इन प्रोटोप्लाज्म’ कणों में ‘न्यूक्लियस’
नामक एक अन्य पदार्थ होता है.यह पदार्थ ही मानव-शरीर में जीवन शक्ति प्रदान करता
है.कोशिकाओं को पुष्ट करने में भी यह सहायक होता है.यदि यह पदार्थ सूखना आरंभ हो
जाए तो ‘प्रोटोप्लाज्म’ कण भी धीरे-धीरे क्षीण होने आरंभ हो जाते हैं और इस प्रकार
यह ‘प्रोटोप्लाज्म’ कण क्षीण होते- होते एक दिन अकस्मात ख़त्म हो जाते हैं
और इनसे मूल चेतना गायब हो जाती है.
इसी प्रकार प्रजनन
प्रक्रिया भी पुनर्जन्म के सिद्धांत को महत्व प्रदान करती है.माता-पिता के संसर्ग
के परिणामस्वरूप शरीर के कुछ सूक्ष्म संस्कार भी एक-दूसरे शरीर में आ जाते
हैं.सम्प्रेषण का यह सिद्धांत पुनर्जन्म के सिद्धांत को युक्तियुक्त होने में
सहायता करता है.जिस प्रकार दो इन्द्रियों से एक नए शरीर को जन्म मिलता है उसी
प्रकार एक शरीर को छोड़ने के पश्चात जीवात्मा अपने साथ उस शरीर के सूक्ष्म संस्कार
भी ले जाती है.वे संस्कार उसके साथ बने रहते हैं और नए शरीर में भी विद्यमान रहते
हैं.इन्हीं संस्कारों को हमने ‘पूर्वजन्म की यादें’ की संज्ञा दी है और ऐसी घटनाओं
को सुनकर या पढ़कर हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं.
शरीर में कोशिकाओं के साथ
रहने वाला ‘प्रोटोप्लाज्म’ जीवात्मा का ही दूसरा रूप है.वैज्ञानिकों के अनुसार
मृत्यु के पश्चात यही प्रोटोप्लाज्म शरीर से अलग होने पर मिट्टी-राख आदि में
समाहित हो जाता है.वायुमंडल में प्रवेश होने पर यह प्रोटोप्लाज्म खेतों-खलिहानों से
होते हुए वनस्पतियों में पहुंच जाता है.उसके पश्चात यह फूलों,फलों,और अनाज में
समाविष्ट हो जाता है.इन फूलों,पत्तियों और अनाज को जानवर और मनुष्य दोनों खाते
हैं.यही ‘प्रोटोप्लाज्म’ कण ‘जीन्स’ में परिवर्तित होते हैं और नए शिशु के साथ
दोबारा जन्म लेते हैं.
नया जन्म लेने पर जब शिशु के
स्मृतिपटल पर कोई ‘प्रोटोप्लाज्म’ जाग्रत हो जाता है,तब उसको पहले जीवन की घटनाएं
धीरे-धीरे याद आने लगती हैं.
आत्मा के संबंध में गीता
में विस्तार से कहा गया है.अध्याय दो में एक स्थान पर कहा गया है कि.....
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि
नैनं दहति पावकः |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न
शोषयति मारुतः ||
अर्थात आत्मा न तो शस्त्रों
द्वारा नष्ट होती है और न इसको अग्नि जला सकती है.इसको जल गीला नहीं कर सकता और न
ही वायु सुखा सकती है.यह मात्र गीता की ही बात नहीं.आज का विज्ञान जगत भी इस बात
को स्वीकार करने लगा है कि हमारे शरीर में कोई सूक्ष्म पदार्थ ऐसा रहता है,जो शरीर
के नष्ट होने के बाद भी नष्ट नहीं होता और यही सूक्ष्म पदार्थ आत्मा कहलाता है.
पश्चिमी वैज्ञानिक अपने
प्रयोगों द्वारा इस भारतीय दृष्टिकोण के बहुत पास आते जा रहे हैं कि आत्मा अजर-अमर
है.अमेरिका के वैज्ञानिक विलियम मैंड्रगल ने आत्मा के विषय में विभिन्न प्रकार की खोजें
की हैं.उन्होंने एक ऐसी तराजू का निर्माण किया है जो अशक्त मरीज के पलंग पर लेटे
रहने के बावजूद ‘ग्राम’ के हजारवें भाग तक का वजन बता सकता है.उन्होंने एक पलंग पर
एक रोगी को लिटाकर उसके पास एक मशीन लगा दी,जो वास्तव में भार तौलने वाली तराजू
थी.वह मशीन, उसके कपड़ों,पलंग,फेफड़ों की सांसों और दी जाने वाली दवाईयों तक का वजन
लेती रही.
