कहते हैं कि केवल धरती ही बंजर नहीं होती,कभी-कभी आदमी का मन भी बंजर हो जाता है. उसमें उल्लास,उमंग के कोई फूल नहीं खिलते.
‘रेणु’ के ‘परती परिकथा’ को पढ़ते समय ऐसा ही आभास हुआ.कोसी के अंचलों में बरसों रहा हूँ. कोसी के विभिन्न क्षेत्रों में घूमा हूँ.तब ऎसी अनुभूति नहीं हुई क्योंकि तब ‘रेणु’ की ‘परती परिकथा’ जो नहीं पढ़ी थी.तब कटिहार से फारबिसगंज होते हुए जोगबनी(भारतीय सीमा का अंतिम स्टेशन) और नेपाल के सीमावर्ती शहर विराटनगर की दर्जनों बार यात्राएँ की थी.
पूर्णिया से सवारी गाड़ी के आगे बढ़ते ही ‘रेणु’ द्वारा रचित 'परती परिकथा' की परिकल्पना जैसे साकार सी होने लगती है.सिमराहा के बाद ‘औराही हिंगना’ छोटा सा हाल्ट था ,जो अब रेणु ग्राम हो गया है,इसी की मिट्टी में रेणु पले,बढ़े.
कोसी का दंश झेलने वाले व्यक्तियों से चर्चा करते ही चेहरे पर उभरे भावों को साफ़ पढ़ा जा सकता है. पहली बार कटिहार और पूर्णिया की धरती पर पैर रखते ही हिदायत मिली थी कि यहाँ का पानी काला है. दांत काले हो जाते हैं और कपड़ों में भी कालापन आ जाता है.कमोबेश इसी सच्चाई से रूबरू होता रहा.
कई बार किसी कथा,कहानी,उपन्यास को पढ़ने के बाद महसूस होता है
कि कहानी कुछ अधूरी रह गई.इसके आगे क्या होता. कई तरह के तर्क-वितर्क मन में उठने
लगते है.क्या उपन्यासकार ने जानबूझकर कथानक को अधूरा छोड़ा.मन सोचने लगता है कि
अच्छा होता यदि कहानी आगे बढ़ती.
कथा शिल्पी ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ की ‘परती परिकथा’ को दुबारा पढ़ते समय ऐसा ही लगा.लगा कि कहानी कुछ अधूरी रह गई है.जमींदारी उन्मूलन के बाद का समाज,कोसी के अंचलों में व्याप्त गढ़ी-अनगढ़ी कहानियां,ग्राम्य गीत,लोक-संगीत,लोक गाथाओं की बूझ – अबूझ पहेलियाँ,तकनीकी का सधः प्रवेश.सब कुछ मिलकर ऐसा लगता है मानो सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो.
कथा शिल्पी ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ की ‘परती परिकथा’ को दुबारा पढ़ते समय ऐसा ही लगा.लगा कि कहानी कुछ अधूरी रह गई है.जमींदारी उन्मूलन के बाद का समाज,कोसी के अंचलों में व्याप्त गढ़ी-अनगढ़ी कहानियां,ग्राम्य गीत,लोक-संगीत,लोक गाथाओं की बूझ – अबूझ पहेलियाँ,तकनीकी का सधः प्रवेश.सब कुछ मिलकर ऐसा लगता है मानो सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो.
ताजमनि का क्या हुआ? जितेन्द्र नाथ मिश्र एवं ईरावती का क्या हुआ? जितेन्द्र ने बचपन में ही विदेश ले जाई गयी बहन दुलारी दाय का पता लगाया या नहीं,गाँव के लोगों में जो रिक्तता की भावना थीं,वह दूर हुई या नहीं .परानपुर के अधूरे इतिहास,गीतावास कोठी की,मेम माँ की लिखी-अलिखी अधूरी गाथा का जितेन्द्र के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है आदि कुछ सवाल अनुत्तरित ही रह जाते हैं. काश! कहानी कुछ और आगे बढ़ती तो मन तृप्त हो जाता.
इसी उपन्यास से प्रस्तुत है एक चित्र, जो दिल को छू जाता है :
दिल बहादुर भी एक दिन तलो तिर (पहाड़ पर रहने वाले ,समतल भूमि को तलो कहते हैं ,दिल बहादुर तीन नंबर पहाड़ पर रहता है. नेपाल की तराईयों के उत्तर ,तीन पहाड़ियों के बाद !तीन नंबर पहाड़ !नीचे उतरने में चार दिन लग जाते हैं) हिंदुस्तान की ओर चल पड़ा.
सुन्तुला(संतरा) की डाली पकड़कर खड़ी कांछीमाया की धुंधली तस्वीर घने कोहरे में खो गई. वह ढलान की पगडंडी से नीचे उतरता चला गया। पहाड़ी के घने जंगलों में ,लकड़ी काटती हुई पहाड़ीनों के 'झाऊरे'(एक पहाड़ी लोकगीत,जिसमें राही से प्रश्न पूछे जाते हैं. राही भी गा - गाकर जबाब देता है ) खूब रस - रसाकर दिलबहादुर ने दिया. चीसापानी झोरा के पास सुनी झाऊरे की एक कड़ी... ...
