भारतीय त्यौहार की परंपरा अनादिकालीन है.मनुष्य - सृष्टि के साथ ही उसकी
सृष्टि हो गई जान पड़ती है.मनुष्य में आमोद – प्रमोद की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है
और स्वभाव से ही वह एक सामाजिक प्राणी है.इन दोनों स्वाभाविक प्रवृत्तियों के सम्मिश्रण
से ही त्योहारों की परम्परा का सूत्रपात हुआ होगा.
सार्वजानिक रूप में,आमोद –
प्रमोद को ही हम त्यौहार कह सकते हैं.प्रकृति की शोभा मनुष्य को आनंद विभोर कर
देती है.पतझड़ के बुढ़ापे के बाद वसंत-ऋतु में नवजीवन प्राप्त कर जैसे सारी प्रकृति
नया वेश – भूषा पहन बच्चों की तरह हंसने – खेलने लगती है,उसी प्रकार प्रकृति का
परिवर्तन,सौंदर्य देख मनुष्य के हर्ष का पारावार नहीं रहता.अपने इसी हर्ष एवं आनंद
को सार्वजनिक रूप देने के लिए उसने त्यौहार की सृष्टि की है.
भारतीय संस्कृति में एक दौर ऐसा भी था,जब साल के हर दिन कोई न कोई त्यौहार
मनाया जाता था,यानि 365 दिन और 365 त्यौहार.इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यही थी कि हम
चाहते थे कि हमारा पूरा जीवन एक उत्सव बन जाए.दुर्भाग्य से आप सड़क चलते ,दफ्तर में
या काम के दौरान यों ही उत्सव नहीं मनाते,इसलिए ये त्यौहार उत्सव मानाने के बहाना
भर थे.
अगर आप जीवन में हर चीज को एक उत्सव के तरीके से करते हैं,तो इससे आपमें जीवन
को सहज ढंग से जीने का नजरिया आता है,लेकिन बावजूद इसके आप उसमें पूर्ण लगन से
शामिल रहते हैं.आज लोगों की सबसे बड़ी समस्या है कि जैसे ही उन्हें लगता है कि उनके
जीवन में कोई चीज बेहद महत्वपूर्ण है तो वे उसके बारे में हद से ज्यादा गंभीर हो
उठते हैं.दूसरी ओर ,अगर उन्हें लगता है कि चीजें इतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं,तो उसके
प्रति मन में शिथिलता आ जाती है और वे उसमें उतना जुड़ाव नहीं दिखा पाते.
जबकि जीवन का सार या राज इसी में है कि हर चीज को सहज ढंग से देखा जाय,लेकिन
उसमें पूरी तरह शामिल रहा जाय.यही वजह है
कि जीवन से जुड़े जो बेहद महत्वपूर्ण पक्ष हैं,उनके प्रति एक उत्सव वाला नजरिया रखा
जाता है,जिससे आप उसके महत्व को समझने या उसका आनंद लेने से चूक न जाएं.
सभ्यता के प्रारंभ से ही,जब मनुष्य
खानाबदोशी अवस्था में जंगलों में रहा करता था,तब भी उनमें सामूहिकता की भावना
थी.यह सामूहिकता जंगली जानवरों से रक्षा करने या दूसरे कबीलों से रक्षा के लिए
होती थी.तब परिवार और समाज नाम की कोई संस्था नहीं थी, लेकिन सामूहिकता की भावना
तब भी थी.सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों से गुजर कर मनुष्य आज विकास के चरम
स्तर पर है तो भी मनुष्य ने सामूहिकता का परित्याग नहीं किया है.
आज विभिन्न पर्व,त्योहारों,उत्सवों में यही सामूहिकता की भावना दिखाई देती है.मिलजुल
कर उत्सव मनाने के पीछे सामाजिकता की भावना ही रहती है.लोग परिवार,समाज से दूर
कितने ही हों,उनमें यही उत्सवधर्मिता अपने परिवार,समाज के पास खींच ले आती
है.त्योहारों को एक साथ मिलजुलकर मनाने का आनंद ही कुछ और होता
है.