जब तक वह रोगी जीवित रहा,उस तराजू की सूई में कोई अंतर नहीं आया.वह एक
स्थान पर खड़ी रही,लेकिन जैसे ही रोगी के प्राण निकले,सूई पीछे हट गई.रोगी का वजन
आधी छटांक कम हो गया.ऐसे ही प्रयोग मैंड्रगल ने कई रोगियों पर किये है.और उसने यह
निष्कर्ष निकला कि कोई ऐसा सूक्ष्म तत्व है,जो जीवन का आधार है और उसका भी वजन
है.वास्तव में यही आत्मा है.
इसी प्रकार डॉ. गेट्स ने भी
आत्मा के बारे में कई प्रयोग किये हैं.इन्होंने ऐसी प्रकाश-किरणों की खोज की
है,जिनका रंग कालापन लिए हुए गाढ़ा लाल है.ये किरणें मरे हुए पशुओं से प्राप्त की
गई हैं.इन्होंने एक मरणासन्न चूहे को गिलास में रखकर ये किरणें उस पर फेंकी.दीवार
पर उस चूहे की छाया दिखाई दी.प्राण निकलते ही वह छाया गिलास से निकली और दीवार की
ओर बढ़ी.उस दीवार में रोडापसिन नामक पदार्थ का लेप किया गया था,क्योंकि इस मसाले का
प्रयोग करने के बाद ही दीवार पर ये किरणें स्पष्ट दिखाई देती हैं.
यह छाया कुछ दूर
तक ऊपर दिखाई दी और उसके पश्चात उसका कहीं कुछ पता
नहीं लगा.डॉ. गेट्स ने इस छाया की सही स्थिति जानने के लिए गैल्वानोमीटर से उन
किरणों की शक्ति तथा मानव-शरीर में संचालित विद्युत तरंगों को मापा और उन्हें लगा
कि दीवार पर पड़ने वाली प्रकाश-किरणों की अपेक्षा शरीर की ताप-शक्ति अधिक होती
है.डॉ. गेट्स के अनुसार यही विद्युत शक्ति आत्मा की प्रकाश-शक्ति है.
ऐसे ही अनेक प्रयोग अमेरिका
में भी किये गए हैं.प्रयोगशाला में एक चैम्बर,जो देखने में पारदर्शी सिलिंडर-सा
लगता है,रखा जाता है.इसके भीतर के भागों में रासायनिक घोल पोता जाता है.इस चैम्बर
में चूहों और मेढकों को जीवित अवस्था में रखकर प्रयोग किया जाता है.
फ़्रांस के डॉ. हेनरी बराहुक
ने अपने मरणासन्न बच्चों पर ऐसे प्रयोग किए हैं.इसी तरह लंदन के प्रसिद्द डॉ. जे.
किलर ने अपनी पुस्तक ‘दि ह्यूमन एटमोस्फियर’ में भी अपने कई प्रयोगों का वर्णन
किया है,जो उन्होंने रोगियों की जाँच करते समय किये थे और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे
कि मानव देह में एक प्रकाशपुंज का अस्तित्व अवश्य है, जो मृत्यु के पश्चात भी
यथावत रहता है.
अनेक मान्यताओं को अस्वीकार
करने वाले रूस ने भी इस ओर काम किया है.उनकी विज्ञान संबंधी खोजों ने भी इस बात को
प्रमाणित कर दिया है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म संभव है.वहां की प्रयोगशालाओं में
अनेक प्रयोग किये गए और प्रयोगों के पश्चात् वैज्ञानिक इस परिणाम पर पहुंचे कि
मरणोपरांत भी कोई ऐसा सूक्ष्म तत्व रह जाता है,जो इच्छानुसार पुनः किसी शरीर में
प्रवेश कर एक नये शरीर को जन्म देता है.
साधारणतः पदार्थ की चार
अवस्थाएँ होती हैं – ठोस,द्रव,गैस और प्लाज्मा.रूस के वैज्ञानिकों ने एक और अवस्था
की खोज की है,यह पांचवीं अवस्था ‘जैव प्लाज्मा’ है.दूसरे शब्दों में,यही अवस्था
‘प्राण’ है,जिसके न रहने से व्यक्ति मृत कहलाता है.
