Monday, January 13, 2014

मकर संक्रांति और मंदार

मंदरांचल का विहंगम दृश्य 
मंदरांचल पर्वत अति प्राचीन काल से ही वर्तमान बौंसी की तपोभूमि पर समाधिस्थ है.बौंसी का प्राचीन नाम ‘वालिशानगरी’ था,जिसे कुबेर के पुत्र हेमेन्द्र ने अपनी माँ की स्मृति में बसाया था.वर्तमान बिहार के भागलपुर प्रमंडल के बांका जिला अंतर्गत बौंसी प्रखंड में मंदारहिल रेलवे स्टेशन से तीन किलोमीटर की दूरी पर उत्तर में मंदार पर्वत अवस्थित है. 

चीर और चांदन नदी के मध्य अवस्थित मंदरांचल,जिसे आज हम मंदार पर्वत कहते हैं, पुरातन धर्मग्रंथों के अनुसार सागर मंथनोपरांत सृष्टि की प्रक्रिया में इसका योगदान श्रेष्ठ रहा है.मंदरांचल के दोनों ओर बहने वाली चीर और चांदन नदी यहाँ से 50 किलोमीटर दूर प्रवाहित पुण्यसलिला गंगा की ही उपनदियाँ हैं.इन्हीं उपनदियों के कारण मंदरांचल की पहचान की गई है.इन उपनदियों का वर्णन वृहद् विष्णुपुराण में इन शब्दों में की गई है.......

चीर चांदनर्योमध्ये मंदारो नाम पर्वतः |
तस्या रोहन मात्रेण नरो नारायणो भवेत् ||

विष्णु अवतार भगवान मधुसूदन के एकमात्र मंदिर तथा मंदार पर्वत के लिए बिहार का यह बांका जनपद पहचाना जाता है.पुरातत्ववेत्ताओं ने इस बात की पुष्टि की है कि यह पर्वत नगाधिपति पर्वतराज हिमालय से भी वृद्ध है.

    
पापहरणी सरोवर के मध्य भव्य अष्टकमल  मंदिर 


समुद्र मंथन की आकृति 












बौंसी के मधुसूदन मंदिर का मकर-संक्रांति पर्व हमारे धार्मिक पर्वों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है.यह महापर्व है जो पूरे वर्ष में एक बार ही आता है.इस पर्व के लिए सूर्य का सतभिषा नक्षत्र में होना आवश्यक है.मकर संक्रांति फलित ज्योतिष के अनुसार एक लग्न होता है.खगोलशास्त्र के अनुसार मकर-संक्रांति वह लग्न है,जब दक्षिणी गोलार्द्ध में सूर्य लंब रूप से मकर रेखा पर रहता है.इसे शीत सम्पात भी कहा जाता है.
                                                             
वाल्मीकीय रामायण,रामचरितमानस,स्कन्दपुराण,युद्धपुराण,वृहद् विष्णुपुराण,गरूड़ पुराण,गणेश पुराण,शतपथ ब्राह्मण,अमरकोष,कुमार संभवम्,श्री श्री चैतन्य चरितावली के अलावा,उत्तर मध्यकाल के स्वनामधन्य कवि भूषण ने भी मंदरांचल की चर्चा की है.
मधुसूदन मंदिर में भगवान मधुसूदन 

बौंसी स्थित मधुसूदन मंदिर 















मंदरांचल से 5 किलोमीटर की दूरी पर बौंसी अवस्थित है,जहाँ इस समय भगवान मधुसूदन का मंदिर है.वाल्मीकीय रामायण के सुंदरकाण्ड में महर्षि ने कई स्थानों पर इस पर्वत की चर्चा की है....

या भांति लक्ष्मिर्भुविमंदरस्था
यथा प्रदोषेषु च सागरस्था |
तैयव तोयेषु च पुष्करस्था
राज सा चारू निशाकस्था ||
हंसो यथा राजत पंजरस्थः
सिंहो यथा मंदर कंदरस्थः ||

‘मंदरांचल’ मंदार या मंदर शब्दों से बना है.रामचरित मानस में मंदार के हाथ तथा पंख इन्द्र द्वारा काटे जाने की चर्चा है.कहा जाता है कि प्रथम पूज्य गणपति ने ‘मंदर’ की तपस्या के वशीभूत होकर इस पर्वत का नाम मंदार रख दिया.

