अमीर खुसरो को लोगों ने
अलग-अलग दृष्टिकोण से देखा है.किसी ने उन्हें उच्च श्रेणी का योद्धा बताया है तो
किसी ने संगीत का प्रगाढ़ प्रेमी.यहाँ तक कि वे सितार के आविष्कर्ता भी माने गये. वे
उदारचेता सूफी थे,पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उन्हें कट्टर मुस्लिम और हिंदुस्तान
में इस्लाम का प्रचारक भी बताते रहे हैं.
वास्तविकता यह है कि इनमें
से कोई भी रूप अमीर खुसरो का वास्तविक स्वरूप नहीं है.यदि उनका वास्तविक रूप देखना
है तो हमें उनकी काव्य-कृतियों में देखना पड़ेगा- खड़ी बोली की उनकी पहेलियों में
नहीं,बल्कि उनके फारसी कलामों में.
इस संबंध में एक रोचक
वृत्तांत है कि ईरान की एक कुशल कवियित्री की काव्य-कृति पर आसक्त होकर एक शायर ने
उसे पत्र लिखा और उसे देखने की इच्छा प्रकट की.वह देखने में अत्यंत सुंदर थी,फिर
भी उसे अपने सौन्दर्य पर घमंड नहीं था – गर्व था अपने काव्य पर.अस्तु उसने उत्तर
में यह सुंदर शेर लिख भेजा.....
हमचू बू पिनहा शुदम दर-रंगे गुल मानिंदे गुल,
करके दीदन मैल
दारद दर सुखन बीनद मरा |
अर्थात,फूल में जिस तरह
उसकी गंध छिपी रहती है,उसी तरह मैं अपनी कविता में छिपी हुई हूं.जो मुझे देखने का
इच्छुक हो,वह मुझे मेरी शायरी में देखे,क्योंकि मेरा असली रूप उसी में है.फूल में
ही उसकी महक पायी जा सकती है.यह कथन अमीर खुसरो पर भी लागू होता है.उनके कलाम ही
उनके वास्तविक स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं.
अमीर खुसरो का कलाम जिस कदर
फ़ारसी में है,उसी कदर ब्रजभाषा में भी है.लेकिन यह अफसोसनाक है कि जहां उनके फ़ारसी
कलाम बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं,वहीं ब्रजभाषा की रचनाओं का कहीं नामोनिशान नहीं
है.जाहिर है कि मुस्लिमों ने तो उनके फ़ारसी कलामों की रक्षा की लेकिन हिन्दुओं ने
ब्रजभाषा की उनकी रचनाओं की रक्षा नहीं की.केवल कुछ पहेलियाँ प्रचारित होती रहीं
और कुछ दोहे जो उन्होंने अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया के निधन पर लिखे थे.
फारसी के उनके कलाम जाहिर
करते हैं कि वे कितने ऊँचे दर्जे के शायर थे.किसी ने ठीक ही कहा है कि उनका एक-एक
कलाम मोतियों से तोले जाने के काबिल है.
गौरतलब है कि मिर्जा ग़ालिब
इस देश के किसी शायर को अपने से बड़ा नहीं मानते थे,सिवा खुसरो के,जिनके संबंध में
उन्होंने लिखा भी है.......
ग़ालिब मेरे कलाम
में क्योंकर मजा न हो
पीता हूं धो के
खुसरबे-शीरीं सखुन के पाँव
उनके कलाम दिल पर गहरे असर
करते हैं.इस संदर्भ में एक वाकया काफ़ी चर्चित रहा है.नादिरशाह द्वारा दिल्ली का कत्लेआम
इतिहास की एक प्रसिद्ध घटना है.उस समय दिल्ली के तख़्त पर मुहम्मद शाह रंगीला आसीन
था.वह एक रंगीनमिजाज व्यक्ति था और सारा समय ऐशोआराम में व्यतीत करता था.उसके
शासनकाल में ही मराठों ने सर्वप्रथम सर्वप्रथम दिल्ली में प्रवेश पाया.
तालकटोरे में बाजीराव के साथ मुग़ल सेना की मुठभेड़ हुई,जहाँ उसकी हार हुई.मराठे विजयी
हुए,जिसके फलस्वरूप मुहम्मद शाह को नर्मदा तथा चंबल नदियों के बीच का सारा
इलाका,मालवा सूबे के साथ-साथ, मराठों को देना पड़ा.
इधर नादिरशाह फारस का तख़्त
छोड़कर गजनी,काबुल और कंधार तक अपना आधिपत्य जमा बैठा था और हिंदुस्तान को जितने क
स्वप्न देख रहा था.तभी उसे मुहम्मद शाह के मराठों के हाथों हारने तथा उसकी कमजोरियों,विलासिता,दरबार
में शोहदों क बोलबाला आदि की ख़बरें मिली और वह 1738 में सिंधु नदी को पार कर
हिंदुस्तान आ पहुंचा.इधर शाही फौज के सिपहसालार आपस में लड़ते रहे,उधर फारस की सेना
दिल्ली की ओर बढ़ती रही.
पानीपत के आसपास दोनों
सेनाओं की मुठभेड़ हुई.मुग़ल सेना बहादुरी के साथ लड़ी,जिसकी नादिरशाह कभी उम्मीद
नहीं करता था.नादिरशाह फारस लौटने को तैयार हो गया था,तभी मुहम्मद शाह के
मूर्खतापूर्ण हरकत से उसे फिर से साहस हुआ.हुआ यों कि मुहम्मद शाह बिना किसी को
बताये,पालकी में बैठकर नादिरशाह से मिलने छावनी में जा पहुंचा.काफी उपहार देने के
बाद उसे भरोसा था कि वह उन्हें लेकर फारस लौट जाएगा.नादिरशाह उसके साथ दिल्ली
पहुंचा और मुहम्मदशाह को उसके किले में ही बंदी बना डाला .
तभी एक दिन बाजार में अफवाह
उड़ी कि नादिरशाह की मृत्यु हो गयी.चांदनी चौक में उसके कुछ सिपाही खरीददारी कर रहे
थे कि बाज़ार के कुछ लोगों ने आवेश में आकर उसकी हत्या कर दी.इसकी खबर नादिरशाह तक
पहुंची तो वह क्रोध से पागल हो उठा और सिपाहियों को दिल्लीवालों का कत्लेआम करने का
आदेश दे दिया.मर्द,औरत,बूढ़े,बच्चे,मवेशी क़त्ल किया जाने लगे.खून की नदी बह चली.वह
स्वयं सुनहरी मस्जिद के ऊपर बैठकर इसे देखता रहा.किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उससे
इसे रोकने का अनुरोध करे.
तभी एक बूढ़े दरबारी ने हिम्मत की और नादिरशाह के पास जाकर
अमीर खुसरो के इस शेर को पढ़ा..........
कसे न मांद कि
दीगर ब तेगे-नाज कुशी |
मगर कि जिंदा
कुनी खल्करा व बाज कुशी ||
(कोई बचा नहीं,सब तुम्हारी कहर के शिकार हो गये,निगाहें-नाज की तलवार से तुमने सबको मार डाला.अब लोगों को लुत्फ़ की निगाह से जिंदा करो ताकि इन्हें फिर मार सको.)
नादिरशाह स्वयं एक शायर
था,इस अन्योक्ति को सुनते ही तड़प उठा.आज्ञा दी कि कत्लेआम बंद किया जाय.अमीर खुसरो
के इस शेर ने जादू का काम किया.
नादिरशाह इसके बाद किले के
खजाने को खाली करके,तख्तेहाउस और कोहिनूर हीरे को साथ लेकर फारस लौट गया.
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