Sunday, September 29, 2013

भारतीय संस्कृति और कमल

                                            






कमल केवल भारतीय संस्कृति की सत्यता का ही प्रतीक नहीं है,बल्कि भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण सिद्धांत "तमसो मा ज्योतिर्गमय" का जीवित रूप है.कमल पानी के मल से पैदा हुआ है. वह गंदगी से उठकर श्रेष्ठता की और बढ़ता है.वह प्रकाश में खिलता है और अंधकार में अपने को बंद कर लेता है,जैसे कह रहा हो - 'अंधकार से दूर रहो.उसका मुख हमेशा सूर्य की ओर रहता है. जैसे कह रहा हो -मुझे 'अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो.' इस प्रकार कमल हमेशा यह प्रेरणा देता है कि हम अज्ञान,अंधकार और अविवेक से दूर रहें .

भविष्य पुराण में यह विषय आता है कि कौन सा फूल कितने दिनों में बासी हो जाता है.उसके अनुसार - नील कमल,श्वेत कमल और कुमुद ये पांच दिन में,जाति का फूल एक प्रहर में,मल्लिका का आधा प्रहर में और अगस्त्य के फूल तीन प्रहर में बासी हो जाते हैं.इन सभी फूलों में कमल ही एक ऐसा फूल है जो सबसे अधिक समय तक स्वस्थ,स्वच्छ,निर्मल और ताजा बना रहता है.उसे रात्रि में तोड़कर प्रातः पूजा के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है,क्योंकि उसके बासी होने का तो पता ही नहीं चलता .

कमल में सत्य और असत्य को प्रकट करने की स्वाभाविक शक्ति है.कालिदास का मेघदूत इसी कथा पर आधारित है.एक दिन यक्ष ने कुबेर की शिव - पूजा के लिए रात्रि में कमल तोड़कर रख दिए.प्रातः जब कुबेर पूजा के लिए गए और कमल को हाथ में लिया तो वह खिलने लगा था.उसमें से एक भौंरा उड़कर भागा तो कुबेर ने यक्ष से सत्यता जाननी चाही,परन्तु  उसने असत्य कहा कि 'फूल बासी नहीं है.' वह यह भूल गया कि कमल उजाले में खिलता है और अंधकार होने पर अपने आपको बंद कर लेता है.अतः रात्रि में ही उसमें भौंरा बंद हो गया था.उसके इस असत्य पर ही कुबेर ने यक्ष को देश निकाला दे दिया था .

कमल को सृष्टि के प्रतीक के रूप में भी हम  देखते हैं.विष्णु की नाभि से कमल उत्पन्न होता है और उस पर बैठकर ब्रह्मा श्रृष्टि की रचना करते हैं .

भूगर्भ शास्त्री भी पुराणों के अनुसार ब्रह्माण्ड का आकार कमल रूप मानते हैं.मेरु के पश्चिम में तिब्बत का धरातल है,उसके पूर्व में कैलास,दक्षिण में हिमवत और उत्तर में कुरु स्थित हैं.मेरु कमल के पराग के सामान हैं.

विष्णु के हाथ में कमल केवल सृष्टि का प्रतीक मात्र नहीं,वह भारतीय संस्कृति के 'निष्काम कर्म' के आदर्श का भी प्रतीक है.वह कीचड़ में उत्पन्न होने के बाद भी निर्मल,स्वच्छ और पवित्र रहता है. जल में रहते हुए भी जल से अलग तथा अलिप्त रहता है.वह निर्लिप्त और निर्विकार रह कर अपने सौन्दर्य,सुवास और सरसता से सबका मन लुभाए रहता है.जो इस और संकेत करता है कि समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए फल से अलिप्त रहो,अर्थात कर्मयोग के सिद्धांत का प्रतीकात्मक रूप है. 

भारतीय संस्कृति पुरुषार्थ एवं कर्मप्रधान है.कमल कीचड़ में उत्पन्न होकर सारे समाज को उसकी घृणित उत्पत्ति का संकेत करता है.अपनी प्रारम्भिक अवस्था में कठोर कली  के रूप में रहते हुए कमल में कोई कीड़ा नहीं पहुँच सकता और उसमें छिद्र नहीं कर सकता है .

खिला हुआ कमल ही जीवन तत्व का प्रतीक है.यह कमल संकेत देता है कि जिस प्रकार प्रकृति से शक्ति,तेज ताप और उर्जा न मिलने पर उसे पुनः अपनी प्राकृतिक स्थिति में आना होता है,उसी प्रकार मनुष्य को भी सम्पूर्ण जीवन जीने के बाद,अंत में मृत्यु की गोद में आना होता है,जो प्राकृतिक है.

