वह मुझसे तक़रीबन पांच साल
पहले मिली थी,पटना के डाक बंगला चौराहे पर.मैं शाम के समय आयकर चौराहा से सीधे डाक
बंगला चौराहा होते हुए परिवार के एक सदस्य को स्टेशन पहुँचाने जा रहा था.जैसे ही मेरी
कार ट्रैफिक जाम में डाक बंगला चौराहे पर रुकी,एक छोटी सी लड़की सजावटी फूलों का
गुच्छा लिए खिड़की के पास आ गई.बाबू,एक गुच्छा फूल ले लो न,पचीस रूपये का है,गाड़ी
में भी लगा सकते हो.न चाहते भी एक गुच्छा ले लिया.आगे बड़ी दूर तक गाड़ियों की कतार
दिख रही थी,जाहिर था,ज्यादा देर रूकना था.
वक्त बिताने के गरज से
मैंने उसके बारे में जानकारी जुटाने का प्रयास किया.उसने बताया कि उसका नाम मुंगिया
है,उसकी उम्र दस साल है और वह दो साल से यहाँ पर सजावटी फूलों का गुलदस्ता बेचती है.उसकी
एक छोटी बहन भी यही काम करती है जो आसपास ही है.पटना के आसपास ही किसी गाँव से आती
है.कितना कमा लेती हो एक दिन में,इतना पूछते ही बोल पड़ी अस्सी से सौ रूपये तक.एक
फूल बेचने पर पांच रूपये मिल जाते हैं.
दरअसल,तारामंडल से आगे बढ़ते
ही शॉपिंग कम्पलेक्स की कतार शुरू हो जाती है.मौर्या लोक और हरनिवास कम्पलेक्स के
सामने काफी चौड़ी फुटपाथ है और इस पर तरह-तरह के सजावटी सामान, खिलौने,फूलों के
गुलदस्ते बेचने वालों की भरमार रहती है.यहीं से ये बच्चे-बच्चियां फूल लेकर
ट्रैफिक पर रूकने वाले गाड़ियों में सामान बेचते हैं.
अच्छा,तो स्कूल जाने का मन
नहीं करता,मैंने पूछा.मन करता है न स्कूल ड्रेस पहनकर स्कूल जाने का. लेकिन माई
जाने नहीं देती, कहती है, काम नहीं करेगी तो घर का खर्च कैसे चलेगा.बाप अपाहिज है
और दिनभर खाट पर पड़ा रहता है,मां कुछ घरों में चौका बर्तन कर घर का खर्च चलाती है.फिर
पढ़ाई में खर्चा भी होता है.लेकिन सरकारी स्कूल में तो फ़ीस नहीं लगता,इस पर वह चुप
हो गई.स्कूल के सपने उसकी आँखों में तैरने लगे थे.जिन हाथों में किताबें होनी थीं
उन हाथों में असमय ही घर चलाने की जिम्मेदारी डाल दी गयी थी.
आज न जाने कितने ऐसे असंख्य
बच्चे हैं जो कच्ची उम्र में ही जिंदगी की गाड़ी खींचने को विवश कर दिए जाते
हैं.चाहे उसका कारण गरीबी,बेरोजगारी या अशिक्षा ही क्यों न हो इसकी मार तो नाजुक
हाथों पर ही पड़ती है.
इस वाकये के बाद एक दो बार
पटना गया लेकिन मुंगिया से फिर भेंट नहीं हुई.एक साल के बाद फिर उसी चौराहे पर वह
मिली.दोंनों हाथों में भरी चूड़ियाँ,मांग में सिंदूर देख समझ गया कि उसका विवाह हो
गया.ग्यारह साल की उम्र में विवाह होने पर भी वह काफी खुश दिखी.उसने बताया कि दो
महीने पहले ही विवाह हुआ है.शायद विवाह का अर्थ भी उसे पता नहीं होगा.माँ-बाप ने
अपने कंधों से जिम्मेवारी उतार फेंकी थी और उसे जिंदगी की झंझावातों से लड़ने के लिए छोड़ दिया.
आज इस तरह की कितनी ही मुंगिया हैं जो कच्ची उम्र में ही स्कूली बस्ते की जगह कंधों पर गृहस्थी का बोझ लादे फिर रही हैं?
आज इस तरह की कितनी ही मुंगिया हैं जो कच्ची उम्र में ही स्कूली बस्ते की जगह कंधों पर गृहस्थी का बोझ लादे फिर रही हैं?
जाने कितने ही मुंगिया जैसी जिंदगी जीने को मजबूर रहते हैं, जो दिखते हुए भी नहीं दिखते नहीं सबको। .
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी प्रस्तुति
Bahut hi sundar prastuti
ReplyDeleteBahut hi sundar prastuti
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 29/09/2016 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
सुन्दर ।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteकसमसाहट यह होती है कि हम बस देख सकते हैं.
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
ReplyDeleteमन दुखी होता है,पर इन अभागे बच्चों के माता-पिता ही जब उन्हें कमाई का माध्यम बना लें तो ... सचेत उन्हें करना ज़रूरी है .
ReplyDeleteमन दुखी होता है,पर इन अभागे बच्चों के माता-पिता ही जब उन्हें कमाई का माध्यम बना लें तो ... सचेत उन्हें करना ज़रूरी है .
ReplyDeleteबहुत दुखद पहलू!
ReplyDeleteअबोध बच्चों की तकलीफें देख कर बहुत दुःख होता है.
ReplyDeleteएक समय आएगा जब सरकार को बच्चे पैदा करना ज़बरदस्ती रोकना ही पड़ेगा... तो आज ही क्यों नहीं?
ऐसे बच्चों की तादाद बहुत ज्यादा है। इन्हें आम जिंदगी में लाना बड़ी चुनौती है।
ReplyDeleteऐसे बच्चों की तादाद बहुत ज्यादा है। इन्हें आम जिंदगी में लाना बड़ी चुनौती है।
ReplyDeleteआज न जाने कितने ऐसे असंख्य बच्चे हैं जो कच्ची उम्र में ही जिंदगी की गाड़ी खींचने को विवश कर दिए जाते हैं.चाहे उसका कारण गरीबी,बेरोजगारी या अशिक्षा ही क्यों न हो इसकी मार तो नाजुक हाथों पर ही पड़ती है.ये देख के दुःख होता है कि आज आदि के 70 साल बाद भी हम ऐसी मुंगिया को हर शहर , हर कसबे में देखते हैं ! ये न केवल सरकारों के लिए सोचनीय है बल्कि हमारे लिए भी कि कहीं इनका हक़ हम तो नही मार गए और ये वंचित रह गए अपने अधिकारों से ?
ReplyDeleteबहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
ReplyDeleteहमारे समाज का ये ऐसा काला पहलू है जिसके चलते शर्म से सर झुकता है ... और शायद अभी हमें बहुत दूर जाना है ...
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