झूला झूलने का एक अपना
अनोखा आनंद है.झूले पर बैठते ही वयस्क मन एकाएक किशोर हो जाता है.शायद,इसलिए कि
झूले के साथ बचपन की अनेक मधुर स्मृतियाँ जुड़ी रहती हैं.पावस ऋतु में झूले की बहार
दर्शनीय होती है.अमराइयों में वृक्षों की शाखाओं पर लगे झूले और उन पर पेंगें लेती
किशोरियां,युवतियां. झूले का हमारे आराध्यों राम-कृष्ण के साथ भी घनिष्ठ संबंध है.
सावन में मथुरा और वृन्दावन
में झूलों की अपनी छटा होती है.अयोध्या में भी झूलों का उत्सव, झूलनोत्सव सावन महीने भर मनाने की प्रथा
थी.परन्तु धीरे-धीरे यह प्रथा कुछ मंदिरों तक सिमट कर रह गयी है.
गोस्वामी तुलसीदास ने
गीतावली उत्तरार्द्ध के 18-19 पदों में झूले का वर्णन किया है.उसमें उन्होंने
श्रीराम एवं जानकी की मंगलमय झांकी को झूले पर बैठकर निहारा है तथा स्थान विशेष का
भी उल्लेख किया है........
झुंड-झुंड झूलन
चलीं गज गामिनी बरनारि |
कुसुम चीर तन
सोहहीं,भूषण विविध संवारि |
पिक नयनी
मृगलोचनी, सारद ससिसमतुंड |
रामसुजसु सब
गावहीं,सु-सुरसु, सारंग गुंड |
सारंग,गुंड,मलार,सोरठ,सुहव,सुधरनि
बाजहीं |
बहुभांति
तान-तरंग सुनि, गंधर्व किन्नर लाजहीं |
अतिमचत छूटत
कुटिल कच, छवि अधिक सुंदर पावहीं |
पठ उड़त भूषण
खसत,हंसि-हंसि ऊपर सखी झुलावहीं |
भक्त रसिक कवि बिहारी द्वारा ‘राम रसायन’ ग्रंथ की रचना की गई थी,जिसमें उन्होंने देश-काल के अनुसार राम और
सीता के रसिक स्वरूप का वर्णन किया है.उन्होंने झूलनोत्सव के समय,स्थान आदि का
वर्णन भी विस्तार से किया है.......
सुभग जानकी घाट
विशाला, मज्जें अंतरंगिनी बाला |
तहं प्रमोद बन
परम सुहावन,कोटिन अमरावती लजावन |
पावस ऋतु में सावन झूला श्रवण
शुक्ल तृतीया से मनाये जाने के संबंध में बिहारी कहते हैं....
पावस ऋतु उत्सव समय, वर हिंडोल विहार |
पंद्रहवीं शताब्दी
पूर्व,मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के श्रृंगारिक स्वरूप को प्रस्तुत नहीं किया
जाता था,साधकों द्वारा स्वांतः सुखाय ही नित्य लीला का स्मरण किया जाता था.श्रृंगारी
साधना युगधर्म का स्वरूप धारण करता जा रहा था,जबकि राम कथा में ऐश्वर्य की
प्रधानता थी और कृष्ण लीला का विकास बढ़ता ही जा रहा था.कृष्ण के भक्त कवि निरंतर
उनकी रासलीला आदि का खुलकर अपने शब्दों में प्रयोग कर रहे थे.
इसी समय स्वामी अग्रदास ने
इस विशाल पृष्ठ भूमि पर बिखरे राम-रस-रत्नों को पिरोना शुरू किया.स्वामी अग्रदास
ने राम-रसिकों का एक सम्प्रदाय बना कर,उन्हें कृष्ण-भक्तों के गो-लोक से भी अधिक
वैभव पूर्ण,दिव्य अयोध्या के लीला बिहारी सीता-राम का ध्यान करने का उपदेश दिया.
अयोध्या में दास-परंपरा के
अनुयायियों की संख्या अधिक थी,जिसके कारण श्रीराम की लीलाओं को केवल मर्यादित वातावरण
के आवरण से ही ढक दिया गया था,किंतु 16वीं शताब्दी में स्वामी अग्रदास के समय
रसिक उपासना का अधिक प्रचार हुआ.
मुग़ल काल में भी धार्मिक
उत्सवों का यदा-कदा आयोजन किया जाता था,परन्तु स्वतंत्र रूप से इस झूलन उत्सव के
प्रचार-प्रसार का कार्य नबाब वाजिद अली शाह के समय और भी अधिक हुआ.अयोध्या में
जहाँ एक ओर एक या दो मंदिरों में इसका आयोजन होता था,वहीँ अयोध्या के महाराज ददुआ
ने कई मंदिरों का निर्माण कर इस उत्सव को प्रश्रय दिया.
अयोध्या के महाराजा ने राधा
ब्रजराज मंदिर से नागपंचमी के दिन रथ पर श्रीकृष्ण एवं राधा की मूर्ति को ले जाकर
अपने महल के बगीचे के झूले में बैठाकर झूलनोत्सव मनाने की प्रथा का सार्वजानिक
स्तर पर आरंभ किया.