पौराणिक कथाओं से विदित होता है कि सृष्टि निर्माण हेतु सागर मंथन में इसी पर्वत को धुरी बनाकर बासुकी नाग को मंथन दंड के रूप में प्रस्तुत किया गया.यह भी कि मंदरांचल के ऊपर भगवान मधुसूदन स्वयं विराजते हैं.बताया जाता है कि मंदार शीर्ष पर अवस्थित मंदिरों में भगवान मधुसूदन की ही पूजा होती थी.

भास्कर कृपा से आलोकित एवं भगवान मधुसूदन की शक्ति से आभूषित यह नगरी प्राचीन काल में मणि-माणिक्यों,रत्न जड़ित स्वर्णकलशों से विभूषित प्रासादों,मंदिरों,उद्यानों,विपणियों तथा जलाशयों से शोभित थी.इसे सृष्टि निर्माण स्थली भी कहा गया है.क्षौर महातीर्थ की विशिष्टता से भी यह स्थल विदित है.काशी को भी क्षौर महातीर्थ कहा गया है.कहा जाता है कि क्षौर महातीर्थ से होकर भागीरथी नहीं गुजर सकती,लेकिन काशी इसलिए अपवाद है कि यह नगरी भगवान शंकर के त्रिशूल पर टिकी है.

संस्कृत साहित्य ने तो मंदरांचल के अतीत को वैभव का अमरत्व दिया है.वेदव्यास,वाल्मीकि,तुलसीदास, जयदेव,कालिदास जैसे विद्वानों ने अपनी लेखनी से ‘मंदर’ या ‘मंदरांचल’ को चिर अमरत्व प्रदान किया है.वहीँ भूषण जैसे रीति काल के कवि ने भी अपने काव्य में कहा है ......

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहातीं हैं |

योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जैसे महान योगियों की परम भूमि यही मंदार रही जिनके द्वारा यहाँ स्थापित गुरुधाम आज भी प्रेरणास्रोत बनकर लोगो को एकत्ववाद का पाठ पढ़ा रहा है.इनके प्रिय शिष्य भूपेन्द्र नाथ सान्याल थे.इनके द्वारा स्थापित एक अन्य आश्रम जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) में भी है.

जैन धर्म के बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य की निर्वाण स्थली यही मंदार रही.चंपापुरी एवं मंदरांचल का वर्णन ‘भगवती सूत्र’ (जैनग्रंथ) में भी है.आज भी प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में जैन धर्मावलम्बी यहाँ आते हैं.समय-समय पर यहाँ शाश्वत सत्य अपने-अपने दृष्टिकोण से विवेचनाएं करते रहे हैं.इन्हीं विभिन्न दृष्टिकोणों में ‘सफाधर्म’(सनातन मत की एक शाखा) को जन्म दिया और पल्लवित-पुष्पित भी किया.

वनवासी समुदाय के सफा धर्मावलम्बियों का मकर संक्रांति और मंदार से गहरा संबंधहै.  बिहार,झारखंड,उड़ीसा और बंगाल के इलाकों से सफा धर्मावलम्बी मंदार पहुँचते हैं.मकर संक्रांति के दो दिन पूर्व से ही उनका जुटान मंदार की तलहटी में शुरू हो जाता है.आधी रात जब ठंढ अपने चरम का लबादा ओढ़े रहता है,ये मरांग गुरु और जय मंदार का जयघोष करते हुए पवित्र पापहरणी में कूद पड़ते हैं.पवित्र पापहरणी के स्नान का सिलसिला लगातार जारी रहता है.स्नान के बाद दो दिनों तक उनका पर्वत की तलहटी में ध्यान-साधना और पूजन-अनुष्ठान की लम्बी प्रक्रिया चलती रहती है.मंदार के आस-पास का इलाका वनवासी के बसेरे से गुलजार हो जाता है.जानकारी के मुताबिक,ये सफा स्वामी चंदर दास के शिष्य हैं.पर्वत एवं पापहरणी के बीच उनका मंदिर भी करीब सौ साल पुराना बताया जाता है. 

