सोप-ऑपेरा हमलोग का एक दृश्य |
एक अमेरिकी कंपनी ने अपने
एक प्रोडक्ट,एक साबुन यानि सोप और पाउडर के प्रचार के लिए एक नाटकीय ढंग अपनाया और
उसके विज्ञापन अमेरिकी टी.वी से प्रसारित किया.अमेरिका में उस समय महिलाएं दिन में
घर में ही होती थीं.उसे देखने वाली महिलाएं इन विज्ञापनों से प्रभावित होतीं और इस
कंपनी के प्रोडक्ट को घर-घर बेचा करती थीं.विज्ञापन का यह तरीका काफी सफल रहा.
इस सोप के प्रचार यानी सोप-ऑपेरा
के दौरान अमेरिकी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्णधारों को कुछ नया करने को सूझा.चिकने
संगीतमय प्रोडक्ट के विज्ञापन से प्रभावित होकर चिकने संगीतमय नाटक लिखे गए.कुछ ही
वर्षों में अमेरिकी टी.वी द्वारा पंद्रह मिनट का धारावाहिक प्रसारित किया जाने
लगा,और यह काफी लोकप्रिय हुआ.अमेरिका में औद्योगिक संस्कृति के पनपने के कारण
लेखकों तथा कलाकारों के लिए विज्ञापनों के अलावा और कोई प्रगतिशील राह नहीं
थी.फलतः वे लोग अमेरिका से पलायन करने लगे छठवें दशक के बाद औद्योगिक नीति में सुधार हुआ,जिससे लेखकों,पत्रकारों तथा कलाकारों को नया रचनात्मक कार्य मिलने लगा.
पहले अमेरिका में सोप-ऑपेरा
केवल महिलाओं तक सीमित था,किंतु अब यह पुरुषों के लिए भी काफी आकर्षक हो गया है.बंगाल
में सत्यजीत रे ने ‘पाथेर-पांचाली’ में कुछ हद तक सोप-ऑपेरा का प्रयोग भी किया
है.सत्यजित रे को ऑस्कर अवार्ड से भी नवाजा गया.
यदि हम अपने लोक-गाथाओं के
कलाकारों पर विचार करें तो यह पता चलता है कि वे सोप-ऑपेरा शब्द को भी नहीं
जानते,किन्तु वे उसकी अभिव्यक्ति लोकगाथाओं के माध्यम से गा-गाकर, नाचकर,नाटकीयता
के साथ खूब अच्छी तरह से करते हैं.भारत में सोप-ऑपेरा का चलन सदियों पुराना है जो
सुषुप्तावस्था में था और छठे-सातवें दशक में पुष्पित-पल्लवित होकर नए रूप में
सामने आया है.
महाराष्ट्र में अक्षय तृतीया
का त्यौहार बड़े तामझाम के साथ मनाया जाता है.इस त्यौहार में झूले डाले जाते हैं और
महिलाएं झूला झूलते हुए कभी रोमांटिक,तो कभी ठिठोली भरे गीत गाती हैं.इसी तरह सावन
में सारे भारत में झूले पड़ते हैं और प्रेम के रस से सराबोर गीत परवान चढ़ते है.आज
औद्योगीकरण के कारण न तो शहरों में अक्षय तृतीया पर झूले पड़ते हैं और न सावन के
महीने में.अक्षय तृतीया सिर्फ सोने-चांदी की खरीददारी तक सीमित होकर रह गयी है.
भारत में आधुनिक नाटकीय सोप-ऑपेरा
लाने में तत्कालीन दूरदर्शन के वरिष्ठ अधिकारी मनोहर सिंह गिल का विशेष हाथ रहा
है.अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने सोप-ऑपेरा से संबंधित जानकारी मनोहर श्याम
जोशी को सौंपी थी.मनोहर श्याम जोशी को भारत में आधुनिक सोप-ऑपेरा का जनक माना
जाता है. उनके लिखे हमलोग,बुनियाद तथा हमराही जैसे सफलतम
सोप-ऑपेरा धारावाहिक रूप में दूरदर्शन से प्रसारित हुए और बेहद लोकप्रिय हुए.इनके
कलाकार घर-घर में जाने-पहचाने हो गए और मोहल्ले,गली चौराहों पर इनकी चर्चा होने
लगी.
