Thursday, March 20, 2014

कुछ कहते हैं दरवाजे















दरवाजे कुछ न बोलते हुए भी उस गली से गुजरनेवाले राहगीरों से बहुत कुछ कह जाते हैं.द्वार को घर का दर्पण कहना अनुचित नहीं होगा क्योंकि ये दरवाजे अपनी सुरक्षात्मक उपयोगिता से कहीं आगे बढ़कर कला,भावना,वैभव और संस्कृति की रचनात्मक व्याख्या करते हुए या निवास करने वाले की रुचि का परिचय देते हैं.

किसी भी द्वार का किसी इमारत या किसी क्षेत्र के साथ ठीक वैसा ही संबंध होता है जैसा कि चेहरे का रिश्ता शरीर के साथ होता है.भारतीय इतिहास के प्राचीन हिंदू युग में नगरों के वैजयंतद्वार नगर की शान-शौकत के,दुर्गों के सिंहद्वार किले की मजबूती के,भवनों के प्रवेशद्वार महलों की सुंदरता के और देव स्थानों के गोपुरम मंदिर के वैभव के परिचायक माने जाते थे.शहरों के प्रवेशद्वार शाहदरे कहलाते थे तो मकानों के प्रधान द्वार को सदर दरवाजे की संज्ञा दी जाती थी.यहाँ तक कि किसी साधारण स्तर के गृहस्थ का दरवाजा भी उसकी हैसियत का आईना समझा जाता रहा है.

दरवाजों में अपने समय तथा संस्कृति की परंपरा के स्पष्ट प्रभाव पाए जाते हैं और उनके स्वरूप के साथ ही उनके ऐश्वर्य की कहानी भी जुड़ी है.राजपूत काल को दरवाजों की सजावट और कलात्मक उत्कर्ष का काल माना जाता है.राजस्थान में सदर द्वार पोल कहलाते हैं.आमेर महल का ‘गणेश पोल’ प्रसिद्द है.’गणेश पोल’ के ऊपर गणपति का सुंदर चित्रांकन है और साथ ही दरवाजा चारों तरफ से रंगबिरंगे फूलबूटों से सजा हुआ है.इसी तरह सूरज पोल और चाँद पोल जैसे दरवाजे भी लोकप्रिय हैं.

महल चाहे जितने मजबूत पत्थर या ईट चूने से बने हुए हों उनके दरवाजे हमेशा लकड़ी से बनाये जाते थे.दरवाजे के उपयोग और लकड़ी की क्षमताएं परस्पर पूरक होते हैं.अच्छे दरवाजों में उत्तम कोटि की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है.

चंदन की लकड़ी के दरवाजे मंदिरों में लगे हुए आज भी देखे जाते हैं.सागौन,देवदार,शीशम के दरवाजे भी काफी कीमती समझे जाते हैं,जबकि मामूली दरवाजों के लिए साखू की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है.अखरोट की लकड़ी पर कलात्मक नमूने बहुत खूबसूरती से उकेरे जाते हैं लेकिन ये चौखटों में नहीं लगती.

कामदार चौखट और किवाड़ वाले दरवाजे मध्ययुग में तो अत्यंत लोकप्रिय रहे ही हैं बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक प्रभाव में रहे हैं.धीरे-धीरे दरवाजे सादे होते गए और बाद में प्लाईवुड की तख्तों की सूरत में रह गए.नक्श निगारीवाले दरवाजे अक्सर ऊंचे और बड़ी चौखटों वाले होते थे.उनके दिलहे और पल्ले भी वैसे ही नक्काशीदार होते थे जैसे कि चारों तरफ की चौखट होती थी.कभी-कभी तो इसी चौखट में ऊपर गणेश की प्रतिमा काष्ठ शिल्प में ही बनी रहती थी.इन दरवाजों की सजावट में मछलियाँ,गजमुख,शंख,पक्षी भी कहीं-कहीं बने हुए पाए जाते थे.लेकिन फल बूटों का काम सर्वाधिक लोकप्रिय था और जो धातु या पत्थर पर की गई पच्चीकारी की तरह बेहतरीन और गढ़े हुए गहने जैसा हसीन लगता था.