मधेश तिर हिंड़े को मान्छे
शहर लख्नो कैले जाने ऐं ऐं ऐं ...
गारद मा बसने मेरी लोग्निलाई ..........
ओ मधेश की ओर जाने वाले ! यदि तुम कभी लखनऊ शहर जाओ, तो वहां के गारद में रहता है जो भला सा आदमी ,उससे कहना -- तुम्हारा बेटा दौड़ना सीख गया है और काली बाछी को तीसरा बाछा हुआ है …. जंगल में लकड़ी काटते समय मेरे हाथों में सोने के चूर झनकेंगे ....झनक - झनक ! सुनकर तुम निश्चय ही मुझे पहचान लोगे. कोई ऐसा काम मत करना ,लाज ले मरन गराई - लाज से मैं इसी जंगल में मर जाऊँगी !.......
जंगल ,जंगल ! ढलान उतार ! उतरती राह उलटकर कोई पंथी नहीं देखता. दिलबहादुर उतरता गया .
उसकी प्रेमिका कांछीमाया ने सौगंध देकर कहा है ,'मेरो रगत खाने '! चांदी सोने का पहाड़ भी मिले ,पलटन में मत जाना. कल से मैं तुम्हारी बांसुरी नहीं सुन सकूंगी. तीन बार सुन्तुला की डाली में फूल लगेंगे. तीन बार सुन्तुला की डाली झुक-झुक जाएगी फलों से. सुन्तुला तोड़ते समय तुम्हारे गालों की याद आएगी. तुम नहीं लौटोगे तो मेरी माँ मुझे उस नमक के बूढ़े व्यापारी के हवाले कर देगी. सुगंठी(सूखी मछली) की गंध उस बूढ़े की सांसों में बसी है.
अमर कथा शिल्पी ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ के अन्य उपन्यास ‘मैला आँचल’, ‘तीसरी कसम’ को पढ़ते समय ऐसा नहीं लगा था कि रचनाकार जानबूझकर कथानक को पूर्णविराम दे देता है,कथानक को आगे नहीं बढ़ता.पाठकों के विवेक पर छोड़ देता है.रेणु की ‘परती परिकथा’ परानपुर इस्टेट, फारबिसगंज, पूर्णिया, कटिहार, भागलपुर, पटना आदि के आस-पास घूमती है.
रेणु के कथानक को कहने की कला,नेपाली,बांग्ला,मैथिली,अंगिका में संवाद सब कुछ अद्वितीय हैं. ग्रामीण समाज में प्रचलित अन्धविश्वास,कुरीतियाँ रेत की तरह बिखरे पड़े मिलते हैं.स्थानीय राजनीति,गुटबाजी,समाज में परिवर्तन की बहती बयार, सब कुछ आँखों के सामने घटित होता प्रतीत होता है.
दिल बहादुर भी एक दिन तलो तिर (पहाड़ पर रहने वाले ,समतल भूमि को तलो कहते हैं ,दिल बहादुर तीन नंबर पहाड़ पर रहता है. नेपाल की तराईयों के उत्तर ,तीन पहाड़ियों के बाद !तीन नंबर पहाड़ !नीचे उतरने में चार दिन लग जाते हैं) हिंदुस्तान की ओर चल पड़ा.
सुन्तुला(संतरा) की डाली पकड़कर खड़ी कांछीमाया की धुंधली तस्वीर घने कोहरे में खो गई. वह ढलान की पगडंडी से नीचे उतरता चला गया। पहाड़ी के घने जंगलों में ,लकड़ी काटती हुई पहाड़ीनों के 'झाऊरे'(एक पहाड़ी लोकगीत,जिसमें राही से प्रश्न पूछे जाते हैं. राही भी गा - गाकर जबाब देता है ) खूब रस - रसाकर दिलबहादुर ने दिया. चीसापानी झोरा के पास सुनी झाऊरे की एक कड़ी... ...
मधेश तिर हिंड़े को मान्छे
शहर लख्नो कैले जाने ऐं ऐं ऐं ...
गारद मा बसने मेरी लोग्निलाई ..........
ओ मधेश की ओर जाने वाले ! यदि तुम कभी लखनऊ शहर जाओ, तो वहां के गारद में रहता है जो भला सा आदमी ,उससे कहना -- तुम्हारा बेटा दौड़ना सीख गया है और काली बाछी को तीसरा बाछा हुआ है …. जंगल में लकड़ी काटते समय मेरे हाथों में सोने के चूर झनकेंगे ....झनक - झनक ! सुनकर तुम निश्चय ही मुझे पहचान लोगे. कोई ऐसा काम मत करना ,लाज ले मरन गराई - लाज से मैं इसी जंगल में मर जाऊँगी !.......
जंगल ,जंगल ! ढलान उतार ! उतरती राह उलटकर कोई पंथी नहीं देखता. दिलबहादुर उतरता गया .
