Tuesday, December 9, 2014

इच्छा मृत्यु बनाम संभावित मृत्यु की जानकारी


हाल के वर्षों में इच्छा मृत्यु संबंधी विवादों को काफी हवा मिली है और संबंधित व्यक्ति इस मांग को लेकर कानून में संशोधन की मांग को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक गए हैं.पक्ष एवं विपक्ष के सम्बन्ध में अनेक तर्क दिए जाते रहे हैं और पीड़ित पक्ष की व्यथा को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता.

मृत्यु जीवन का एक ऐसा कटु सत्य है जो सृष्टि के आरंभ से अभी तक रहस्य बना है.विभिन्न समय एवं देशों में बहुत से लोगों ने प्रयत्न किया परंतु गुत्थी सुलझी नहीं.मृत्यु की सच्चाई ने मनुष्यों को भौतिक संसार से विमुख कर ईश्वर की ओर अग्रसर किया तो बहुत से लोगों को भौतिक सुख को ही अंतिम सत्य मानने की प्रेरणा प्रदान की.

मृत्यु केवल मरने वाले कही जीवन नहीं हरती,वह मृतक के परिवार पर भी अमिट प्रभाव छोड़ जाती है.मनुष्य ने धर्म और दर्शन के जरिये मृत्यु को समझने की चेष्टा की परंतु मृत्यु की भयावहता कम न हो सकी.वैज्ञानिकों ने मृत्यु पर विजय पाने के लिए हाथ-पैर मारे,वे भी असफल रहे.

कहीं-कहीं मृत्यु का आघात इतना गहरा होता है कि व्यक्ति का जीवन असामाजिक बन जाता है.इस आघात का प्रभाव कम करने के लिए एवं मृत्यु की सच्चाई को सामान्य एवं सहज रूप से स्वीकार करने के लिए पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने बहुत से प्रयत्न किये हैं.अब तो इस विषय की एक नयी शाखा ही बन गई है जिसे ‘थैनेटोलॉजी’ या ‘मृत्यु का अध्ययन’ कहा जाता है.

थैनेटोलॉजी का मुख्य उद्देश्य है,रोगी एवं रोगी के पारिवारिक सदस्यों के लिए मृत्यु की भयावहता कम करना.अमेरिका के डॉ. कुबलर ने इस विषय पर काफी काम किया है और अनेक लेख लिखे हैं तथा कई स्कूलों,अस्पतालों,धार्मिक संस्थाओं में व्याख्यान भी दिये हैं.उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘ऑन डेथ एंड डाईंग’ इस विषय की प्रमुख पुस्तक है.इस विषय पर अध्ययन सत्रों,व्याख्यानों से लोगों को काफी लाभ हुआ है.

मनोवैज्ञानिकों का कहना है की परिवार में हुई मृत्यु का प्रभाव कम करने का एक तरीका यह है कि परिवार के सभी सदस्य इस विषय पर ईमानदारी बरतें.कहने का आशय यह है कि रोगी को उसकी बीमारी की गंभीरता के विषय में जानकारी दी जाय और दूसरे सदस्यों को भी इस बारे में अपनी भावनाएं खुलकर व्यक्त करने का अवसर मिले.रोगी की बीमारी की गंभीरता के विषय में बता देने से रोगी मृत्यु के सबसे बड़े दुःख ‘भयानक-अकेलेपन’ की भयानकता कम महसूस करेगा.

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सबसे आदर्श स्थिति तो यह है कि रोगी ही वह पहला व्यक्ति हो जिसे मालूम हो कि उसकी मृत्यु निकट है.रोगी को उसकी भावी मृत्यु के सम्बन्ध में बता देने से वह दूसरों से सहायता मांगने या उसकी सेवा-सुश्रुषा स्वीकार करने में अपराधी-भावना महसूस नहीं करेगा और साथ ही,अपनी भावनाएं एवं दुःख रो कर या अन्य माध्यम से खुल कर व्यक्त कर सकेगा.

लेकिन प्रश्न यह है कि रोगी को उसकी भावी मृत्यु का संदेश कैसे दिया जाय? इस सम्बन्ध में यह जरूरी है कि रोगी को उसकी बीमारी की गंभीरता के विषय में बताने से पूर्व चिकित्सक से उसकी स्थिति के विषय में निर्णयात्मक रूप से पूछ लिया जाना चाहिए.दूसरा ध्यान यह रखा जाय कि रोगी को उसकी निकट मृत्यु के विषय में धीरे-धीरे एवं बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से से बताना चाहिए क्योंकि जीवन से निराशा की स्थिति में कभी-कभी रोगी आत्महत्या करने पर उतारू हो जाता है.यह भी ध्यान देने की बात है कि रोगी को अपनी सही स्थिति जानने की उत्सुकता है या नहीं?