द्वारों की भव्यता बढ़ाने के लिए कभी-कभी इन पर सोने चांदी की चादरें चढ़ा दी जाती थीं या फिर गंगा जमुनी काम बना दिया जाता था.मंदिरों के संदर्भ में ऐसा अब भी मिलता है.चांदी से मढ़े हुए ये दरवाजे अब कहीं-कहीं सादे भी नज़र आते हैं,लेकिन पहले सुंदर पच्चीकारी से सजे होते थे.अयोध्या के सुप्रसिद्ध कनक भवन मंदिर में रजत किवाड़ पर दशावतार का सुंदर चित्रण दर्शनीय है.

सोमनाथ,मथुरा और थानेश्वर के मंदिरों के दरवाजे सच्चे सोने से जड़े मढ़े थे.जिन पर रत्नों से बेल बूटे बने थे और यवन लुटेरों के लालच का निशाना बने थे.कालांतर में सोने की जगह पीतल के गिलाफ चढ़ाए जाने लगे.धातु का प्रयोग केवल सजावट के लिए करने की गरज से लकड़ी के दरवाजों पर पीतल की मीनाकारी की जाने लगी.ऐसे दरवाजे कील फूलवाले दरवाजे कहे जाते हैं.
दरवाजों के आसपास भित्ति चित्रों की सजावट राजस्थानी कला-रुचि का परिचय देती हैं लेकिन इसका प्रभाव हरियाणा,गुजरात,,मालवा और उत्तर प्रदेश में भी पर्याप्त रूप से पाया जाता है.बुंदेलखंड से वाराणसी तक ऐसे द्वारों की भरमार है.

प्राचीन आख्यानों में वर्णित पत्थर के दरवाजे पाषाण युग की देन कहे जाते हैं. लेकिन बाद में भी कहीं न कहीं अस्तित्व में जरूर रहे हैं.लोक गीतों में वज्र किवाड़ का जिक्र मिलता है.पत्थर के दरवाजे अब पुराने किलों में या किसी ऐतिहासिक इमारत में मुश्किल से देखने को मिलते हैं.

पुराने मंदिरों की परंपरा में मंदिरों के शिखर चाहे जितने भी ऊँचे रहते थे उनके द्वार छोटे और नीचे ही रखे जाते थे.शायद प्रवेशार्थी को नत मस्तक होकर प्रवेश करने देने के लिए ही ऐसा प्रयोग रहा हो.परंतु अध्यात्म के गूढ़ अर्थों में इनकी विवेचना बहुत महत्व रखती है.पुरी का जगन्नाथ मंदिर इसका उदाहरण है.

हिंदू रजवाड़ों और मुस्लिम नवाबों के महलों के दरवाजों में जो स्पष्ट अंतर रहा है वो बाद तक हिंदू रईसों और मुसलमान अमीरों के घरों के दरवाजों की पहचान बना रहा.हिंदू सम्राटों या राज्य शासकों के बनवाए हुए द्वार विनायक प्रतिमा,सूर्य,चंद्र यक्ष द्वारपाल जैसे मंगल प्रतीकों या गजकमल,मत्स्य,शंख,चक्र,त्रिशूल, तोरण जैसे शुभ चिन्हों से सजे होते हैं.कलात्मकता की दृष्टि से भी इन द्वारों में उच्चकोटि का शिल्प मिलता है.

गणपति की प्रतिमा प्रायः इन द्वारों के मुकुट पर काठ पर कढ़ी हुई मिलती है,नहीं तो अलग से आला बनाया जाता है जिसमें गणेश की मूर्ति रखी जाती है.दरवाजे के अगल-बगल पर भित्ति चित्र विभिन्न  रंगों से सजे हुए देखे जाते हैं.पुरानी प्रथा में रंग भरने के लिए अबरक,संखिया,हरा कसीस,पीत प्रभा जैसे प्राकृतिक रसायनों का प्रयोग होता था.मुस्लिम दरवाजों में लंबे-लंबे कमानदार फाटक या चौड़ी चौखट में जड़े बड़े-बड़े दरवाजे मिलते हैं.वहां सादगी और मजबूती ही उनका मतलब है.

