ग्रामीण अंचलों में बोलचाल
में प्रयुक्त ‘ओनामासीधं’ शब्द दरअसल संस्कृत भाषा के प्राचीनतम वैयाकरण महर्षि
शाकटायन के व्याकरण का प्रथमसूत्र-‘ओऽम नमः सिद्धम’ है.पहले बच्चों का विद्यारंभ कराते
समय सबसे पहले इसी सूत्र की शिक्षा दी जाती थी.इसके बाद ही वर्णमाला का नंबर आता
था.
प्रारंभिक शिक्षा का आदिसूत्र होने के कारण कालांतर में यह शब्द विद्यारंभ का
पर्यायवाची बन गया और अपभ्रष्ट रूप में लोग इसे ‘ओनामासी’ कहने लगे.कालांतर में
इसका प्रयोग व्यंग्यार्थ में होने लगा.जो बच्चे किसी भी कारण से न पढ़ पाते,वे कहने
लगते-ओनामासीधं.
वैसे इस सूत्र –‘ॐ नमः
सिद्धम’ का भावार्थ स्पष्ट है कि ‘जिसने योग या तप के द्वारा अलौकिक सिद्धि
प्राप्त कर ली है,या जो बात तर्क और प्रमाण के द्वारा सिद्ध हो चुकी है,उसे
नमस्कार.’
भारतीय भाषाओँ में वर्णमाला
चूंकि वेद-सम्मत तथा स्वयंसिद्ध मानी जाती है,अतः कहा जा सकता है कि ‘सिद्धम्’ प्रयोग उसी के
निमित्त किया गया है.कुछ लोग इसका संबंध गणेश,वाग्देवी तथा जैन तीर्थंकर महावीर से
भी जोड़ते हैं.
‘पाटी’ शब्द किसी विषय की विधिवत
शिक्षा या पाठ के अनुक्रम के अर्थ में प्रयुक्त होता है.इसका निकटतम पर्याय
‘परिपाटी’ माना जा सकता है.ज्योतिर्विद एवं गणितज्ञ भास्कराचार्य ने अपने ग्रंथ
‘लीलावती’ को ‘पाटीगणित’ के ही रूप में संबोधित किया है.स्पष्ट है कि पाटी शब्द
भाषा और गणित के प्रारंभिक पाठों के लिए प्रयुक्त होता था.यह धारणा प्रचलित है कि
बच्चों से ‘पाटियाँ’ लकड़ी के तख्तों पर ही लिखवायी जाती थी,इसलिए ये तख्तियां ही
पाटी बन गयीं.
पाटी का संबंध मात्र भाषा
ज्ञान से है,संख्या में केवल चार हैं.इसलिए ‘चारों पाटी’ शब्द प्रचलन में आया.पहले
पाटियां पढ़ाई जाती थीं,लेकिन ब्रिटिश शासन में उनकी शिक्षा पद्धति के साथ इन पाटियों की पढ़ाई बंद हो गयी.इनको पढ़ाने वाले सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में रह
गए.
संस्कृत के विद्वान,विशेषकर पाणिनीय व्याकरण के अध्येता,तो पहले ही इन पाटियों
से नफरत करते थे,अन्य शिक्षित वर्ग भी इनसे परहेज करने लगा.इसका कारण था कि यह
इतना कठिन था कि इनकी पढ़ाई का औचित्य ही समझ में नहीं आता था.अब ये सिर्फ
बुंदेलखंड के ही कुछ क्षेत्रों में सीमित होकर रह गयी हैं.
हालांकि ये पाटियां निरर्थक-सी
प्रतीत होते हुए भी निरर्थक नहीं हैं.इनके तात्पर्य और भावार्थ का कुछ-कुछ अनुमान ‘कातंत्र
व्याकरण’ से लगाया जा सकता है.’कातंत्र व्याकरण,व्याकरण के ‘पाणिनि संप्रदाय’ से भिन्न
है और शर्ववर्मा की रचना कहा जाता है.कातंत्र व्याकरण के पहले चारों पाद इन चारों
पाटियों से काफी मेल खाते हैं.
पाटियों के साथ ‘लेखे’ और ‘चरनाइके’
भी पढ़ाये जाते रहे हैं.इनका प्रचार किसी न किसी रूप में आज भी है.ये हैं-गिनती,पहाड़े,पौआ,अद्धा,पौना,सवैया,ढैया,हूंठा,ढौंचा,पौंचा,कौंचा,बड़ा
इकन्ना,विकट पहाड़ा और ड्योढ़ा.कौंचा का प्रचार अब नहीं रहने के कारण इसे हटाकर कुल
तेरह ही लेखे हैं.चरनाइके वस्तुतः नीति और शिष्टाचार सम्बन्धी वाक्य होते हैं.इनके
द्वारा आचार-विचार की शिक्षा दी जाती है.मान्यता है कि इनकी रचना चाणक्य सूत्रों
के आधार पर हुई है.