किसी समाज के उत्सव का जीवन उस समाज के जीवन के समान ही रंगमय और दीर्घ होता
है.भौगोलिक परिवर्तनों से उत्पन्न प्रकृति के नव – नव रूप,उनसे संचालित विभिन्न
क्रिया- कलाप,धार्मिक विश्वास,पौराणिक और ऐतिहासिक वृत्तों से अनुराग,सांस्कृतिक
मान्यताएं,सौंदर्य – बोध,जीवन और व्यवहार - जगत का सामंजस्य आदि मिलकर ही पर्व
विशेष को जन्म और विकास देते हैं.
दीपमालिका पर्व भी इसके मूल में है.अंधकार पर प्रकाश की विजय,मृत्यु पर अमरता
का अभियान आदि अमूर्त भावों ने भी उसे स्पंदन दिया है.हर धर्म ने सृष्टि की
उत्पत्ति का मूल ज्योति को माना और सृष्टिकर्ता की कल्पना विराट और अजस्त्र
ज्योति-केंद्र के रूप में की.
प्रकाश की पुकार,जीवन के उर्घ्व-गमन का मंगल उत्सव है.और इस पुकार को जितना
प्रतीकात्मक सौंदर्य दीपक दे सकता है,उतना किसी अन्य उपकरण से संभव नहीं.मानव
मनीषा ने प्राचीनतम युग में भी आलोक की दोहरी स्थिति का अनुभव कर उसे जीवन की
प्रेरणा के रूप में स्वीकार किया है.
ऋग्वेद में कहा गया है .........
तव त्रिधातु पृथिवी उतधौर्वेश्वानरव्रतमग्ने सचन्त |
त्वम् भासा रोदसी अततंथाजस्रेंण शोचिषा शोशुचानः ||
अर्थात् – हे वैश्वानर ! अंतरिक्ष,पृथ्वी और द्धुलोक तुम्हारी ही कर्म –
व्यवस्था धारण करते हैं.तुम प्रकाश द्वारा व्यक्त होकर पृथ्वी और आकाश में व्याप्त
हो और अपने अजस्त्र तेज से उद्भासित हो.
दीपावली मनाने के पीछे भी यही विचार है कि अपनी जिंदगी में उत्सव मनाने का
विचार लाया जा सके.इसलिए इस दिन पटाखे चलाये जाते हैं,ताकि थोड़ी सी चिनगारी एवं
उत्साह का संचार आपके भीतर भी हो सके.इन त्योहारों का असली मकसद यही है कि साल के
हर दिन हमारे अंदर वही उमंग एवं उत्साह कायम रहे.अगर हम यों ही सहज बैठें तो हमारा
दिल,दिमाग,शरीर एक पटाखे की तरह उमंग से भरा रहे.
दीपावली विश्व परिवर्तन का यादगार पर्व है.सभी त्योहारों में सबसे अधिक
आध्यात्मिक और सबसे ज्यादा ख़ुशी मनाने का त्यौहार.यह त्योहार हर एक के मन में
रोमांच और अद्वितीय ख़ुशी की भावना लाता है.सभी इस पर्व पर यह कामना रखते हैं कि
हमारे जीवन में भाग्योदय और शुभ –लाभ हो.
दीपावली कार्तिक अमावस्या के दिन आती है.अमावस्या यानि अंधकार,जो अज्ञानता और
विकारों का प्रतीक है.इसलिए घर - घर में अंदर और बाहर अधिकाधिक दीपमालाएं आदि लगाने
की होड़ लग जाती हैं.लेकिन हमारी आत्मा ही सच्चा दीपक है.इसलिए सच्ची दीपावली मनाने
के लिए मन के दीप को जलाना और उसके प्रकाश को चारों ओर फैलाना सबसे जरूरी है.इसलिए
हमें स्थूल रोशनी करने के बजाय अज्ञान रुपी अंधकार को मिटाकर अंतर्मन में
आत्मज्ञान की ज्योति जलाने की जरूरत है.इसके प्रकाश की खुद हमें ही नहीं,पूरे विश्व को
जरूरत है.
दीपोत्सव रोशनी के त्यौहार के रूप में सबसे अलग तो है ही,इसे सबसे ज्यादा
उल्लास से मनाये जाने वाले त्योहारों में गिना जा सकता है.इस दिन न केवल घर –आँगन
में दीप जलाने बल्कि अपने मन में जमा हो गए अज्ञान के अंधकार को मिटाकर,ज्ञान के
दीपक जलाने की बात भी की जाती है.