भारतीय संस्कृति में  लक्ष्मी को कमल के पुष्प पर बैठे हुए दिखाया गया है.उन्होंने एक हाथ में कमल लिया हुआ है और दूसरे हाथ से धन बिखेर रही हैं.हाथ में पकड़ा हुआ कमल ऊपर की ओर उठा हुआ है और धन नीचे गिर रहा है. दोनों कितने सुन्दर प्रतीक हैं.जो धन लेकर उसमें लिप्त हो गया वह दलदल में फंस गयाजो सब कुछ पाकर भी कमल की तरह अनासक्त और अलिप्त बना रहा,वह कमल की तरह उर्ध्वमुखी या उन्नत हो गया.

धन सांसारिक सुख का प्रतीक है,आत्मिक शक्ति और आनंद का नहीं.इसलिए लक्ष्मी धन बिखेरती है, उस पर बैठती नहीं,उसमें बंधती नहीं.उसी तरह लक्ष्मी को पाकर विष्णु भी उसमें लिप्त नहीं होते. 

लक्ष्मी बैठती हैं कमल पर.कमल आदर्श जीवन का प्रतीक है.वह कीचड़ से निकल कर श्रेष्ठता की और बढ़ रहा है .वह विष्णु की सर्वज्ञता और सर्वगुण संपन्नता का द्योतक है. वह विष्णु की तरह अनासक्त भाव से सब कार्य करने की प्रेरणा देता है.लक्ष्मी ने कमल को विष्णु का महाप्रतीक मानकर अपना आसन बनाया और उसे हाथ में लिया,जिससे पति का आदर्श हमेशा पथ -प्रदर्शक बना रहे और वह उसके गुणों को अंगीकार कर सके.

कमल की महिमा यहीं समाप्त नहीं होती.कमल ने विष्णु के लोचन का स्थान पाया.देवताओं में केवल विष्णु को ही कमलनयन कहा गया है.'शिव महिम्नस्रोत' में एक कथा आती है कि एक बार विष्णु ने शिव के लिए यज्ञ किया और उनके लिए एक हजार कमल मंगाये.जब 999 कमल की आहुति दे चुके तो कमल समाप्त हो गये.गणना में भूल के कारण एक कमल कम रह गया था. यज्ञ को पूरा करना आवश्यक था,अतः विष्णु ने अपनी आँख निकल कर कमल के रूप में आहुति देनी चाही,तभी शिव प्रकट हो गए और विष्णु का हाथ पकड़ लिया और स्वयं त्रिपुरारी बन गए. तीनों लोकों की की देखभाल का भार अपने ऊपर ले लिया.यहीं से विष्णु कमलनयन कहलाने लगे .

विष्णु के नेत्र रूप, यही गुण संपन्न कमल पार्थिव सौंदर्य का प्रतीक  बन गया.भारतीय संस्कृति में 'सुंदर' सत्य तथा शिव के साथ अच्छेद संबंध से जुड़ा हुआ है.'सत्यं शिवम् सुंदरम' इसी मान्यता का परिपोषक है.कमल, जो ब्रह्मा ,विष्णु तथा लक्ष्मी से संबद्ध होकर सत्य तथा शिव का प्रतीक है,वही भारतीय सौन्दर्य का भी प्रतीक  है .  

Thursday, September 26, 2013

एक जादुई खिलौना : रुबिक क्यूब





एक प्राध्यापक ने छात्रों को वास्तुकला विज्ञान तथा डिजाइन की शिक्षा देने के लिए एक ऐसे उपकरण का अविष्कार किया , जिससे किसी वस्तु के आकार में उसकी लम्बाई ,चौड़ाई तथा ऊँचाई को एक साथ परखा जा सके ,लेकिन यह उपकरण आज इतना लोकप्रिय खिलौना है कि जिसकी वह अपने आप में एक मिशाल है . मजे की बात बात यह है कि इसकी वजह से तलाक़ भी हो गया .

बच्चों के संसार में खिलौनों के महत्व से कोई भी अपरिचित नहीं है. खिलौनों का इतिहास भी उतना ही पुराना है ,जितनी मानव सभ्यता. प्रारंभ में शायद बच्चों ने अपने खिलौने खुद ही तलाश किये होंगे.परन्तु ज्यों - ज्यों  समय आगे बढ़ा ,मानव सभ्यता का विकास हुआ और इस विकास के साथ जुड़ गया खिलौनों का बदलता रूप. मनोवैज्ञानिक इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि बच्चों के संतुलित विकास के लिए खिलौनों का उतना ही महत्व है ,जितना कि उनके वातावरण का. बीसवीं सदी में विज्ञान की अद्भुत उन्नति से खिलौने भी अप्रभावित न रह सके.ऐसे ही वैज्ञानिक चेतना की एक उत्पत्ति है रुबिक क्यूब या जादुई क्यूब.

