Saturday, March 1, 2014

आ गए मेहमां हमारे


उर्दू में कहावत है कि वह गृहस्थ धन्य है जिसके दस्तरख्वान पर कोई अतिथि भोजन ग्रहण करता है क्योंकि परमपिता परमात्मा उस गृहस्थ के ऊपर अनुग्रह कर उसे एक अतिथि की सेवा करने का अवसर प्रदान करते हैं.परन्तु आज के युग में अतिथि-सत्कार को लेकर कभी-कभी बड़ी कटु आलोचना होती है.अतिथि सत्कार के प्रति जो शाश्वत भावना होनी चाहिए उसके विपरीत ही होता है.समाज में भी लोग अतिथि को बहुत ऊँची दृष्टि से देखने को तैयार नहीं हैं,इसका कारण समझा जाता है आज की अर्थव्यवस्था को.वास्तव में इस मनोवृत्ति का कारण आज की अर्थव्यवस्था नहीं वरन आज के सोचने और जीने का ढंग है.

आज की व्यस्ततम एवं अर्थ प्रधान जिंदगी में लोगों के पास अपने परिवार के सदस्यों के लिए ही वक्त नहीं होता तो अतिथियों के सत्कार की बात ही अलग है.शहरों की जुदा जीवन शैली,पति-पत्नी की व्यस्ततम जीवन चर्या एवं सीमित आवास के कारण अतिथियों के आगमन पर कई नई 
समस्याओं को जन्म दे जाती है.

आज मनुष्य दिखावे का आदि बन गया है.हर बात में दिखावा,हर बात में आडंबर.यदि दिखावे और आडंबर को हम अतिथि सत्कार से निकल दें तो अतिथि सत्कार हमारा एक कर्तव्य बन जाए.हम यह क्यों भूलें किसी न किसी दिन सभी को अतिथि होना पड़ता है.

अतिथि-स्वागत दावते-शीराजी से करें.एक बार शीराज के निवासी का एक नबाब के यहाँ बड़ी उच्च कोटि का आतिथ्य हुआ.वह हमेशा ‘दावते शीराजी’ ही याद करता रहा.पूछने पर पता चला कि शीराज की दावत.किसी विशेष प्रकार की दावत नहीं थी.वहां की दावतों में अतिथि के साथ घर के अन्य सदस्यों की तरह से व्यवहार होता था और जैसा खाना-पीना रोज घर के लोग करते वैसा ही मेहमान को भी खिलाते थे.इस तरह मेहमाननवाजी करने वाले को किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं होती,मेहमान को भी संकोच नहीं होता था.कौन नहीं जानता कि भगवान राम का तो भीलनी ने अपने जूठे बेरों से ही स्वागत किया था.

हितोपदेश में तो यहाँ तक कहा गया है कि आपके पास कुछ भी न हो तो मीठा बोलकर ही अतिथि-सत्कार करें.यदि आप सच्चाईपूर्वक अतिथि के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते हैं तो अतिथि आपकी सीमाओं को समझ सकेगा तथा आपके प्रति उसमें कोई अविश्वास की भावना नहीं जागेगी.

इमर्सन कहा करते थे कि अतिथि-सत्कार से इंकार करना सबसे बड़ी दरिद्रता है.आतिथ्य के उच्च कोटि का आदर्श कबीर की जीवनी से भी मिलता है.

जयशंकर प्रसाद के अतिथि का रूप तो विलक्षण ही है.वह बिना कोई पूर्व सूचना दिये ही आ जाता है  और उनके ह्रदय–रुपी सूने घर को बसा देता है........

ह्रदय गुफा थी शून्य रहा घर सूना
इसे बसाऊँ शीघ्र बढ़ा मन दूना
अतिथि आ गया एक नहीं पहचाना
हुए नहीं पद शब्द न मैंने जाना

विनोबा भावे का कहना है कि अतिथि आपको एक अवसर प्रदान करते हैं कि आप उनकी सेवा कर सकें.उन्होंने कहा है कि अगर किसी को भूख-प्यास न लगे तो आपको अतिथि-सत्कार का अवसर ही कैसे प्राप्त होगा? अथर्ववेद के अनुसार तो आप अतिथि सत्कार द्वारा अपने पापों का प्रायश्चित भी कर सकते हैं.

अतिथि वास्तव में वह है जो बिना किसी तिथि या सूचना दिये या पहले से बिना किसी जानकारी के आपके पास आ जाए.महामना पंडित मदन मोहन मालवीय तो कभी-कभी अतिथि के कारण अपना आवश्यक ‘अपॉइंटमेंट’ भी छोड़ देते थे.उनका कहना था कि यह काम ईश्वर ने पहले करने के लिए भेजा है,इस कारण पहले इसको पूरा करूंगा,बाद में दूसरा.उन्हें अतिथि को खाली हाथ लौटाने में बड़ा कष्ट होता था.