दरवाजे संकेत के साथ घर के वातावरण,मांगलिक अवसर या ऋतु पर्वों की बात भी करते हैं.द्वार शीर्ष पर विराजे हुए गणेश को पूजा अर्चना देने के लिए ही विवाह में द्वारार्चन की प्रथा है जिसे द्वार पूजा,द्वाराचार या गणेश पूजन कहते हैं.गणेश वंदना के बाद ही दामाद ससुर की ड्योढ़ी में प्रवेश करता है.ठीक इसी तरह बहू अपने ससुराल के आँगन में आने से पहले घर का दरवाजा पूजती है.पंचदेव स्मरण करके उनका प्रतीक ऐपन की थाप से स्थापित किया जाता है.

कहीं-कहीं दरवाजे पर पानी या सरसों का तेल भी गिराया जाता है.नवरात्र में देवी के नाम से कलश में जल भरकर लौंग का जोड़ा और पान के पत्ते डालकर घर के दरवाजे पर दाएं बाएं कुमारिकाएं ढरकौना देती हैं.इसी तरह विवाह के बाद,संतान को जन्म देने के बाद या अष्टमी को देवी पूजन करके आयी हुई औरतें दरवाजे पर ऐपन सिंदूर से पूजा जरूर करती हैं.

दरवाजे पर मीनाकारी की जगमग करती हुई बंदनवार,केले के स्तंभ या मंगलघट इस बात की सूचना देते हैं कि इस घर में अभी-अभी जल्दी ही विवाह,मुंडन या यज्ञोपवीत जैसा कोई शुभ काम हुआ है.विवाह में जब घर के भीतर लोक आलेखन में एक कक्ष में मैहर देवी की स्थापना करके ‘कोहबर’ बनाया जाता है तो देवी के द्वारपाल दरवाजे पर उसी समय एक विशेष आलेखन में अंकित किये जाते हैं.

आम के पल्लवों का बंधा हुआ तोरण द्वार घर में हुए किसी धार्मिक आयोजन,पूजन या हवन आदि का संकेत करता है.दरवाजे के कोने पर टंगी हुई अमलतास की पत्तियां, दीपावली के त्यौहार का समाचार देती हैं.दरवाजे के पास रखा हुआ गोबरधन और चिराग घर में हुई अन्नकूट की पूजा का विवरण प्रस्तुत करता है.रक्षाबंधन पर्व की सूचना द्वार पर दोनों तरफ लिखे गए राम-राम के आलेख से भी मिलती है.पर्वतीय अंचल में द्वार पर सजे फूल और बंगाल में दरवाजे पर सजी अल्पना, पर्व की पहचान है.दक्षिण भारत में हर दिन दरवाजे पर रंगोली डालने की परंपरा है.

शुभ घड़ी शुभ मुहूर्त देखकर दरवाजा बड़े विधान के साथ रखा जाता है.इसके लिए पंडित बुलाए जाते हैं जिनके द्वारा पीली पोटली में चावल,हल्दी,सुपारी और लोहे का छल्ला बांधकर चौखट को आमंत्रित किया जाता है,राजमिस्त्री उसे यथास्थान लगते हैं.इसे देहरी रखना भी कहते हैं.इसका आशय यही है कि ये घर और द्वार घरवालों को शुभ हो.

दरवाजे को लेकर और भी मधुर भावना घरवालों के मन से जुड़ी रहती हैं.विवाहित बेटियों में मायके के मोह की बहुत कुछ संवेदनाएं बाबुल की देहरी से जनम भर जुड़ी रहती हैं.सबसे गले मिलकर नव विवाहिता अपने गंतव्य की ओर बढ़ती हैं.विवाह के लाल जोड़े में पिता के घर से निकलने वाली ये भी जानती हैं कि उसके और उस घर के द्वार के बीच अब कितने फासले हो गए हैं...........