रुबिक क्यूब वास्तव में खिलौनों की आवश्यकता पूरी करने के लिए नहीं बनाया गया था. इसका जन्मदाता एरनो रुबिक हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट के एक महाविद्यालय में छात्रों को वास्तुकला विज्ञान तथा डिजाइन की शिक्षा देता था. वह छात्रों को किसी भी वस्तु के तीनों पक्षों के बारे में बताना चाहता था. 1974 में उसने एक ऐसे उपकरण का  आविष्कार किया ,जिससे किसी वस्तु के आकार में उसकी लंबाई ,चौड़ाई ,ऊँचाई को एक साथ परखा जा सके .

यही नहीं ,इस उपकरण पर की जाने वाली क्रिया -घुमाने से होने वाले प्रभाव को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है.यही  उपकरण आज दुनियां का सर्वश्रेष्ठ शिक्षा देने वाला खिलौना बन गया है.पहले पहल इसका नाम मैजिक क्यूब पड़ा ,परन्तु बहुचर्चित होने पर इस क्यूब के साथ आविष्कारक का नाम भी जुड़ गया तथा यह 'रुबिक क्यूब' के नाम से जाना जाने लगा. आज रुबिक क्यूब हर आयु और हर व्यवसाय के लोगों का मनोरंजन ही नहीं ,बल्कि शिक्षा का एक साधन बन गया है. न केवल बच्चों बल्कि बुजुर्गों के लिए यह समय बिताने का एक बढ़िया साधन बन गया है. इस क्यूब ने बिक्री के पिछले सभी कीर्तिमान तोड़ दिए हैं. गणितज्ञों के लिए यह खिलौना बहुमूल्य उपकरण सिद्ध हुआ है. ज्योतिर्विज्ञान तथा 'ग्रुप थ्योरी' की कई क्रियाएं इसके द्वारा सरलता से समझी जा सकती हैं. आज दुनियां भर में रुबिक क्यूब को हल करने की प्रतियोगिताएं भी आयोजित की जाती हैं .

रुबिक क्यूब साधारणतः 57 *57 *57  मिलिमीटर का एक घन  है ,जो 26  छोटे - छोटे घनों से मिलकर बनता है. इनमें हरेक छोटा घन 9*9*9 मिलिमीटर का होता है. जब  क्यूब पूर्णतः ठीक से जुड़ा होता है ,तब इसके छह तलों के प्रत्येक तल पर एक ही प्रकार तथा रंग के 9 - 9 वर्ग होते हैं .कुल मिलाकर 54 वर्गों की रचना 9 प्रति वर्ग तल के हिसाब से होती है. एक तल के 9 वर्ग एक ही आकार एवं रंग के होते हैं.

हरेक तल पर ठीक बीच  में एक -एक घन होता है ,जिनका स्थान निश्चित होता है .हरेक मध्य वर्ग का रंग एक दूसरे से भिन्न होता है.यदि हम रूबिक क्यूब को एक समतल पर टिका दें , तो ऊपर तथा नीचे वाले तलों के चार कोनों में एक - एक क्यूब होता है. हरेक कोने वाले घन के तीन पक्ष दिखाई देते हैं तथा इन पर बने तीन वर्गों का रंग एक दूसरे से भिन्न होता है.

उपरी तल के प्रत्येक कोने वाले क्यूब के तीनों ओर - दायें ,बाएं तथा नीचे एक -एक क्यूब होता है. इनकी संख्या आठ होती है .निचले तल के कोने वाले क्यूब के दायें - बाएं भी एक - एक क्यूब होता है. इनकी संख्या चार होती है. प्रत्येक बीच वाले क्यूब पर दो भिन्न - भिन्न रंगों के क्यूब बने होते हैं.

रुबिक क्यूब के तल आपस में जुड़े हुए नहीं होते. प्रत्येक तल को आगे -पीछे ,ऊपर और नीचे की ओर घुमाया जा सकता है.इसमें केवल मध्य के छह क्यूब एक दूसरे के साथ धुरी पर जुड़े होते हैं. इसे स्पिंडल कहते हैं. रुबिक क्यूब के किसी भी तल को 90 डिग्री दायीं ओर घुमाने से सामने और पिछले तलों पर तो  हरा और नीला रंग ही रहेगा. परन्तु बाकी  के तलों पर इस क्रिया का प्रभाव पड़ेगा. उपरी तल के तीन लाल  वर्ग दायीं और चले जाएंगे , दायेंतल के तीन सफ़ेद वर्ग निचले तल पर चले जाएंगे , निचले तल के तीन संतरी वर्ग बायीं ओर तथा बाएं तल  के तीन पीले  वर्ग उपरी तल पर आ जाएंगे.