पाटियों को हाथ पर ताल देकर
गा-गाकर पढ़ाया जाता था.प्रत्येक सूत्र के प्रथम अक्षर पर ताल देते हुए दो तालों के
मध्य लगभग आठ मात्रा का अंतर रखा जाता था.ताल के बाद प्रत्येक पांचवीं मात्र पर
दायीं हथेली ऊपर की और करके खाली प्रदर्शित की जाती थी.पाटी पढ़ने में संगीत के ‘कहरवा’
ताल का उपयोग किया जाता था.किसी कठिन तथा नीरस विषय को बच्चों को याद कराने का यह
सर्वोत्तम तरीका था.दक्षिण भारत की संगीत शिक्षा में इस तरह का प्रयोग आज भी देखा
जा सकता है.
bhut accha likhte ho g if u wana start a best blog site than visit us
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सुंदर विषय । हमारे जमाने में दिखती थी पाटी ।
ReplyDeletebadhiya hai
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (06.02.2015) को "चुनावी बिगुल" (चर्चा अंक-1881)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteसादर आभार.
Deleteबढ़िया जानकारी। सादर।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ :- साल 2015 एक सेकंड लंबा होगा
नेत्रहीनों की भाषा (ब्रेल लिपि) का जनक - लुईस ब्रेल
अच्छी जानकारी दी आपने ! धन्यवाद
ReplyDeleteगोस्वामी तुलसीदास
सुंदर और सार्थक प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति ..बचपन में हम भी पाटियों में लिखा करते थे, बहुत सारी याद याद आने लगी हैं ..धन्यवाद आपका
ReplyDeleteमैंने भी गाँव में लोगों को अक्सर कहते सुना था --'ओनामासी धम ,बाप पढ़े ना हम ' . आज इसका मूल रूप जानने मिल गया . धन्यवाद .
ReplyDeleteगांव की भाषा से एक बार पुन: अवगत कराने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया जानकारी दी है आपने ... यह भी जानकर अच्छा लगा की पहले बच्चों को प्रथमसूत्र-‘ओऽम नमः सिद्धम’ की शिक्षा दी जाती जाती थी तब जाकर उनको वर्णमाला की शिक्षा प्रदान की जाती थी ... आभार ....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है.
बढ़िया जानकारी...
ReplyDeleteओनामासीधं के आगे बच्चे बहुत कुछ जोड़ा करते थे और इसे गीत की तरह भी गाते थे . जैसे गुरु जी पतंग , हम रहेंगे मलंग आदि-आदि..
ReplyDeleteबिलकुल सही ! हम भी कुछ ऐसा ही कहने वाले थे.ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चे खेल-खेल में यही जुमला दोहराते थे.
Deleteपाटियों के साथ ‘लेखे’ और ‘चरनाइके’ भी पढ़ाये जाते रहे हैं.इनका प्रचार किसी न किसी रूप में आज भी है.ये हैं-गिनती,पहाड़े,पौआ,अद्धा,पौना,सवैया,ढैया,हूंठा,ढौंचा,पौंचा,कौंचा,बड़ा इकन्ना,विकट पहाड़ा और ड्योढ़ा.कौंचा का प्रचार अब नहीं रहने के कारण इसे हटाकर कुल तेरह ही लेखे हैं.चरनाइके वस्तुतः नीति और शिष्टाचार सम्बन्धी वाक्य होते हैं.इनके द्वारा आचार-विचार की शिक्षा दी जाती है.मान्यता है कि इनकी रचना चाणक्य सूत्रों के आधार पर हुई है.
ReplyDeleteएकदम नया विषय ! मेरे लिए तो बिलकुल ही नया शब्द है पाटी ! जानकारी भरी पोस्ट आदरणीय राजीव कुमार झा जी
अच्छी जानकारी दी आपने !
ReplyDeleteRecent Post शब्दों की मुस्कराहट पर मेरी नजर से चला बिहारी ब्लॉगर बनने: )
हमने जब स्कूल जाना शुरू किया था तब पाटी गणित का नाम सुना था पर समझ में नहीं आया था गणित के आगे पाटी क्यों लगाते थे l आभार आपका ,सुन्दर ,सार्थक प्रस्तुति !
ReplyDeleteहमने जब स्कूल जाना शुरू किया था तब पाटी गणित का नाम सुना था पर समझ में नहीं आया था गणित के आगे पाटी क्यों लगाते थे l आभार आपका ,सुन्दर ,सार्थक प्रस्तुति !
ReplyDeleteमुझे तो इस बारे में कुछ पता ही नहीं था ... कितनी परम्पराएं, तरीके हैं अपने परिवेश में जो आज लुप्त हो चुके हैं या हो रहे हैं और इनको शायद ही कोई लिपिबद्ध कर रहा हो ... आक्रमण करने वालों ने अपनी संस्कृति को तो नुक्सान पहुंचाया ही है ... आज के तथाकथित बुद्धिजीवी जो ऐसी बातों की बात नहीं करने देते वो भी कम नुक्सान नहीं दे रहे ...
ReplyDeletekitni sarthak jankari di hai aapne...iske kuch halke bhak ko humlog bhi padhe hain..
ReplyDeleteलेख पड़ कर अच्छा लगा. Felt good after reading the article.
ReplyDeleteLekh padh kar achchha lga
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