Thursday, March 19, 2015

शब्दों की तलवार

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आप बोलचाल में अक्सर किस तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं? अगर आप कम बोलते हैं तो नपा-तुला बोलते हैं.यदि आप बातूनी हैं तो शब्दों की तलवार भी चलाते रहते हैं.दरअसल बोलचाल में प्रयुक्त किये  जाने वाले शब्द आपके व्यक्तित्व को भी उजागर करते हैं.विभिन्न क्षेत्रों में बोलचाल का लहजा भी भिन्न-भिन्न होता है.

कई लोग शब्दों की तलवार चलाने में बड़े माहिर समझे जाते हैं.बात-बात में ही ऐसी बात कह देते हैं कि आप मन मसोसकर रह जाते हैं.उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप पर क्या बीत रही होती है.कहते भी न हैं कि उनकी जुबान कैंची की तरह चलती है.

कन्फ्यूशियस इस नतीजे पर पहुंचा है कि जो शब्दों की तलवार चलाने की आदत से लाचार हैं,उन्हें उसके घावों को सहने की क्षमता भी प्राप्त कर लेनी चाहिए,क्योंकि अक्सर उस तलवार से उनका ही अंगच्छेद होता है.अपनी ही शेखी से चोट खाए इंसान मूर्खतावश इन चोटों के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है.

श्रीमद्भागवत में इस प्रकार के व्यवहार पर प्रश्न है......

जिह्वां क्रचित्
संदशति स्वदविद्भः
तद्वेद्नाया कत
माय कुप्यते |

(अपने ही दांतों से अक्सर अपनी जीभ के काट लेने पर जो पीड़ा होती है,उसके लिए काटनेवाला आखिर किस पर क्रोध करेगा)

सत्ता का नशा जब सर पर चढ़कर बोलने लगता है तो शब्दों की तलवार अक्सर चलते देखे जाते हैं.राजनीतिज्ञ शब्दों की तलवार चलाने में बड़े माहिर होते हैं. हम प्रायः ही राजनीतिज्ञों को शब्दों की तलवार चलाते देखते सुनते रहते हैं- जब कोई राजनीतिज्ञ शब्दों की तलवार चलाते हुए कहता है कि हम केंद्र को घुटने टेकने पर मजबूर कर देंगे.

कवि फिरदौसी ने बड़े व्यंग्य से ऐसे लोगों के लिए लिखा है कि तलवारें म्यान से बाहर निकालना तो अनाड़ियों के लिए भी आसान है,किन्तु उन्हें शत्रु की गर्दन तक पहुंचाना मौत और जिंदगी के सारे फासले को तय करने की कुव्वत दिखलाना है.

खलील जिब्रान की एक बोध कथा शायद ऐसे ही लोगों के लिए है.......

पुराने नगर अंताकिया में आसी नाम की नदी अंताकिया नगर को दो भागों में बाँटती थी.राजा सरबाओ ने आसी नदी पर एक पुल बनाकर नगर के दोनों भागों को जोड़ दिया.जब पुल बनकर तैयार हुआ तो उस पर इस इबारत का एक शिलालेख भी लगा दिया गया कि – “यह पुल अंताकिया नरेश सरबाओ ने प्रजा की सुख-सुविधा के लिए बनवाया है.”

कई बरसों तक इस पुल पर मुसाफिर आते-जाते रहे.इस पुल के जरिये अन्ताकिया नगर के दिल ही नहीं एक हो गये बल्कि नगर का कारोबार भी काफी बढ़ गया.लोग मुक्तकंठ से राजा के दयालु ह्रदय की प्रशंसा करने लगे.

एक दिन एक अस्त-व्यस्त सा युवक इस पुल पर से गुजरा.शिलालेख को देखकर वह रुक गया.उसने इस शिलालेख को उखाड़कर फेंक दिया और उस स्थान पर लिख दिया – “इस पुल को बनाने में जो पत्थर इस्तेमाल किये गए हैं उन्हें पहाड़ों से खच्चर ढोकर लाये हैं.अतः इस पुल पर यात्रा करते समय आप अंताकिया शहर के उन खच्चरों की पीठ पर चलते हैं जो इस पुल के वास्तविक निर्माता हैं.”

पुल पर सफ़र करने वाले लोगों ने इस इबारत को पढ़ा तो कुछ को हंसी आ गयी,कुछ को इस दूर की सूझ पर आश्चर्य हुआ,कुछ और भी गहराई में गए,उन्हें दार्शनिकता का पुट मिला.कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने कहा – “यह किसी खफ्ती के दिमाग का फितूर है.उसके दिमाग के पेंच ढीले हो गाए हैं,नहीं तो इस प्रकार की बेवकूफी के क्या मतलब हैं?”