इस  प्रकार ऊपर, नीचे ,दायें,बाएं  सामने तथा पीछे तलों को घुमाने से रंगदार वर्ग अपना स्थान बदल  लेते हैं और हर तल रंग -बिरंगा हो जाता है. केवल छह मध्य वर्ग अपने स्थान पर रहते हैं.यह तो रही क्यूब को बिगाड़ने की बात. इसी उलझे हुए क्यूब से शुरू होती है वास्तविक दिमागी कसरत.

यह समस्या एक पहेली के समान है. आप उलझा हुआ क्यूब किसी व्यक्ति को देकर कहें कि वह इसे फिर से सुलझा दे यानि सब रंगों को इस प्रकार जोड़े कि एक तल के सभी वर्ग एक ही रंग के हों. देखने में यह बड़ा आसन प्रतीत होता है ,परन्तु इसे सुलझाने में कई दिन या कई माह लग जाएँ.इसी रुबिक क्यूब के कारण जर्मनी में एक दंपति में तलाक हो गया. एक पत्नी ने अपने के जन्मदिन पर उपहारस्वरूप  रूबिक क्यूब भेंट किया.पति इसे सुलझाने में इतना व्यस्त रहने लगा कि पत्नी तक को भूल गया .बस ,इसी का परिणाम निकला ,तलाक.

समस्या वाकई जटिल है.कम्यूटरों द्वारा पता लगाया गया है कि रुबिक क्यूब के रंगों के 4,32,52,0000000000000000 से भी अधिक मेल खाते हैं.यह अंक कितना विशाल है कि यदि दुनियां के सभी व्यक्ति एक साथ इतनी राशि की गेंद ,एक गेंद एक व्यक्ति प्रति सेकेंड की दर से गिनें तो पूरा गिनने के लिए लाखों वर्ष लग जाएंगे .

लेकिन सवाल है कि इस समस्या का कोई हल भी है ? इस क्यूब का आविष्कारक इस उलझन को एक मिनट से भी कम समय में सुलझा सकता है.

आज दौड़ रुबिक क्यूब को हल करने की नहीं है. वह तो संसार में हजारों व्यक्ति कर सकते हैं. दौड़ इसे प्रतियोगिता के स्तर पर कम से कम समय में हल करने की है.

Saturday, September 21, 2013

अद्भुत कला है : बातिक

                                                                                                                                                                                                                                     
  अक्सर हमें नए या कुछ पुराने कपड़ों पर लगे कुछ पैबंद दिख जाते हैं.जो कोई नक्काशी या कुछ पेंटिंग लिए हुए भी होते हैं.नए या कुछ पहने हुए कपड़ों पर  मामूली खरोंच लग जाने या कपड़ों के  रंग हलके  पड़ जाने पर कपड़ों को नया रंग देकर चमकाने की विधा पुरानी है.इसे बातिक भी कहा जाता है.

आज अत्याधुनिक प्रतीत होने वाली बातिक कला दो हजार वर्ष पुरानी है.पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार मिस्त्र तथा फारस में लोग बातिक कला के बने हुए वस्त्र पहनते थे.इसी प्रकार भारत,चीन,तथा जापान में बातिक कला के बने हुए परिधान पहनते थे.भारत,चीन तथा जापान में बातिक शैली में छपे हुए कपड़ों का प्रचलन था. चीन तथा जापान में बातिक कला में रंचे -पगे वस्त्र अभिजात्य वर्ग की पहली पसंद थे.

बातिक कला के प्रचलन के संबंध में कई मत हैं.कुछ लोगों का ख्याल है कि यह कला पहले -पहल भारत में जन्मी.जबकि कुछ लोगों के अनुसार इस कला की उत्पत्ति मिस्त्र में हुई.एक विचार यह भी है कि धनाभाव के कारण लोग अपने फटे - पुराने  कपड़ों को तरह -तरह के रंगों से रंगते थे.यह कला यहीं से शुरू हुई.

'फ्लोर्स ' के रहने वाले कपड़ों का भद्दापन छिपाने के लिए इन्हें गहरे नीले रंग में रंग कर पहनते थे.साथ ही,चावल के माड़ का प्रयोग करते थे ताकि कपड़ों में करारापन आ जाए इससे कपड़ों पर धारियां पड़ जाती थीं.इसी से बातिक कला का प्रारम्भ हुआ आगे चलकर चावल के आटे की जगह मोम काम में लाया जाने लगा.इसमें भी धारी पड़ने से डिज़ाइन बनते हैं.