मनोवैज्ञानिको का एक दूसरा वर्ग इसे उपयुक्त नहीं मानता,क्योंकि आसन्न मृत्यु की जानकारी देने से रोगी जीने की आशा छोड़ सकता है.रोगी को जीवन के अंतिम क्षण तक बीमारी से ठीक होने की आशा रहती है.ऐसी स्थिति में व्यर्थ की आशा नहीं तोड़नी चाहिए.रोगी स्वयं प्रश्न करे तो सारी स्थिति सही-सही बता देनी चाहिए.

अमेरिका की मानसिक स्वास्थ्य के मशहूर मनोवैज्ञानिक डॉ. गोल्डस्टीन का कहना है कि पारिवारिक सदस्यों को मृत्यु के निकट पहुँच रहे रोगी के सामने कभी झूठी हंसी या ख़ुशी व्यक्त नहीं करनी चाहिए,क्योंकि इससे रोगी का डर और चिंता बढ़ जाती है.पारिवारिक सदस्यों को ऐसे रोगी जिसे मालूम हो कि वह बचेगा नहीं,इच्छाएं पूरी करनी चाहिए.

मनोविश्लेषक प्रायः इस विषय पर एक मत हैं कि यदि रोगी माता-पिता घातक बीमारी से पीड़ित हैं तो बच्चों को बीमारी के विषय में जितना संभव हो और जितना वे समझ सकें,बता देना चाहिए.इससे मृत्यु का आघात उनके लिए आकस्मिक तुषारापात नहीं होगा.सभी देशों में लोग प्रायः यही चाहते हैं कि बच्चों को माँ-बाप की मृत्यु की भनक न पड़ने पाये क्योंकि वे इतने छोटे हैं कि माँ-बाप की मृत्यु का दर्द नहीं सह सकेंगे.जबकि कुछ विख्यात मनोवैज्ञानिको के अनुसार,बच्चों को दाह-संस्कार में भी शामिल करना चाहिए जिससे मृत्यु उनके लिए भीषण रहस्य न बनी रहे और वे भी सबके दुःख में अपना दुःख बंटा सकें.बच्चे कभी-कभी बड़ों से ज्यादा समझ से काम लेते है.

आशय यही है कि मृत्यु अवश्यंभावी है और देर-सबेर सभी को एक न एक दिन जाना है तो क्यों न प्रारंभ से ही ऐसे प्रयत्न हो कि कोई व्यक्ति ज्यादा विचलित न हों.मृत्यु जीवन का एक धर्म है और हर व्यक्ति शिशु,युवा,वृद्ध में मृत्यु और मृत्यु के परिणामों को समझने एवं सह सकने की पूर्ण क्षमता होनी चाहिए.मृतक की याद में घुलते रहने से परिवार के सदस्य न केवल स्वयं का जीवन नष्ट करते हैं बल्कि परिवार पर भी बुरा असर पड़ता है.मृत्यु को सामान्य एवं सहज रूप से समझने का प्रयास हो.

29 comments:

  1. जानकारी पूर्ण सार्थक आलेख ।

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  2. शोधपरक सार्थक आलेख। मृत्यु वाकई एक कटु सत्य है और इच्छा मृत्यु शारीरिक रूप से अक्षम, मृत्यु के पथ पर अग्रसर लोगों की मज़बूरी है। सादर ... अभिनन्दन।।

    नई कड़ियाँ :- आखिरकार हिन्दी ब्लॉगरों के लिए आ ही गया गूगल एडसेंस

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  3. शायद यही वजह रही हो अपने समाज में बेटे या परिवार के निकट वालों से ही दाह संस्कार कराया जाता है ... मृत्यु के सच को जितना जल्दी जाना जाए अच्छा ही है ...

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  4. शोधपरक आलेख....जीवन जितना प्यारा है, मृत्यु भी उतनी ही अवश्यम्भावी है.

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  5. अभी शोध जारी है, मृत्यु भी रहस्य है और कटु सत्य है l विचात्मक लेख

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  6. मृत्यु बस एक और अनुभव है जीवन की ही तरह.हम एक सनातन चेतना हैं व्यक्ति (व्यष्टि )के स्तर पर इसे आप आत्मा और समष्टि (totality )के स्तर पर सुप्रीम रियलिटी परमात्मा कह सकते हैं। गड़बड़ ये है हम अपने को देह मानते हैं जो हमें माँ बाप से मिली है। देह का कायांतरण होता रहता है पहले नवजात की देह फिर, फिर किशोर देह ,फिर युवा प्रौढ़ और आखिर में ज़रा (बुढ़ापा )और फिर शरीर में वास करने वाली चेतना जो इस शरीर से काम लेती है ये शरीर इसके मतलब का नहीं रह जाता है छीज़तें छीज़तें साथ छोड़ जाता है चेतना का। मृत्यु देह की होती है। चेतना (consciousness )को फिर एक नै देह मिल जाती है। अनादि काल से ये होता आया है कोई नै बात नहीं है।

    There is only one and one consciousness in all living entities and no second .This notion that there is one soul per body is wrong .There is only one consciousness ,at the individual level we call it soul ,at the level of totality supreme soul .

