श्राद्ध और तर्पण के लिए जितना बिहार का गया शहर विख्यात रहा है उतना कोई अन्य शहर नहीं.पितृपक्ष में देश,विदेश के लाखों लोग पिंड दान,तर्पण के लिए गया पहुँचते हैं.लेकिन गया की महत्ता के कारण पृथुदक उपेक्षित ही रहा है.
आर्य संस्कृति का प्राचीनतम केंद्र कुरुक्षेत्र अपनी धार्मिक
उपलब्धियों के कारण ही विशेष प्रसिद्ध है.पृथुदक इसी कुरुक्षेत्र का एक अविभाज्य
अंग है.कुरुक्षेत्र के कारण ही पृथुदक की भी धार्मिक महत्ता बढ़ी है.
प्राचीन पृथुदक जिसे आज हम पेहोवा के नाम से जानते हैं,कुरुक्षेत्र से 25 किलोमीटर
की दूरी पर पश्चिम में स्थित है.प्राचीन सरस्वती नदी के तट पर बसे इस स्थल का नामकरण ऋग्वेद में वर्णित
राजा वेन के पुत्र पृथु के नाम पर किया गया है.राजा पृथु ने इस स्थान पर अपने पिता का श्राद्ध
और तर्पण किया था.ऐसी पौराणिक धारणा है कि इस स्थान पर प्राण त्यागने से मोक्ष की
निश्चित प्राप्ति होती है.
इस स्थल की प्राचीनता का परिचय हमें इसके पुराने टीलों से
प्राप्त होता है,जहाँ
पर काफी बड़ी ईटें,विभिन्न
प्रकार के सिक्के तथा मिट्टी की मूर्तियाँ आदि प्राप्त हुई हैं.पृथुदक के पास
उरन्य से 2 कि.मी. की दूरी पर नंदन खेड़ा में परवर्त्ती हड़प्पा संस्कृति के
मृद्भांड अवशेष प्राप्त हुए हैं,जिन्हें विद्वानों ने सन 1500 के आस-पास रखा है.इसके बाद इस
स्थल पर आर्यों का आगमन हुआ,जिसकी पुष्टि वैदिक साहित्य
से प्राप्त होती है.पृथुदक से संबंधित अनेक राजाओं जैसे – ययाति,पृथु,आर्ष्टिषेण,देवापि,धृतराष्ट्र,विश्वामित्र,वशिष्ठ,शुक्र आदि नाम वैदिक ग्रंथों
में भी पाये जाते हैं.
महाभारत में तो पृथुदक के माहात्म्य का विशेष वर्णन प्राप्त होता है,जो महाभारतकालीन संस्कृति से पृथुदक को जोड़ता है.महाभारत में कौरव और पांडवों के शिविरों का भी वर्णन मिलता है.इसके अनुसार सरस्वती के किनारे-किनारे पश्चिम में पांडवों के शिविर थे.इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि पांडवों की सैन्य शक्ति थानेश्वर और पृथुदक तक फैली हुई थी.शल्य-पर्व तथा वन-पर्व में पृथुदक के तीर्थों का विशेष वर्णन प्राप्त होता है.
सातवीं शताब्दी में थानेश्वर के वर्धनों के शासनकाल में पृथुदक और उसके आस-पास के प्रदेशों का महत्त्व अवश्य ही रहा होगा.सरस्वती के किनारे हर्षवर्धन ने अपने दिवंगत पिता प्रभाकरवर्धन को श्रद्धांजलि अर्पित की थी.पृथुदक श्राद्ध और तर्पण के लिए विशेष महत्त्व का स्थान था और यह असंभव नहीं कि हर्षवर्धन ने वहां जाकर अपने पिता की आत्मा की शांति के लिए कुछ अनुष्ठानों का आयोजन किया हो. चीनी यात्री ह्वेनशांग ने इस प्रदेश को धर्मक्षेत्र कहा है.सातवीं सदी के अंत में कन्नौज के राजा यशोवर्मन की सेनाओं ने श्रीकंठ जनपद के महाभारत से संबंधित स्थानों की यात्रा की थी.
कोरियन यात्री हुई-चाओ से हमें पता चलता है कि पश्चिमी भारत
में यशोवर्मन ने अरबों को रोका था.यशोवर्मन के बाद पृथुदक और आस-पास का प्रदेश
कन्नौज और राजस्थान के गुर्जर प्रतिहारों के साम्राज्य का निश्चित रूप से अंग
बना.यहीं से हमें उनके दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं.प्रथम गरीबनाथ के मंदिर की दीवार
में लगा हुआ है,जो
राजा भोज के संवत 276 अर्थात् सन 882-83 का है.यहाँ का दूसरा अभिलेख प्रतिहार
सम्राट महेन्द्रपाल का है,जिसमें
स्थानीय तोमर वंश की वंशावली दी गई है.राजा भोज के अभिलेख में घोड़ों के अनेक
व्यापारियों का वर्णन मिलता है.