कुछ पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार यह कला जावा  द्वीप से शुरू हुई.'द आर्ट एंड क्राफ्ट इन इंडोनेशिया' नामक पुस्तक में एक शब्द है 'इम्बातिक',यानि वह कपड़ा जिसमें छोटे - छोटे टिक के निशान पड़े हों.

शुरू - शुरू में जावा में घर के बने कपड़े ही बातिक शैली में रंगे जाते थे.यह भी कहा जाता है कि मार्कोपोलो या उससे पूर्व जावा पहुँचने वाले सुशिक्षित मुस्लिमों ने इस द्वीप की मौसम के अनुरूप कपड़ा बनाना शुरू किया उस समय प्रत्येक धनी व्यक्ति के कोट के बाजुओं पर बातिक के डिज़ाइन बने होते थे.हर जाति के मुखिया के घर में इसके नमूने मिलते थे.1613 से 1645 तक जावा में सुलतान हाजी क्रिकुस्को ने राज्य किया था.उनके समय में इस कला ने विशेष उन्नति की.अनुमान है कि यह कला 12वीं सदी में जावा पहुंची.तत्कालीन मंदिरों में स्थापित मूर्तियों के वस्त्रों पर बातिक कला के अनेक श्रेष्ठ नमूने मिलते हैं.

पहले जावा में केवल राज दरबार की स्त्रियाँ बातिक के कपड़े पहनती थीं. फिर साधारण समाज की स्त्रियों ने भी उन्हें अपना लिया. ऐसे कपड़े अभिजात - वर्गीय होने का प्रतीक बन गए.धीरे-धीरे ये वस्त्र जन -साधारण में लोकप्रिय होते गए.

ऐसे ही लोकप्रिय वस्त्रों में था सारंग,जिस पर भांति -भांति के फूल ,पत्ते ,चिड़ियाँ ,घोंघे ,मछलियाँ तथा तितलियाँ बनी होती थीं.जावा में बातिक की कला इतनी लोकप्रिय हुई कि सजावट की वस्तुओं में भी बातिक कला का उपयोग किया जाने लगा.जावा में डचों के आगमन के बाद यह कला हॉलेंड तथा यूरोप के अन्य देशों में प्रसिद्ध हो गई.आरम्भ में तो बातिक कला वहां के कारीगरों तथा चित्रकारों के लिए चुनौती का विषय बन गई,परन्तु शीघ्र ही उन्होंने बातिक कला के लिए अधिक सुविधापूर्ण उपकरण ढूंढ निकाले ,जैसे चित्र वाले वस्त्रों को सुखाने की मशीन ,जो जावा -वासियों के पास नहीं थी लीव्यू तथा पीटर मिजार जैसे चित्रकारों ने बहुत ही सुन्दर चित्र तैयार किये थे.इसी तरह डिनशौल्फ़ तथा स्लाटन आदि ने भी अद्भुत चित्र बनाये.इससे पूर्व वे कलाकार केवल तैल रंगों तथा ब्रश से ही चित्र बनाते थे.अब उन्हें मोम की बूंदों से बनी इस कला ने आकर्षित कर लिया.

धीरे -धीरे बातिक कला का पंजीकरण होता गया.कलाकारों ने मशीनों द्वारा छापकर सूती कपड़े तैयार किये. उसी प्रकार की धारियों (क्रैफिल) की भी नक़ल की गई ताकि वे बिल्कुल बातिक के सामान ही लगें.लगभग चालीस पचास वर्षों तक बातिक की गणना यूरोप की उच्च कलाओं में होती रही.

साधारणतया,मोटे कपड़े पर बातिक नहीं बन सकता ,क्योंकि रंग तथा मोम अंदर तह तक नहीं जा सकता. इसके लिए सिल्क का कपड़ा अच्छा होता है. मोटे सिल्क,ब्रोकेड तथा वेल्वेट पर पर भी बातिक बन सकते हैं.

ध्यान देने की बात यह है कि नायलोन जैसे कपड़े पर बातिक नहीं बनता.कपड़ा जितना  चिकना तथा मुलायम होगा,कला उतनी ही सुंदर उभरेगी.

नए कोरे कपड़े  पर बातिक बनाने से पूर्व उसे धोकर,सुखाया जाता है.इस तरह कपड़ा पहले ही सिकुड़ जाता है.बाद में मोम लगाकर बातिक किया जाता है.