    Our body transforms continuously from newly born body to that of a child through that of an adolescent through adult to old age and ultimately decays permanently .But we the self remain constant and unaltered .We are not the body .The body belongs to me

    ,I THE SELF IS THE MASTER OF THE BODY .THIS BODY IS MY EQUIPMENT .I AM THE OPERATOR .

    Death is just another experience .

    I THE SELF IS ETERNAL EXISTENCE ALL KNOWLEDGE AND

    INFINITE


    .I PERVADE THE WHOLE SPACE .

    BHAGVAD GEETA EXPLAINS EVERY BIT OF IT .

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    1. बहुत सुंदर व्याख्या,आ. वीरेन्द्र जी.

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  7. जीवन और मृत्यु दो दरवाज़े हैं आपने सामने। जीव आत्मा (जीवा )एक से दुसरे में जाता रहता है इस अस्थाई काया को छोड़ कर जो हमें अपने माँ बाप से मिलती है। हमारा सूक्ष्म शरीर (मन बुद्धि ,चित्त और अहंकार )तथा कारण शरीर (टोटल वासना जन्म जन्मांतरों की )हमारे साथ जाती हैं।

    कोई रहस्य नहीं है मृत्यु हम पूरब के रहने वालों के लिए। हम पूर्व देशीय लोगों के लिए मृत्यु कोई अजूबा नहीं रही है। जीवन की निरंतरता है मृत्यु। मृत्यु उपरान्त भी जीवन है केवल उसकी अभिव्यक्ति ही दूसरा रूपाकार NAME AND FORM लेती है।

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  8. पुनर्जन्म की अवधारणा

    बाइबिल के पुराने संकरण (OLD TESTAMANT )तक बरकरार रही है। इत्र धर्मों में भी इसका ज़िक्र है। इस्लाम के कई पैरोकार कुरआन की गलत व्याख्या करते हुए कहते हैं :जहाँ कहीं तुम्हें काफ़िर(जो इस्लाम को एक खुदा को नहीं मानता ) दिखाई दें उनका सर कलम कर दो तुम्हें जन्नत मिलेगी।

    पूछा जाना चाहिए किसे जन्नत मिलेगी ?कहाँ जन्नत मिलेगी ?मृत्यु के बाद ?

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  9. ज्ञानदायक सुन्दर आलेख

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  10. सही कहा है आपने, मृत्यु को सामान्य एवं सहज रूप से समझने का प्रयास हो.
    सार्थक पोस्ट

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  11. सचमुच स्वास्थ्य से संबंधित बहुत अच्छी जानकारियां उपलब्ध करा रहे है आप अपने वेबसाईट के द्वारा.जरूर इसे लिंक करेंगे.
    आभार.

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  12. सार्थक पोस्ट और शोधपरक भी।

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  13. विचारोत्तेजक व चिंतनशील प्रस्तुति हेतु आभार!

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  14. सार्थक एवं विचारोत्तेजक आलेख मृत्यु जीवन का अपरिहार्य अंग है और उससे भयभीत होने के स्थान पर उसे सहजता से स्वीकार करने की आवश्यकता है ! जितनी जल्दी इस सत्य को अंगीकार कर लिया जाएगा इसकी भयावहता कम हो जायेगी और जीवन सुगम हो जाएगा !

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  15. vicharneeye va rochak prastuti..,bahut hi umda aalekh

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  16. vicharneeye va rochak prastuti..,bahut hi umda aalekh

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  17. म्रत्यु एक शाश्वत सत्य है यह सत्य जितनी जल्दी समझ लिया जाए, म्रत्यु से सामना करना उतना ही आसान होगा. बहुत गहन और सारगर्भित आलेख...

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  18. ​ऐसे विषयों पर इतना सारगर्भित लिखना आसान नहीं होता लेकिन आप क्यूंकि प्रोफेसर हैं , लिख सकते हैं ! आपने रोगी की मनोदशा के जो लक्षण लिखे हैं वो सार्थक हैं ! मुझे सबसे प्रभावी पक्ष अमेरिका के मनोवैज्ञानिक डॉ गोल्ड्स्टीन का कथन लग रहा है ! बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति श्री राजीव कुमार जी

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  19. चिंतनशील व सारगर्भित लेख ...

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