उसकी प्रेमिका कांछीमाया ने सौगंध देकर कहा है ,'मेरो रगत खाने '! चांदी सोने का पहाड़ भी मिले ,पलटन में मत जाना. कल से मैं तुम्हारी बांसुरी नहीं सुन सकूंगी. तीन बार सुन्तुला की डाली में फूल लगेंगे. तीन बार सुन्तुला की डाली झुक-झुक जाएगी फलों से. सुन्तुला तोड़ते समय तुम्हारे गालों की याद आएगी. तुम नहीं लौटोगे तो मेरी माँ मुझे उस नमक के बूढ़े व्यापारी के हवाले कर देगी. सुगंठी(सूखी मछली) की गंध उस बूढ़े की सांसों में बसी है.
अमर कथा शिल्पी ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ के अन्य उपन्यास ‘मैला आँचल’, ‘तीसरी कसम’ को पढ़ते समय ऐसा नहीं लगा था कि रचनाकार जानबूझकर कथानक को पूर्णविराम दे देता है,कथानक को आगे नहीं बढ़ता.पाठकों के विवेक पर छोड़ देता है.रेणु की ‘परती परिकथा’ परानपुर इस्टेट, फारबिसगंज, पूर्णिया, कटिहार, भागलपुर, पटना आदि के आस-पास घूमती है.
रेणु के कथानक को कहने की कला,नेपाली,बांग्ला,मैथिली,अंगिका में संवाद सब कुछ अद्वितीय हैं. ग्रामीण समाज में प्रचलित अन्धविश्वास,कुरीतियाँ रेत की तरह बिखरे पड़े मिलते हैं.स्थानीय राजनीति,गुटबाजी,समाज में परिवर्तन की बहती बयार, सब कुछ आँखों के सामने घटित होता प्रतीत होता है.
प्रभावी प्रतुतिकरण राजीव कुमार झा जी।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! मनोज जी.सराहना के लिए आभार.
Deleteबहुत अच्छा पोस्ट .परती परिकथा पहले तो नहीं पढ़ी थी .अब जरूर पढूंगी .
ReplyDeleteधन्यवाद !सराहना के लिए आभार .
Deleteरेणु के परती परिकथा से संबंधित बहुत अच्छी जानकारी प्रस्तुत की है .
ReplyDeleteधन्यवाद ! सराहना के लिए आभार .
Deleteबहुत अच्छा
ReplyDeleteधन्यवाद !सराहना के लिए आभार .
Delete‘मैला आँचल’, ‘तीसरी कसम’पूरा पढ़ चुकी हूँ ... ये ‘परती परिकथा’ पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गई .... अभी बरौनी में रहने के कारण वैसे ही इलाको का दर्शन हो रहा है ....
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! परती परिकथा में रेणु ने ग्रामीण समाज का जो चित्रण किया है.आजादी के इतने सालों बाद भी कमोबेश वहीँ का वहीँ है. आभार !
Deleteराजीव जी
ReplyDeleteदेहात को पढकर बहुत अच्छा लगा आभार
माइ बिग गाइड की इस नई कडी का अवलोकित कर टिप्पणी के माध्यम से उत्साहवर्धन करने का कष्ट करें,
My Big Guide Idea Wall माइ बिग गाइड आइडिया वाल
Turn the wireless electricity वायरलेस हो जाये बिजली
सादर धन्यवाद ! अभिमन्यु जी.सराहना के लिए आभार.आपका पोस्ट एवं अन्य नयी जानकारियों के बारे में अक्सर पढ़ता हूँ .
Deleteसादर धन्यवाद ! आभार.
ReplyDeleteबहुत प्रभावी प्रतुतिकरण राजीव जी.
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! राजेन्द्र जी ,आभार .
Deleteप्रिय राजीव जी बहुत सुन्दर अवलोकन... सब कुछ नजरों के सामने घूम उठा फणीश्वर नाथ जी की लेखनी के कहने ही क्या ..उत्सुकता और बढ़ गयी ...सुन्दर
ReplyDeleteभ्रमर ५
सादर धन्यवाद !भ्रमर जी.आभार .
Deleteपरती परिकथा के बहाने कोशी के दर्द को फिर से छुआ है। कोसी के कछार अब भी वैसे ही हैं।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! सही कहा आपने .कोसी के कछार अभी भी वैसे ही हैं .बाढ़ की विभीषिका साल दर साल और भी विकराल होती जा रही है . आभार .
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - रविवार-8/09/2013 को
ReplyDeleteसमाज सुधार कैसे हो? ..... - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः14 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
This comment has been removed by the author.
ReplyDeletebahut acchha laga renu jee ki rachna ko padhkar ...aisa laga .......jaise bhagalpur pahunch gai ..mera home place ....dur rahkar apne janmisthan ki jyaada yad aati hai ...thanks ..prabhi prastuti rajeev jee ...
ReplyDeletemere pasand ka upanyas jise jane kitne bar padhi hun....aapki prastuti se mugdh hun.....
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