यद्यपि पानी तथा तैल रंगों की चित्रकारी की अपेक्षा बातिक की अपनी कुछ सीमाएं थीं ,फिर भी चित्रकारों ने उसमें कुशलता प्राप्त कर ली. बातिक कला में अगर प्रारंभ  में कोई गलती हो जाय तो उसे सुधारा नहीं जा सकता.
जबकि तैल रंगों में यह बहुत ही आसन है. बातिक के अनुसार बनाई गई ग्राफिक कला का भी प्रचलन बहुत बढ़ा.

आजकल इंडोनेशिया में पुरुषों ने रंगाई तथा स्त्रियों ने छपाई का काम प्रारंभ कर दिया है.जावा में बसे चीनियों के गाँव के गाँव इस कला में लग गए हैं.वहां इस  कला पर चीनी कला का पूरा प्रभाव है.ये लोग सूती कपड़ा उपयोग में लाते हैं.यह छपाई में आसान तथा पहनने में भी सुविधापूर्ण होता है. 


आधुनिक शैली में बातिक  कला की कई डिजाइनें बनाई जा रही हैं.इंडोनेशिया तथा अन्य पूर्वी देशों में यह मूल शैली में ही तैयार किया जाता है पश्चिम में बातिक की नक़ल के ठप्पे तैयार करके मशीन द्वारा छपाई की जाती है.इस कला में मंजे हुए कलाकार ही सुंदर चित्र बना पाते  हैं क्योंकि रेखाओं का बहुत साफ़ तथा एक  स्थान पर होना बहुत जरूरी है.उसे रंगों का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है क्योंकि रंगों को एक दूसरे पर चढ़ाकर चित्र  बनाये जाते हैं.

Friday, September 13, 2013

कितना चमत्कारी है : रुद्राक्ष

              

                                                          

पिछले कई दिनों से मोबाईल पर आ रहे एक संदेश ने चौंका दिया.संदेश था,यदि आप रुद्राक्ष खरीदना चाहते हैं  तो इस नंबर पर संपर्क करें.चूँकि, इस तरह के संदेश हमेशा आते ही रहते हैं एवं घर में पहले से ही रुद्राक्ष की एक माला पूजाघर में रखी हुई है ,जो शायद  बनारस से लायी गई थी,इसलिए इस संदेश का कोई जबाब नहीं दिया. लेकिन रुद्राक्ष के बढ़ते महत्व पर जरूर ध्यान गया.

यह निर्विवाद है कि रुद्राक्ष में कोई शक्ति अवश्य है ,तभी तो साधु -संतों और योगियों ने इसकी चमत्कारिक शक्ति से अभिभूत  होकर इसे अपनाया ,लेकिन वह शक्ति है कौन सी है, यह शोध का विषय है.

प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्म में रुद्राक्ष की महिमा का वर्णन मिलता है. भारतीय जन मानस में रुद्राक्ष के प्रति अनन्य श्रद्धा है. संस्कृत ,गुजराती ,हिंदी और मराठी एवं कन्नड़ में इसे रुद्राक्ष के नाम से जाना जाता है. लैटिन में इसे 'इलियोकार्पस  गैनीट्रस' कहा जाता है. रुद्राक्ष स्वाद में खट्टा ,रुचिवर्धक ,वायुकफ़ नाशक है. शहद के साथ घिसकर देने से यह मधुमेह में लाभ पहुंचाता है. गले  एवं हाथ में बांधने से यह रक्तचाप को नियंत्रित रखता है. सोने ,चांदी या ताम्बे के संसर्ग से इसके गुणों में वृद्धि होती है.

रुद्राक्ष के पेड़ एशिया खंड में विषुवत रेखा के प्रदेश ,प्रशांत महासागर के टापुओं एवं आस्ट्रेलिया के जंगलों में पाये जाते हैं. मलाया ,जावा ,सुमित्रा ,बोर्नियो में रुद्राक्ष के पेड़ बहुतायत से प्राप्त होते हैं. नेपाल,बर्मा(म्यांमार) में भी इसके पेड़ हैं. भारत में सह्याद्रि पर्वतमाला में कहीं -कहीं ये दृष्टिगोचर होते हैं.

रुद्राक्ष का पेड़ लगभग पचास -साठ फुट ऊँचा होता है,शाखाएं सीधी एवं लंबी होती हैं. पत्ते नागरबेल के पत्तों से मिलते -जुलते लंबवर्तुलाकार ,स्पर्श में कुछ रूक्ष होते हैं. पके पत्तों का रंग लाल होता है एवं फलों का गहरा आसमानी. फल पकने को आते हैं तब नीचे गिर जाते हैं. ऊपर का आवरण निकल देने पर अंदर से जो बीज निकलता है ,उसे ही रुद्राक्ष कहते हैं.