सोप-ऑपेरा में वस्तुतः जीवन
की सूक्ष्म भावनाओं का समावेश होता है.इसमें यथार्थ जीवन के सामाजिक परिवारों के
सुख-दुःख की भाव प्रवणता,नाटकीय एवं अति-नाटकीयता होती है.इसमें चिकनी चुपड़ी चापलूसी,प्रेमालाप को
वास्तविकता का पुट दिया जाता है.जिस तरह सोप यानि साबुन में झाग होता है,उफ़ान होता
है,चिकनाहट होती है.उसी तरह सोप-ऑपेरा में ऐसा ही सब कुछ होता है यानी वह रूपक
है,चापलूसी,जी-हुजूरी,चिकनी-चुपड़ी बातों का.
जिन पारिवारिक रचनाओं में
साबुन के झाग के सामान भावनाओं को उभारकर जो कड़ियां टी.वी द्वारा प्रसारित की जाती
हैं,उसे सोप-ऑपेरा कह सकते हैं.ऑपेरा अर्थात संगीतमय नाटक,जिसमें वाद्य-यंत्रों के
साथ दर्शकों के समक्ष नाटकीय प्रहसन का प्रस्तुतीकरण होता है.
सोप-ऑपेरा विधा में लेखक को
काफी स्वतंत्रता मिल जाती है.पटकथा में वह अपने पात्रों का क्रिएशन विभिन्न रूप
में कर सकता है.कोई भी नेगेटिव पात्र पॉजिटिव या हीरो पात्र की ओर लुढ़क सकता
है.किस पात्र को प्राथमिकता दी जाए,उसके लिए भी पटकथा लेखक स्वतंत्र है.
हंसना,रोना,झगड़ना,रूठना,मनाना आदि भावों को पात्रों में कूट-कूटकर भरा जा सकता है.यों कह सकते हैं कि सोप-ऑपेरा में थोड़ा रोना,थोड़ा हंसना,थोड़ी पारिवारिक कलह,आदर्श,स्वार्थीपन,जोशिलापन,रसिकता,ताने और कुछ सस्पेंस भी होने चाहिए.
यह चौराहे पर लगे सार्वजानिक
सूचना देने वाले होर्डिंग की तरह है जो चलते-फिरते लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट
करता है.
सुंदर आलेख ।
ReplyDeleteसोप आपेरा का इतिहास जानना बहहुत ही रोचक रहा .... पर आज जो भी धारावाहिक प्रसारित हो रहे हैं वो अपने समाज से जुड़े तो नहीं लगते हाँ पाश्चात्य समाज की झालाक जरूर है उन सभी में ... शायद आने वाले में देश का समाज भी ऐसा हो जाए ..
ReplyDeleteबढियाँ ,अति सुन्दर
ReplyDeleteसुंदर और रोचक आलेख...सोप ओपेरा अब डेली सोप बन गया. डेली सोप देखने वालों में यह जिज्ञासा बनी रहती है कि कल क्या होगा ? कुछ वर्षों में टीवी की दुनिया बहुत बदली है, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि कंटेंट और कहानी में लगातार गिरावट आयी है.
ReplyDeleteबढ़िया आलेख ...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-05-2015) को "सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं" (चर्चा अंक-1963) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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श्रमिक दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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सादर आभार.
Deleteसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बहुत ही अच्छा लेख। बधाई।
ReplyDeleteरोचक आलेख सर।
ReplyDeleteसोप-ऑपेरा में वस्तुतः जीवन की सूक्ष्म भावनाओं का समावेश होता है.इसमें यथार्थ जीवन के सामाजिक परिवारों के सुख-दुःख की भाव प्रवणता,नाटकीय एवं अति-नाटकीयता होती है.इसमें चिकनी चुपड़ी चापलूसी,प्रेमालाप को वास्तविकता का पुट दिया जाता है.जिस तरह सोप यानि साबुन में झाग होता है,उफ़ान होता है,चिकनाहट होती है.उसी तरह सोप-ऑपेरा में ऐसा ही सब कुछ होता है यानी वह रूपक है,चापलूसी,जी-हुजूरी,चिकनी-चुपड़ी बातों का.रोचक और ज्ञानवर्धक
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