इस पांचवीं अवस्था की खोज 1944
में रूस के भौतिक शास्त्री वी. एस. ग्रिश्चेंको ने की.इनका कहना है कि ‘जैव
प्लाज्मा’ में ‘आयंस’ स्वतंत्र इलेकट्रान और स्वतंत्र प्रोटान होते हैं,जिनका
अस्तित्व स्वतंत्र होता है और जिनका नाभिक से कोई संबंध नहीं होता.इनकी गति बहुत तीव्र होती है और दूसरे जीवधारियों में शक्ति के संवहन करने में यह सक्षम होता
है.यह मानव की सुषुम्ना नाड़ी में एकत्रित रहता है.यह टेलीपैथी,मनोवैज्ञानिक और
मनोगति की प्रक्रियाओं से मिलता-जुलता है.
पुनर्जन्म से संबंधित कुछ खोजों में रूस
के वैज्ञानिकों को अत्यधिक श्रम करना पड़ा है.कई विकसित उपकरणों के प्रयोग से यह
खोज संभव हो सकी है.उच्च वोल्टेज वाली फोटोग्राफी,क्लोजसर्किट टेलीवीजन तथा मोशन
पिक्चर तकनीक आदि उपकरणों से वे अपने प्रयोगों को सफलता की सीमा तक पहुंचा सके
हैं.
भारत में प्रचलित ‘सूक्ष्म
शरीर’ की मान्यता से रूस की वैज्ञानिक ‘बायो-प्लाज्मा’ की धारणा बहुत साम्य रखती
है.रूसी वैज्ञानिक दृढ़तापूर्वक यह स्वीकार करते हैं कि बायो-प्लाज्मा का अस्तित्व
है और यह बायो-प्लाज्मा भारत के ‘सूक्ष्म-शरीर’ या आत्मा से बहुत कुछ मिलता जुलता
है.
अमेरिका ने भी रूस की इस
वैज्ञानिक खोज को स्वीकार किया है.रूस के वैज्ञानिक शैला आस्त्रेंडर तथा लीं
स्क्रोडर ने एक स्थान पर अपनी इस खोज को महत्व प्रदान करते हुए बड़े गर्व से कहा है
कि ‘जीवधारियों में कोई प्रकाशपुंज,कोई सूक्ष्म शक्ति या कोई अदृश्य शरीर भौतिक
शरीर को आवृत्त किये रहता है,इसका प्रमाण हमें मिल गया है.
इस प्रकाशपुंज को रूस के
वैज्ञानिकों ने इलेक्ट्रोन माइक्रोस्कोप द्वारा देखा है.उनका कहना है कि मरणासन्न
जीवधारी में उन्होंने फ्रीक्वेंसी पर कोई ऐसी वास्तु ‘डिस्चार्ज’ होते देखी है,जो
पहले ‘क्लेयर वोमेंटस’(भविष्य को पढने वाले) ही देख पाते थे.जीवित शरीर में उनको
उसी शरीर की प्रतिकृति देखने को मिली है.यही प्रतिकृति विद्युत –चुम्बकीय
क्षेत्रों में समा जाती है.इस अदृश्य शरीर की एक विशिष्ट संरचना है.
इन परिणामों को ध्यान में
रखते हुए यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत किसी ठोस वैज्ञानिक
आधार पर आधारित है.हमारे प्राचीन ग्रंथ भी इस सिद्धांत का समर्थन करते हैं. हमारे
धर्म-ग्रंथों में वर्णित जीव और ब्रह्म की कल्पना जीवन और जीवनोपरांत जीवधारियों
की स्थिति की ही गाथा है.
ब्रह्म मरणोपरांत की स्थिति है और जीव, जीवित समय की.जीव
और ब्रह्म के पारस्परिक आदान-प्रदान पर ही समस्त चेतना-शक्ति निवास करती है.वह दिन
दूर नहीं,जब विज्ञान पुनर्जन्म की सत्यताओं को सार्थक सिद्ध कर यह घोषणा कर देगा कि आदमी मरता नहीं है,उसके भीतर आत्मा
नाम का तत्व होता है,और जो कभी नष्ट नहीं होता. नष्ट होता है,केवल शरीर.