मुख्यतः इसकी दो जातियां होती हैं ,छोटे आकार में एवं बड़े आकार में,बेर की तरह. छोटे आकार के रुद्राक्ष की कीमत अधिक होती है.रुद्राक्ष के बीज पर लकीरें अंकित होती हैं ,जो सामान्यतः पांच होती हैं.  इन्हें रुद्राक्ष के मुखों के नाम से जाना जाता है. छोटे आकार के रुद्राक्ष पर ये लकीरें स्पष्ट नहीं होतीं.

एकमुखी रुद्राक्ष से लेकर चौदह मुखी रुद्राक्ष तक का  वर्णन मिलता है. कहा जाता है कि कई प्रमुख हस्तियों  ने रुद्राक्ष  को धारण  करने के बाद अभूतपूर्व सफलता अर्जित की एवं उनका व्यक्तित्व भी प्रभावशाली बना.
एकमुखी रुद्राक्ष का मिलना बहुत कठिन है.

रुद्राक्ष की पहचान न होने से बहुत से लोग नकली रुद्राक्ष को ही असली समझ कर ले लेते हैं. बेर की गुठली को भी थोड़ा आकर - प्रकार  देकर रुद्राक्ष में खपा दिया जाता है. इसके अलावा रासायनिक मिश्रण से भी नकली रुद्राक्ष तैयार किया जाता  है.  भद्राक्ष नाम कफल और रुद्राक्ष में नाम के साथ -साथ रूप में भी साम्यता होने से लोग भद्राक्ष को भी रुद्राक्ष समझ लेते हैं. रुद्राक्ष की सामान्य पहचान यह है कि वह पानी में डूब जाता है. दो
ताम्बे की प्लेटों के बीच में रखने पर वह घूम जाता है.

रुद्राक्ष के 32 मनकों की माला गले में धारण करने पर सर्दी से दुखते गले को आराम मिलता है ,ज्वर आदि उतर जाता है. गले की अन्य बिमारियों एवं टॉन्सिल्स में भी लाभदायक माना जाता है. ऐसा लगता है कि साधु -संतों और योगियों ने इसकी चमत्कारिक शक्तियों के वशीभूत होकर ही इसे अपनाया था. रुद्राक्ष में या तो कोई  औषधीय गुण सन्निहित है ,या कोई अदृश्य एवं चुंबकीय शक्ति.लेकिन इनमें शक्ति विद्यमान है,यह अभी शोध का विषय है. लेकिन रुद्राक्ष में कोई  शक्ति अवश्य है,इससे इंकार नहीं किया जा सकता.  

Sunday, September 8, 2013

एक कोना : मेरे दिल का

                      
                                                                                                
                   






खिलौनों की बारात गुड़ियों की शादी  
तेरा शहजादा मेरी शहजादी
तुम्हें याद हो या हो याद लेकिन 
मुझे याद आते हैं बचपन के वो दिन.……. 

जानी बाबू की यह नज्म अरसे से मेरे जेहन में है .जब कभी भी इसे सुनता हूँ ,बचपन की यादों में खो जाता हूँ.  बचपन की यादें ताउम्र हमारे साथ रहती हैं.रह - रह कर पुरानी धुंधली यादें मन को कुरेदती भी रहती हैं.   एक बार उन यादों को कुरेदने की कोशिश करने पर ,  यादों का एक रेला सा गुजर जाता है .आँख बंद कर उन  पलों को महसूस करने का प्रयत्न करता हूं जो बचपन में  बिताए थे .

स्कूल के दिन ,सहपाठियों के साथ बिताये पल ,बहनों के साथ छोटी-छोटी बातों पर लड़ना- झगड़ना,फिर सुलह,जैसे कल  की ही बात हो .छोटी -छोटी जरूरतों के लिए भाई ,बहनों पर  कितना निर्भर रहते हैं   ,यह विवाह एवं उनकी विदाई के बाद ही पता चलता है . जो भावनात्मक लगाव छोटी उम्र में पनप जाते  हैं  वे समय के अन्तराल में फीके नहीं पड़ते.   

आज ,जब वे इतनी दूर हैं कि साल में एकाध बार ही मुलाकात हो पाती है.गर्मियों की छुट्टियों में घर आने पर हर वक्त कोशिश करता हूँ कि किसी तरह की तल्खी न हो. पर ऐसा हो कहाँ पाता है. किसी न किसी बात पर बतकही शुरू न हुई कि एक - दो दिन बोलचाल बंद. फिर सुलह मैं ही करता हूँ. रक्षाबंधन के कई दिन पहले से फोन आना शुरू हो जाता है कि राखी  भेजी है डाक से, मिली है या नहीं .राखी  तो  मिल जाती है ,लेकिन कैसे बताऊँ कि मैं उन्हें बहुत मिस करता हूँ .मेरे दिल के एक कोने में आज भी  बचपन की यादें बसी हुई हैं . उन्हें याद करने के लिए किसी खास दिन की जरूरत नहीं पड़ती. 