मंदरांचल की इस पुण्य भूमि ने चरम विकास और ह्रास के जाने कितने काल प्रधान, अचल-अटल सत्य देखे.जैसे-प्रद्योत काल,शुंग काल,शक,सातवाहन काल,मौर्य काल,गुप्त काल और मुग़ल काल होते हुए आधुनिक काल.

यहाँ के प्रसिद्द एवं दर्शनीय स्थल –मंदरांचल,पौराणिक शीर्षस्थ मधुसूदन मंदिर,राम झरोखा,पांचजन्य शंखकुण्ड,नरसिंह गुफा,त्रिशिरा मंदिर के अवशेष,पुष्करणी सरोवर,लखदीपा मंदिर के अवशेष,सफाधर्म मंदिर, बौंसी स्थित मधुसूदन मंदिर आदि प्रमुख हैं.

मंदार विद्यापीठ पर्वत के पूर्व में अवस्थित है.इस ओर से पर्वतराज  का अवलोकन करने पर एक ही पत्थर से निर्मित प्रतीत होता है.इसकी पुष्टि भी स्वतः दर्शनोपरांत हो जाती है.इस पर्वत की सबसे बड़ी विशेषता यही है.
पर्वत आधार में पुष्करणी(पापहरणी) कुण्ड है.किवदंती है कि इसमें स्नान के फलस्वरूप चोल राजा छत्रसेन चर्म रोग से मुक्त हो गए थे. पुरातत्ववेत्ता राखाल दास बनर्जी का मानना है कि इस सरोवर का निर्माण राजा आदित्यसेन की धर्मपत्नी रानी कोण देवी ने 7 वीं शताब्दी में कराया था.

प्रतिवर्ष मकर-संक्रांति तथा रथयात्रा के अवसर पर भगवान मधुसूदन को बौंसी स्थित मंदिर से इस पुष्करणी सरोवर में स्नानार्थ लाया जाता है.पहले इन्हें गजारूढ़ कर लाया जाता था.तदुपरांत,मधुसूदन फगडोल पर इन्हें रख कर  पूजा -अर्चना किये जाने की परंपरा अब भी है.पर्वत के मध्य में एक शंक्वाकार कुण्ड है.इसमें 6 सौ मन यानि सवा छब्बीस हजार किलोग्राम वजन का शंख है.वजन का प्रमाण कहीं-कहीं लिखा है.1920-25 एवं 1985-86 के बीच कुण्ड को साफ़ किये जाने के उपरांत इस शंख को देखा गया.इसे पांचजन्य शंख कहा गया है.नील वर्ण का यह शंख वास्तव में भारतीय शिल्प कला का उत्कृष्ट नमूना है.

पौराणिक प्रसंगानुसार मंदार को धुरी बना कर नागराज बासुकी को मंथन दंड बना कर देवों और असुरों ने कामधेनु(गाय),उच्चेश्रवा(घोड़ा),ऐरावत(हाथी),कौस्तुभमणि,कल्पद्रुम,रम्भा,वारूणी,पारिजात,चंद्रमा,लक्ष्मी, मदिरा, विष,अमृत और शंख जैसे रत्न प्राप्त करने के लिए सागर मंथन किया.श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कंध में वर्णित है.

एक अन्य प्रसंग दैत्य बंधु मधु-कैटभ के वध से संबंधित है.कैटभ का वध कुछ प्रयास से सफल तो हुआ,लेकिन मधु से भगवान विष्णु को लम्बे समय तक युद्ध करना पड़ा.तभी से भगवान 'मधुसूदन' हो गए. 

विद्वानों ने एक ही पत्थर से निर्मित तथा स्तूपरूप में अवस्थित इस सृष्टि तत्व पूर्वज को बौद्ध से जुड़े होने की भी संभावनाएं जुटायी हैं.बौद्ध ग्रंथ 'ललित विस्तार' एवं 'अंगुत्तर निकाय' में इसकी चर्चा की गई है.खुदाई के उपरांत इस पर्वत पर प्राप्त शिव की एक प्रतिमा बुद्ध मंडल की आभा लिए हुए है.इस बात की पुष्टि होती है कि यह क्षेत्र बौद्ध मत से भी किसी न किसी रूप में जुड़ा रहा है.