पर, दीपावली एक मायने में देश के सारे त्योहारों से अलग इसलिए है कि इसमें हर
आदमी,हर परिवार समृद्धि की कामना करता है.दीपावली का महत्व इस बात में भी है कि यह
बताती है कि मोह – माया से मुक्ति अपनी जगह है,लेकिन भौतिक समृद्धि भी जीवन का एक
महत्वपूर्ण पक्ष है.
दीपावली का त्योहार हमें यह भी बताता है कि सभी लोगों को समृद्ध और खुशहाल
बनाने का चिंतन भारतीय संस्कृति की एक प्राचीन चिंता है.
बहुत सुंदर व्याख्या !
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसाझा करने के लिए आभार।
सादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteकल 25/10/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
सादर धन्यवाद ! आभार.
Deleteबहुत सुंदर आलेख.भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्योहारों का एक अलग ही महत्व है.
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteउत्कृष्ट प्रस्तुति.भारतीय संस्कृति और उत्सवों पर उम्दा आलेख.
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteउत्सव मनाने का भी एक अलग आनंद है.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति.
आप सभी का मेरे ब्लॉग पर स्वागत है.
http://iwillrocknow.blogspot.in/
सादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteबहुत सुंदर आलेख है...
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteउत्सव धर्मी समाज को पुराने का परित्याग कर नया शुद्ध परिवेश बनाए रखने की प्रेरणा का भी पर्व है दीपमाला। घ आँगन को बुहारने दिलद्दर बुहारने का पर्व भी है दिवाली। अलबत्ता द्युत क्रीडा इसमें क्यों और कैसे चली आई यह विचारणीय है।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteबहुत सुंदर.....हमारी संस्कृति की पहचान है त्योहार......।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deletesundar saamyik vichaar
ReplyDeleteउम्दा जानकारी हमारी संस्कृति की
ReplyDeleteआपकी इस उम्दा पोस्ट को http://hindibloggerscaupala.blogspot.com/">हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल के शुक्रवारीय अंक " निविया की पसंद " मैं शामिल किया गया हैं कृपया अवलोकन के लिय पधारे ...धन्य वाद
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deletebahut sundar aalekh...!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव और प्रभावशाली आलेख और अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteयह जीवन ही उत्सव हैं |हर पल उत्साह उमंग और उर्जा से भरा हैं |
ReplyDelete“अजेय-असीम{Unlimited Potential}”
सादर धन्यवाद ! अजय जी . आभार .
Deleteबहुत सुन्दर आलेख भारतीय परम्परा ,त्यौहार ही भरतीय सभ्यता को जीवित रखे हुए हैं इन परम्परों त्योहारों का महत्त्व इसलिए भी है की इससे सौहाद्रता बढती है,इसमें दीवाली का त्यौहार मुख्य है कितु इसका स्वरुप व्यवसायिक ज्यादा होता जा रहा है ये एक चितन का विषय है ,बहुत बहुत बधाई आपको
ReplyDeleteसुन्दर ,रोचक और सराहनीय। कभी इधर भी पधारें
ReplyDeleteलेखन भाने पर अनुशरण या सन्देश से अभिभूत करें।
सादर मदन
सादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteबहुत सुन्दरता व शालीनता भरा आलेख , राजीव भाई
ReplyDeleteहिंदी टाइपिंग साफ्टवेयर डाउनलोड करें
सादर धन्यवाद ! आशीष भाई . आभार .
Deleteबहुत सुंदर व्याख्या एंव आलेख राजीव जी। आभार सहित शुभकामनाये।
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! मनोज जी . आभार .
Deleteबहुत सुंदर आलेख....
ReplyDeleteभारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्योहारों का
एक अलग ही महत्व है ....
सादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteउत्सव प्रिय मानवाः -बहुत अच्छा विवेचनात्मक निबन्ध!
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteबहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख .. भारतीय परम्परा ,त्यौहार ही भरतीय सभ्यता के मूल में है और यही इसके टिकाऊपन की वजह है .
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteसुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
Deleteबेहद सुंदर सामयिक लेख , आभार आपका !
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ! आभार .
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