अंगना तो परबत भयो
देहरी भई बिदेस
ले बाबुल घर आपना मैं चली पिया के देस.....  

45 comments:

  1. सादर प्रणाम सर!.........................................कुछ हटकर, कुछ अलग.......लगा आपका यह पोस्ट................

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर धन्यवाद ! अनिल जी. आभार.

      Delete
  2. सुंदर एवं रोचक आलेख.

    ReplyDelete
  3. सादर प्रणाम |
    बहुत सुंदर लेखन |
    बहुत आनंद आया |
    unlimited-potential

    ReplyDelete
    Replies
    1. सादर धन्यवाद ! अजय जी. आभार.

      Delete
  4. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (21.03.2014) को "उपवन लगे रिझाने" (चर्चा अंक-1558)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें, वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।

    ReplyDelete
  5. बहुत सुंदर लेख..आभार..

    ReplyDelete
  6. बहुत ही बढ़िया व शानदार लेख , राजीव भाई धन्यवाद
    प्रकाशन -: बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ अतिथि-यज्ञ ~ ) - { Inspiring stories part - 2 }

    ReplyDelete
  7. बहुत ज्ञानवर्द्धक पोस्ट.

    ReplyDelete
  8. इस विषय पर अब तक कोई लेख नहीं पढ़ा था .,जानकारी से भरा सुरुचिपूर्ण विवरण .आभार !

    ReplyDelete
  9. किसी भी द्वार का किसी इमारत या किसी क्षेत्र के साथ ठीक वैसा ही संबंध होता है जैसा कि चेहरे का रिश्ता शरीर के साथ होता है.भारतीय इतिहास के प्राचीन हिंदू युग में नगरों के वैजयंतद्वार नगर की शान-शौकत के,दुर्गों के सिंहद्वार किले की मजबूती के,भवनों के प्रवेशद्वार महलों की सुंदरता के और देव स्थानों के गोपुरम मंदिर के वैभव के परिचायक माने जाते थे.शहरों के प्रवेशद्वार शाहदरे कहलाते थे तो मकानों के प्रधान द्वार को सदर दरवाजे की संज्ञा दी जाती थी.यहाँ तक कि किसी साधारण स्तर के गृहस्थ का दरवाजा भी उसकी हैसियत का आईना समझा जाता रहा है.

    कला और इतिहास की भव्य झांकी प्रस्तुत करती पोस्ट

    ReplyDelete
  10. bahut sundar gyanwardhak aur emotional lekh ....ma -pitajee ke bad darwaaje hamesha unki upasthiti ka ahsas karate hain ..

    ReplyDelete
  11. दरवाजों का महत्व और उसका रोचक इतिहास बताता है आपका ये बेहतरीन लेख। सादर।।

    नई कड़ियाँ : विश्व किस्सागोई दिवस ( World Storytelling Day )

    विश्व गौरैया दिवस

    ReplyDelete
  12. बहुत विस्तृत और रोचक जानकारी...आभार

    ReplyDelete
  13. दरवाजे कुछ न बोलते हुए भी उस गली से गुजरनेवाले राहगीरों से बहुत कुछ कह जाते हैं.............यह पहला वाक्य ही न जाने क्यों किन्तु मुझे सबसे आकर्षक और भावपूर्ण लगा .........वाह

    ReplyDelete
  14. हर दरवाज़ा ये कहता है...कि अंदर इसके कौन रहता है...

    ReplyDelete
  15. आपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएँ !
    कल 23/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

    ReplyDelete
  16. हर द्वार कुछ कहता है ...
    सुंदर आलेख

    ReplyDelete
  17. ज्ञानवर्धक और रोचक आलेख....

    ReplyDelete
  18. रोचक और नई जानकारी। आभार।।

    ReplyDelete
  19. दरवाजों में इतिहास छुपा है .. इस बात को साक्षात अवगत कराती हुई पोस्ट ... रोचक और जानकारी लिए ...

    ReplyDelete