पेहोवा से प्राप्त दूसरा अभिलेख प्रतिहार सम्राट महेन्द्रपाल
के समय का है. यहाँ के बाजार के मध्य सिद्धगिरि की हवेली की दीवारों पर यह लगाया
गया था.इस अभिलेख से पता चलता है कि तोमर वंश के गोग्ग,पूर्णराज और देवराज बंधुओं ने
पृथुदक में सरस्वती के तट पर तीन मंदिर बनवाये थे.संभव है कि कुरुक्षेत्र तथा
पृथुदक में शासन करने वाला यह तोमर परिवार दिल्ली के तोमरों से संबंधित रहा
हो.बारहवीं शताब्दी के मध्य तक तोमरों का शासन हरियाणा में चलता रहा.इसके बाद चौहान
विग्रहराज ने उनके स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त कर दिया.
सन 1014 में महमूद गजनवी के थानेश्वर पर आक्रमण के समय
थानेश्वर का विष्णु मंदिर तोड़ दिया गया था.इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उसने पृथुदक
के मंदिरों को भी तहस-नहस कर डाला हो.महमूद गजनवी मूर्तिभंजक के रूप में कुख्यात
था.जिस बर्बरता के साथ थानेश्वर और पृथुदक के मंदिरों का विनाश हुआ है,वह संभवतः उसी समय की ओर
संकेत करता है. तोमरों और चौहानों ने इस प्रदेश में मुस्लिम आक्रांताओं के
प्रतिरोध की जी-जान से कोशिश की, लेकिन तराई के दुसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की गोरी से
हार के बाद इस क्षेत्र का भविष्य मुस्लिमों के हाथ में चला गया.मराठों के आगमन के
बाद ही इस स्थिति में परिवर्तन आया.स्थानीय परंपरा के अनुसार अनेक तीर्थों का
जीर्णोद्धार मराठों ने किया था.
वैसे तो पेहोवा के सभी
पुराने मंदिर मुस्लिम शासनकाल में धराशायी हो गये थे,पर उसके बाद नए मंदिर गत
शताब्दियों में ही निर्मित हुए हैं.सिखों के बाद पेहोवा कैपल के शासकों के हाथ में
चला गया,उसके बाद
अंग्रेजों के शासन में.पृथुदक के धार्मिक महत्त्व की स्थापना सही रूप से मराठों ने
की थी.उन्होंने ही प्रिथुदकेश्वर,प्रिथकेश्वर,सरस्वती एवं कार्तिकेय के
मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया.इस स्थान की धार्मिक महत्ता आज भी बनी हुई है.आज भी
यहाँ देश के विभिन्न भागों से लोग श्राद्ध और तर्पण बहुत श्रद्धा के साथ करते हैं.
Keywords खोजशब्द :- Importance of Prithudak,Pehova,Kurukshetra
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ज्ञानवर्धक एवं सुंदर आलेख.
ReplyDeleteएक बिलकुल ही अनछुए पौराणिक महत्त्व के स्थान के विषय में इतनी गहरी , तथ्यात्मक और ऐतिहासिक जानकारी आपने अपने ब्लॉग के माध्यम से बताया है श्री राजीव झा जी ! धन्यवाद ! अगर इसके साथ कुछ फोटो भी मिल जाते तो और भी असरदायक और प्रभावी बन जाता !!
ReplyDeleteपृथुदक जैसे ऐतिहासिक स्थल के बारे में सम्पूर्ण जानकारी देता हुआ एक सार्थक आलेख। धन्यवाद।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ :- WhatsApp ने लांच किया डबल ब्ल्यू टिक फीचर
आखिरकार हिन्दी ब्लॉगरों के लिए आ ही गया गूगल एडसेंस
सुंदर और सार्थक
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-12-2014) को "धैर्य रख मधुमास भी तो आस पास है" (चर्चा-1827) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर धन्यवाद ! आ. शास्त्री जी. आभार.
Deletesunder va rochak jaankari hetu aabhaar
ReplyDeleteतथ्यात्म, रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी ... गया का एक सांस्कृतिक महत्त्व है अपने जीवन में अपने समाज दर्शन में जिसको नकारा नहीं जा सकता ... सार्थक आलेख ...
ReplyDeleteरोचक जानकारी
ReplyDeleteखासकर दुर्घटना /अकाल मृत्यु और जो लोग आत्म ह्त्या कर लेते हैं उनकी आत्मा की शान्ति के लिए लोग पेहोवा आते हैं। बढ़िया आलेख।
ReplyDeleteनयी जानकारी के लिये आभार ! आ. वीरेन्द्र जी.
Deleteज्ञानपरक पोस्ट। धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.....
ReplyDeleteविस्मृतियों मे खोये जा लरहे ऐतिहासिक महत्व के स्थानों की अच्छी खोज-बीन कर रहे हैं आप - आभार!
ReplyDeleteरोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी, सार्थक आलेख।
ReplyDeleteपहली बार पृथुदक के बारे में जानकारी मिली, आभार इतिहास और पुराण से सम्बद्ध इस जानकारी के लिए
ReplyDeleteachhi jaankari post kiya hai aapne
ReplyDeleteसार्थक post
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