Monday, July 21, 2014

प्रतीक चिन्ह कितने पवित्र


विभिन्न समाजों में हिंसा के कई अस्त्र-शस्त्र आज पवित्र प्रतीक माने जाते हैं.त्रिशूल,तलवार,धनुष-वाण,चक्र आदि की पूजा वैदिक काल से ही भारत में होती आ रही है.शायद इसका संबंध शक्ति प्रदर्शन,रक्षा आदि से भी रहा हो.सलीब भी ईसाई धर्म का एक पवित्र प्रतीक है. कई ईसाई परिवारों में,विशेषकर रोमन कैथोलिकों में क्रॉस को एक जंजीर में डालकर लॉकेट के रूप में पहनने की प्रथा है.

आम तौर पर इस बात पर सवाल उठता रहा है कि जिस खूनी सलीब पर ईसा को चढ़ाया गया,उसी सलीब को ईसाई धर्म की पवित्रता का प्रतीक बनाकर उसे पूजा के स्थान पर क्यों रख दिया गया?

डब्ल्यू. ई. वाइन ने अपनी पुस्तक ‘एन एक्सपोजिटरी डिक्शनरी ऑफ़ न्यू टेस्टामेंट वर्ल्ड’ में लिखा है कि क्रॉस का प्रयोग सर्वप्रथम प्राचीन कुसूदिया-बाबुल में हुआ था और तेमूद देवता के प्रतीक चिन्ह के रूप में उसका प्रयोग होता था.उसका स्वरूप रहस्यमयी T के आकर का होता था,जो उस देवता के नाम का पहला अक्षर था.इससे सिद्ध होता है कि क्रूस या सलीब ईसा के जन्म से शताब्दियों पूर्व से ही प्रचलित था.हालाँकि उसका आकार कुछ अलग था.

सलीब पर अपराधियों के चढ़ाए जाने की सजा युद्ध के दिनों में प्राचीन फिनिशियन,कार्बेजीनियन, इजिप्शियन और रोमन लोगो में दी जाती थी.सलीब पर चढ़ाने से पहले अपराधी या कैदी को कोड़े या चाबुक से मारा जाता था और उसे सलीब पर बांधकर उसके हाथ-पाँव में कील ठोक दी जाती थी.फलस्वरूप कील पर चढ़ाए जाने वाले कैदियों और व्यक्तियों की मृत्यु खून की कमी से नहीं,बल्कि आम तौर पर ह्रदयगति रूक जाने से हो जाती थी.

ईसा के संबंध में भी यही धारणा व्यक्त की जाती है कि ईसा को सिपाहियों ने जब भाले से बेधा था तब पानी और खून दोनों उनके शरीर से निकला था.दर्द से छटपटाते हुए शरीर में सलीब पर दो या तीन दिनों से अधिक जान नहीं रह पाती थी.मृत्यु का आगमन शीघ्रता से होता था.उन दिनों भयंकर कैदियों और सैकड़ों युद्धबंदियों को नगर से बाहर सड़क के किनारे एक कतार में सलीब स्थापित कर उस पर चढ़ाया जाता था.इस परंपरा के अनुसार अपराधी की लाश तबतक सलीब पर टंगी रहती थी जब तक मांस-भक्षी पक्षी उसके मांस को नोच-नोचकर अस्थिपंजर के रूप में न बदल देते थे.

यदि आत्मा के अतिरिक्त कोई अन्य बाह्य वस्तु ईश्वर की पूजा के लिए प्रयोग में लाई जाती है तो उसका रूप मूर्ति-पूजा सा होता है.सलीब की पूजा ईसाईयों को मूर्तिपूजक भी घोषित करती है.ईसा आत्मा की शुद्धता पर जोर देते थे और मूर्ति पूजा के साधनों एवं उपादानों को सांसारिक वस्तुओं का मोह-जाल समझते थे,लेकिन ईसा के अनुयायियों ने उनके कथन का अर्थ बहुत कम समझा.उन्होंने अन्य देवी देवताओं की प्रतिमा की पूजा को तो धिक्कारा,लेकिन खुद अपने आराध्य ईसा के लिए क्रूस को पवित्र मानकर उसकी पूजा आरंभ कर दी.उनके अनुसार पवित्र लहू क्रूस पर ही गिरा था और क्रूस ही उनकी मृत्यु का निमित्त होने के कारण शायद चिर-स्मरणीय हो गया.डबल्यू. डी. विलेन ने 'द ऐनसिएंट चर्च’ में लिखा है कि अति दूरवर्ती प्राचीनकाल से मिस्त्र और सीरिया में क्रूस को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था.

किसी भी धर्म को स्थापित करने के लिए अनुयायियों को अपने गुरु का ऐसा ठोस आधार ढूंढना पड़ता है कि जन-साधारण पर उसका असर सीधा और शीघ्र पड़ सके.ईसा के अनुयायियों के लिए बाह्य ठोस आधार के रूप में सलीब से बढ़कर प्रभावकारी शायद कोई दूसरा न था.उन्होंने इस मर्म को समझा और और लकड़ी के क्रूस के चिन्ह को ही ईसाई धर्म के प्रचार का साधन बनाया.

प्रारंभ में यह धारणा बन गई थी कि येरुशलम को जाने वाले यात्री उस असली पवित्र सलीब के छोटे-छोटे बने सलीब ही उनके चर्च के लिए लेते हैं.क्रूस को पवित्र मानकर उसे कलात्मक ढंग से सजाकर रखने की प्रथा भी शायद इसी कारण शुरू हुई.

कालांतर में ज्यों-ज्यों लोगों की धार्मिक भावना बढ़ती गई,त्यों-त्यों सलीब लकड़ी के अतिरिक्त स्वर्ण,चांदी,पीतल,कांस्य,ताम्बा आदि धातुओं के बनने लगे.उन पर रत्न जड़े जाने लगे.ईसा के वचन लिखे जाने लगे.

लेकिन सवाल यह है कि क्या ईसा की मृत्यु क्रूस पर हुई थी?

(अगले अंक में जारी)

16 comments:

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    1. सादर धन्यवाद ! आशीष भाई. आभार.

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  2. रोचक आलेख ....अगले अंक का इंतजार

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  3. रोचक इतिहास सलीब का ... जहां तक पूजा का प्रतीक माने की बात है वो आस्था का विषय है ... खुनी या न खुनी कोई फर्क नहीं पड़ता ...

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  4. सुंदर और रोचक...

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  5. आप हमेशा रोचक जानकारी देते है राजीव भाई,
    बढ़िया आलेख है !

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