शुरूआती शिक्षा - दीक्षा मन पर कहीं गहरे असर कर जाती हैं. बाल मन सीखने को आतुर रहता है. ऐसे में  प्रारंभिक शिक्षा का प्रभाव लम्बे समय तक रहता है. मुझे आज भी याद आते हैं वे शिक्षक जो शिक्षक नहीं बल्कि परिवार के सदस्य जैसे लगते थे.  रामायण और महाभारत के अनछुए प्रसंगों को सुनाकर,आगे की कहानी जानने  की उत्सुकता बढ़ा देते. हम सभी भाई -बहनों की प्रारंभिक शिक्षा में उनका विशेष योगदान है. 

उम्र के पड़ाव में ये बातें और भी याद आती हैं. तेज रफ़्तार जिन्दगी की भाग-दौड़ में ये और भी अहम् है कि हम न केवल बचपन की यादों को संजोकर रखते हैं,बल्कि उन यादों को ताजा भी कर लेते हैं.    

Sunday, September 1, 2013

कोलाज जिन्दगी के












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अगर  हम जिन्दगी को गौर से देखें तो यह एक कोलाज की तरह ही है. अच्छे -बुरे लोगों का साथ ,खुशनुमा और दुखभरे समय के रंग,और भी बहुत कुछ जो सब एक साथ ही चलता रहता है.

कोलाज यानि ढेर सारी चीजों का घालमेल. एक ऐसा घालमेल जिसमें संगीत जैसी लयात्मकता हो ,तारतम्य हो और इससे भी अधिक एक अर्थ्वर्ता हो.

सचमुच ,जिन्दगी एक कोलाज की तरह ही तो है. सुख-दुःख की छाया ,प्रेम स्नेह ,वात्सल्य के रंग तो बिछोह , तड़पन ,उदासी के रंग भी दिखाई देते हैं. कईयों को तो जिंदगी एक शानदार रंगीन समारोह की तरह लगती है. तो किसी को जिन्दगी पहेली लगती है. जिसने जीवन के मर्म को समझ लिया वह ज्ञानी हो गया.

क्या आपने किसी पेड़ या किसी चिड़िया को रोते हुए देखा है. यह तो इंसान है जो दर्द या निराशा से रोता है. अभिव्यक्ति का माध्यम  इंसान ने अलग -अलग तरीकों से ढूंढ ही लिया है.

अंग्रेजी में एक कहावत है कि  - 'यशस्वी जीवन का एक व्यस्त घंटा कीर्तिहीन युग -युगान्तरों से बेहतर है'.
यह भी प्रश्न उठता है कि यदि सुख से दुःख ही अधिक होता तो अधिकांश लोगों के विचार बदल जाते ,क्यूंकि तब उन्हें यह मालूम हो जाता कि संसार दुखमय है तो जीवन का अर्थ क्या ?अक्सर ऐसा देखा जाता है की इंसान अपनी आयु से अर्थात जीवन से नहीं उबता.इसलिए यही अनुमान किया जाता है कि इस दुनियाँ में इंसान को दुःख की अपेक्षा सुख ही अधिक मिलता है.

जीवन को दायरों में नहीं बांधा जाना  चाहिए. हर मनुष्य तभी तक अपना जीवन जीने के लिए स्वतंत्र है,जब तक कि उसकी जीवन पद्धति किसी को कोई कष्ट नहीं पहुंचाती . विडंबना यही है की हम दुसरे के जीवन को अपने विचारों से तौलते हैं ,प्रत्येक चरित्र को वैसे ही स्थापित करते हैं ,जैसा हम चाहते हैं,उनसे व्यव्हार भी वैसा ही करते हैं,जैसा हमारा मन विचार कर पाता है.

बहरहाल ,जीवन को जीने और देखने का नजरिया  सबका अलग - अलग है, फिर भी जीवन के विविध रंग ,यानि कोलाज  हर इंसान में दृष्टिगोचर होते हैं.

आचार्य राम विलास शर्मा कहते हैं.…………
पीड़ा को उसकी प्रकृति भूल 
दुःख को भी सुख सा मधुर मान 
मैं ह्रदय लगाता बार - बार 
तेरा कोई उपहार जान.…