कहते है कि नामदेव की कुटिया में सड़क वाला आ जाए तो उसे अतिथि मानते थे.बाइबिल ने तो प्राणी-मात्र को परमात्मा का अतिथि स्वीकार किया है.बाइबिल के अनुसार परमपिता परमेश्वर अपने अतिथियों की सारी इच्छाएं पूर्ण करता है.बाइबिल के शब्दों में यही संकेत है.जब ईश्वर स्वयं अतिथि-सत्कार करता है,तब मानव इस पुनीत कार्य में क्यों पीछे रहे.

वास्तव में मानव की शारीरिक भूख-प्यास के साथ-साथ एक मानसिक भूख भी है जो केवल एक दूसरे के व्यवहार से ही तृप्त हो सकती है.पश्चिमी देशों से लौटे हुए कई लोगों का वर्णन है कि जैसा व्यवहार उन्हें वहां मिला उसे कभी नहीं भुला सकते.

गोस्वामी तुलसीदास ने आतिथ्य स्वीकार करनेवालों को कुछ चेतावनी भी दी है.उनका कहना है कि जिसके यहाँ आप जा रहे हैं उसके नेत्रों में आपके लिए प्यार भरी दृष्टि न हो तो वहां पर चाहे सम्पूर्ण प्रकार की सुविधाएं क्यों न हों,वहां जाना श्रेयस्कर नहीं है.उन्होंने कहा है........

आवत हिय हरषे नहिं, नयनन नाहीं सनेह
तुलसी तहां न जाइए कांचन बरसे मेह |  

25 comments:

  1. क्या क्या कहें किस पर कहें
    पता नहीं कुछ हो गया है
    लेकिन जमाने को जरूर :)

    बहुत खूब !

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  2. कल 02/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  3. बहुत सुंदर लिखा आप ने और सच

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  4. बहुत अच्छा लिखा है आपने...यहाँ तो अतिथि को भगवान का दर्ज़ा दिया गया है..

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  5. वाह बहुत सुन्दर आलेख आदरणीय सर।

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  6. Bahut Acha, par 15 ghante kaam karnae vale ko na to log apne yahan bulana chahte hain na vo kisi ko apne yahan :)

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    1. सादर धन्यवाद ! राकेश जी. व्यस्तता के बीच भी बहुत कुछ सार्थक हो सकता है. आभार.

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  7. Aapke vichar prabhavshali hain...

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  8. बहुत अच्छी प्रस्तुति/ इसलिए तो साथी कहीं नहीं जाता .....हा हा

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  9. आपकी इस प्रस्तुति को शनि अमावस्या और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  10. जयशंकर प्रसाद के अतिथि का रूप तो विलक्षण ही है.वह बिना कोई पूर्व सूचना दिये ही आ जाता है और उनके ह्रदय–रुपी सूने घर को बसा देता है........

    कितने सुंदर भाव कुसुम ...

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  11. ''अतिथि देवो भव'' का मूलमंत्र वैदिक काल से ही चला आ रहा है जो धीरे धीरे हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गई, लेकिन आज की इस भागदौड़ भरी जिन्दगी में जब लोग समय का रोना रोते हैं और अपनी पूरी दुनिया अर्थोपार्जन करने और अपने परिवार तक ही सिमित रखने की सफल कोशिश करने में लगे हैं, उस समय में आपके द्वारा इस तरह का आलेख प्रस्तुत करना निश्चय ही कुछ सोचने पर मजबूर करता है, कि हम कितना कटते जा रहे हैं अपनी संस्कृति से, उस संस्कृति से जिसकी दुहाई देकर हम स्वंय को वैश्विक परिदृश्य में अन्य देशों से भिन्न दिखने का दिखावा करते हैं |
    पुनश्च - आपकी इस पंक्ति "गोस्वामी तुलसीदास ने आतिथ्य स्वीकार करनेवालों को कुछ चेतावनी भी है" , में 'भी' और 'है' के बीच 'दी' छूट गई लगती है | प्रणाम

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    1. सादर धन्यवाद ! टाईपिंग की त्रुटि को ठीक कर लिया गया है.
      आभार.

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  12. हमारा मन ही संकीर्ण हो गया है जो दरवाजा खोलना नहीं चाहता ........बहुत सुन्दर आलेख

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  13. सुन्दर लेख

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  14. इस भाग-दौड़ के जमाने में मेहमानों का आना जारी है अतिथि का मिलना लगभग असंभव है.

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    1. सादर धन्यवाद ! राकेश जी. आभार.

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  15. भावपूर्ण ... इसलिए तो अतिथि अ-तिथि है ... अच्छे प्रसंग सम्लित किये हा पोस्ट में ...

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