पुल पर चलनेवाले मुसाफिरों की बातों को एक दिन वहां छाया में विश्राम करने वाले खच्चरों ने भी सुना तो एक दूसरे की तरफ़ गर्व और तृप्ति का आदान-प्रदान करते हुए वे आपस में कहने लगे - “इस शिलालेख में तो ठीक ही लिखा है.इस पुल के पत्थर तो हम ही ढो-ढोकर लाये हैं.राजा ने तो हुक्म भर दिया था,पुल का निर्माण तो हमारे ही जीवट से हुआ है.मगर इस दुनियां की तो रीत ही निराली है.यहाँ मेहनत की महिमा कोई नहीं गाता,सत्ता की महिमा ही सब गाते हैं.मगर इससे क्या होता है? एक न एक दिन तो खच्चरों की पैरवी करने वाला भी कोई पैदा होता है - हमारे लिए यही बहुत है.”

तो अगली बार जब आप शब्दों की तलवार चलाएं तो यह भी ध्यान रखें यह आपको भी घायल कर सकता है.

Keywords खोजशब्द : Sword of Words,Confucius,Khalil Gibran

20 comments:

  1. शब्‍दों की तलवार महज एक अच्‍छा लेख ही नहीं है। यह व्‍यक्तियों का आपके द्धारा किया गया अध्‍ययन भी है। मैंनें इसे अभी थोड़ा ही पढ़ा है, समय मिलते ही पूरा पढ़ूंगीं।

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  2. बिलकुल सही कहा है। इसे पढ़ कर कबीर याद आ गए- "ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय
    औरन को सीतल करे आपहु सीतल होय"।
    https://rekhasahay.wordpress.com/

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  3. क्या बात है .......कहानी तो बहुत अच्छी है .....शिक्षाप्रद लेख!

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  4. बेहद रोचक... सुंदर बोध कथा...शब्दों के सहारे बड़े-बड़े काम आसानी से हो जाया करते हैं और गलत शब्दों के इस्तेमाल से काम बिगड़ भी जाते हैं... अतः सोच समझ कर बोलना श्रेयकर है...

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (20-03-2015) को "शब्दों की तलवार" (चर्चा - 1923) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. रोचक ..इसलिए ही कहते हैं मीठे बोल ही बोलना चाहिए ... सटीक शब्दों के चयन से काम बन जाता है नहीं तो अनर्थ हो जाता है ...

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  7. शब्द में बड़ी शक्ति होती है यह बात इस कथा से सिद्ध होती है

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  8. सार्थक लेख पर बधाईयां!!आ० राजीव जी!

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  9. एक बहुत ही सुन्दर और रोचक कथा के माध्यम से अपने बहुत ही अच्छी शिक्षा प्रद बात कही है,..बहुत ही सार्थक आलेख...

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  10. प्रसंगवश खलील जिब्रान की बोध कथा बड़ी रोचक लगी ...आज भी बोर्ड लटकाकर अपनी जय जयकार करने वालों की कोई कमी नहीं ..मेहनतकश आज भी नीव के पत्थर हैं जिन्हें देखा नहीं जाता ...

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  11. oh ho ....! main to sunti hi hun ..bolti kam hun ...!

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  12. शब्द ही हमको ख़ुशी देते हैं और शब्द ही पीड़ा देते हैं ! शब्द से बड़ा न कोय

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  13. बहुत सुन्दर

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  14. शब्दों का चुनाव सही होना चाहिए

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  15. बहुत अच्छा लेख.

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  16. कन्फ्यूशियस इस नतीजे पर पहुंचा है कि जो शब्दों की तलवार चलाने की आदत से लाचार हैं,उन्हें उसके घावों को सहने की क्षमता भी प्राप्त कर लेनी चाहिए,क्योंकि अक्सर उस तलवार से उनका ही अंगच्छेद होता है.अपनी ही शेखी से चोट खाए इंसान मूर्खतावश इन चोटों के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है.मगर इस दुनियां की तो रीत ही निराली है.यहाँ मेहनत की महिमा कोई नहीं गाता,सत्ता की महिमा ही सब गाते हैं.मगर इससे क्या होता है? एक न एक दिन तो खच्चरों की पैरवी करने वाला भी कोई पैदा होता है - हमारे लिए यही बहुत है.”विषय बिलकुल अलग है लेकिन उदाहरणों से आपने बहुत ही रोचक बना दिया है राजीव जी !

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  17. सार्थक लेख पर बधाईयां!

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