की
कृपा के लिए करम डाली पर पुष्पों की वर्षा की जाती है.कथा समाप्ति पर लोग अपने-अपने
घर चले जाते हैं.
रात्रि में फिर पूजा-स्थल
पर एकत्र होते हैं.रातभर,भोर की लाली फूटने तक,करम के आदर में नृत्य-गीत चलता रहता
है.नृत्य अबाध होता है,इसलिए इसकी तेज और मंद लय में रहती है.मांदर पर एक विशेष
ताल ही बज सकता है.इस आयोजन में ढोल-वादन वर्जित है.दिन चढ़ते ही पह्नाइन करम की
डालियां उखड़वाकर युवतियों को सौंप देती
हैं.वे इसे अपने कंधों पर उठा लेती हैं.झूमते-थिरकते नदी या जलाशय में उसे विसर्जन
कर वे करम राजा या वनदेव से भाई और परिवार के लिए सौभाग्य की याचना करती हैं.
आज के बाजारवाद और उपभोक्तावाद के इस युग में जहां पर्व-त्यौहार ग्लैमर से युक्त होने लगे हैं वहीँ प्रकृति से साहचर्य का यह पर्व मनुष्य को अपने जड़ों की ओर संकेत करने और प्रकृति के साथ संबंधों को भी दर्शाता है.