इस पर्वत पर रात्रि काल में कई व्यक्तियों ने यदा-कदा अलौकिक शक्ति वाले धवल वस्त्रधारी साधुओं को भी देखा है.क्षौर महातीर्थ होने के कारण यह स्थल शक्ति के प्रतीकात्मक स्वरूप में देखा जाता है.कामख्या योनिकुण्ड में तांत्रिक साधना भी की जाती है.अर्थात शक्ति की पराकाष्ठा यहाँ अपरिमित रही है.

प्रकृति के परम प्रसारण को मनीषियों ने धार्मिकता से जोड़ दिया ताकि मानव का संबंध प्रकृति के साथ जुड़ा रह सके.धर्मं का अर्थ ही है,प्रकृति से जुड़ना,जो हमारा परमात्मा है,अद्वितीय है,और वही हमारा ध्येय है.किंतु कुटिल लोगों ने धर्म को अन्धविश्वास से जोड़कर मानवता का बहुत अहित किया है.

आज हम प्रकृति से बहुत दूर होते जा रहे हैं,इतनी कि प्रकृति का विध्वंस करने में थोड़ा भी नहीं हिचकते.यही कारण है कि मानव अधिकतर मनोरोगी,क्रूरभोगी हो गया है.आज हम देवालय में दर्शनार्थ नहीं जाते,केवल ईश्वर से धन-वैभव की याचना करने जाते हैं.

दर्शनार्थी परम सत्ता से अपना सामंजस्य जोड़ने की इच्छा से यदि यहाँ आयें,आत्मज्ञानार्थ आयें तो उन्हें अवश्य लाभ प्राप्त होता है.प्रभु दर्शन आने वाले दर्शनार्थियों के लिए 22 कोटि देवताओं की यह शरण स्थली आज भी मोक्षदायिनी है.यह अन्धविश्वास से हटा कर मन को परमात्मा से जोड़कर सहिष्णुता एवं करूणा को जगाने के लिए जागृत स्थान है.

26 comments:

  1. बिहार का एक और गौरवशाली विवरण, सुन्दर रचना!

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  2. बहुत सुन्दर जानकारी !
    मकर संक्रांति की शुभकामनाएं !
    नई पोस्ट हम तुम.....,पानी का बूंद !
    नई पोस्ट लघु कथा

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  3. मंदार पर्वत के चित्र और व्याख्या .. दोनों की पुरातन इतिहास में ले जाते हैं ...
    लाजवाब पोस्ट ...

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  4. बहुत सुन्दर जानकारी !लोहड़ी कि हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  5. सुन्दर प्रस्तुति-
    आपका आभार-
    मकर-संक्रान्ति की मंगलकामनाएं -

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  6. सुन्दर जानकारी.....

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  7. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति... आपको ये जानकर अत्यधिक प्रसन्नता होगी की ब्लॉग जगत में एक नया ब्लॉग शुरू हुआ है। जिसका नाम It happens...(Lalit Chahar) है। कृपया पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर ..... आभार।।

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  8. humlog Bhagalpur aate-jate dur se hi dekhte hain,yatra ke bich kabhi pas se dekhne ka mauka n mila tha,aapke lekh se kitni jankari mili....sundar prastuti...

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  10. एक बहुत अच्छी और विस्तॄत जानकारी के लिए आपका आभार .....

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  11. बहुत विस्तृत और सुन्दर जानकारी...आभार..

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  12. बहुत ही बढ़िया व विस्तृत जानकारी , राजीव भाई , धन्यवाद
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  13. बहुत ही सुंदर पोस्ट। जानकारी और कथाओं से तथा चित्रों से पोस्ट में चार चांद लग गये। बहुत धन्यवाद इस पोस्ट के लिये।

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  14. बहुत बहुत आभार इस विस्तृत जानकारी के लिए

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  15. नवीन जानकारी , आभार आपका !!

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