झूलनोत्सव मनाने की प्रथा
का प्रचलन रसिकोपासकों द्वारा 16वीं शती के उत्तरार्द्ध से आरंभ हुआ.जिनमें आज तक
अनेक प्रकार के परिवर्तन होते रहे हैं.पहले अष्टयाम विधि से केवल अष्टधातुओं की
एवं शिलामूर्ति ही पूजी जाती थी,परन्तु इसी शाखा के उपासक श्रीरामवल्ल्भाशरण द्वारा
एक नयी प्रथा का सूत्रपात हुआ जिसे आज अयोध्या के अनेक मंदिरों में देखा जा सकता है.इसमें
श्रीराम एवं सीता के सजीव रूप की पूजा-अर्चना तथा बच्चों का श्रृंगार करके उन्हें
राम और सीता के रूप में झूले पर बैठाया जाता है.इसके बाद रचिकचार्यों के पदों को
गाकर उनमें व्यक्त किया गए भावों के अनुरूप अभिनय कराया जाता है.
पहले किसी भी धार्मिक कृत्य
में भक्तों की आस्था सादगीपूर्ण थी,किसी प्रकार के रागरंग में उनकी रुचि नहीं थी,वे
साधना करते थे केवल अपने सुख के लिए,बाहरी आडम्बरों से उनका कोई संबंध नहीं था.
जिस प्रकार से साहित्य में
इसके निश्चित देशकाल का वर्णन नहीं मिलता ,उसी प्रकार वर्त्तमान समय में भी इस
उत्सव के मनाने का कोई दिन निश्चित नहीं है.विभिन्न मंदिरों में अनेक तिथियों से झूलनोत्सव
मनाया जाता है.श्रावण शुक्ल की तृतीया को मणि-पर्वत पर पड़े झूले में बिठाकर आयोजन
पूर्वक इसकी शुरुआत की जाती है.
समय के परिपेक्ष्य में
प्रथाओं के नित क्षरण होते रहने से मंदिरों में भले ही अब आयोजनों में नीरसता आने
लगी हो,परंतु इस उत्सव की सरसता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है.
सार्थक आलेख।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (18.07.2014) को "सावन आया धूल उड़ाता " (चर्चा अंक-1678)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteबढ़िया और ज्ञान भरा सार्थक लेख। सादर धन्यवाद।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ :- हिन्दी चिट्ठाकारों (ब्लॉगरों) के लिए आ रहा है गूगल एडसेंस Google Adsense !!
सादर धन्यवाद ! आभार.
Deletesunder aalekh
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteअच्छा आलेख व प्रस्तुति , आ. राजीव भाई धन्यवाद !
ReplyDeleteI.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
सादर धन्यवाद ! आशीष भाई. आभार.
Deleteकितनी परम्पराएं हैं जो जन मानस को जोड़ती रही हैं ... प्रासंगिक तो आज भी हैं पर जेट युग में किस्क्को परवाह है आज ...
ReplyDeletebahut sundar aalekh
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deletevery nice article
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteसादर धन्यवाद ! आशीष भाई. आभार.
ReplyDeleteसुंदर और सार्थक आलेख... सावन पहले जैसा नहीं रहा. सावन आते ही झूले पड़ जाया करते थे. अब न अमराइयाँ हैं न झूले. यादों में ही रह गए हैं झूले. पुरानी परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं. इन्हें बचाए रखने की जरूरत है.
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteसार्थक और सुन्दर आलेख सावन की खूबसूरती के साथ ,बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार.
ReplyDeleteझूलनोत्सव मनाने की प्रथा का प्रचलन रसिकोपासकों द्वारा 16वीं शती के उत्तरार्द्ध से आरंभ हुआ.जिनमें आज तक अनेक प्रकार के परिवर्तन होते रहे हैं.पहले अष्टयाम विधि से केवल अष्टधातुओं की एवं शिलामूर्ति ही पूजी जाती थी,परन्तु इसी शाखा के उपासक श्रीरामवल्ल्भाशरण द्वारा एक नयी प्रथा का सूत्रपात हुआ जिसे आज अयोध्या के अनेक मंदिरों में देखा जा सकता है.इसमें श्रीराम एवं सीता के सजीव रूप की पूजा-अर्चना तथा बच्चों का श्रृंगार करके उन्हें राम और सीता के रूप में झूले पर बैठाया जाता है.इसके बाद रचिकचार्यों के पदों को गाकर उनमें व्यक्त किया गए भावों के अनुरूप अभिनय कराया जाता है.
ReplyDeleteपहले किसी भी धार्मिक कृत्य में भक्तों की आस्था सादगीपूर्ण थी,किसी प्रकार के रागरंग में उनकी रुचि नहीं थी,वे साधना करते थे केवल अपने सुख के लिए,बाहरी आडम्बरों से उनका कोई संबंध नहीं था.
एकदम बढ़िया प्रस्तुति राजीव जी
bahut badhiya
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